Sunday, May 27, 2012

कवि गुरू : याद और विवाद






शंकर जालान








नि:संदेह इसी बार 8 मई को कवि गुरू रवींद्र नाथ टैगोर का जन्मदिन अन्य सालों की तुलना में अधिक जगह और अधिक धूमधाम से मनाया गया, लेकिन कई वजह से यह विवादों में भी रहा। इस वर्ष रवींद्र नाथ टैगोर को विवादों के साथ याद किया गया। तृणमूल कांग्रेस शासित राज्य सरकार ने
अतीत की परंपरा को तोड़ते हुए इस बार किसी को भी रवींद्र पुरस्कार नहीं दिया, जो कई लोगों का नागवार गुजरा। मालूम हो कि प्रतिवर्ष पचीसे वैशाख यानी रवींद्रनाथ टैगोर की जयंती पर यह पुरस्कार साहित्य क्षेत्र के किसी विशिष्ट लोगों को दिया जाता रहा है, लेकिन ममता बनर्जी की सरकार ने इस बार रवींद्र पुरस्कार नहीं दिया। रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर साहित्य के इस बड़े पुरस्कार को अचानक बंद कर देने से कला, साहित्य व संस्कृति जगत के लोग काफी नाराज हैं। इस बात पर हैरत जताते हुए लोगों ने कहा कि सत्ता में आने के करीब एक साल के बाद भी नई सरकार को क्या साहित्य क्षेत्र की एक भी ऐसी विशिष्ट प्रतिभा नहीं मिली, जिसे रवींद्र पुरस्कार से नवाजा जा सके? बीते 60 साल से राज्य सरकार की तरफ से रवींद्र पुरस्कार दिया जाता है। 1950 से प्रतिवर्ष यह पुरस्कार रवींद्र जयंती के मौके पर प्रदान किया जा रहा है।1950 में पहला रवींद्र पुरस्कार सतीनाथ भादुड़ी व निहाररंजन राय को प्रदान किया गया था। उसके बाद परशुराम, ताराशंकर बंद्योपाध्याय, प्रेमचंद मित्र, आशापूर्णा देवी, विमल मित्र, सुशोभन सरकार, लीला मजुमदार, शंख घोष आदि को इस रवींद्र पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। वर्ष 2011 में यह पुरस्कार नोबेल जयी व विशिष्ट अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को दिया गया था। वहीं, राज्य सरकार की ओर से रवींद्र जयंती समारोह का आयोजन पारंपरिक स्थल और समय में किया गया बदलाव भी लोगों को रास नहीं आया।  रवींद्र जयंती समारोह का आयोजन रवींद्र सदन परिसर में न कर इसे परिवर्तित स्थान पर आयोजित करने के कदम पर लोगों ने भारी नाराजगी जताई। राज्य सरकार ने सुबह छह बजे के बदले दोपहर दो बजे एकाडेमी आॅफ फाइन आर्ट्स के सामने खुली सड़क पर रवींद्र जयंती समारोह आयोजित किया, जिसमें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत कई नेता व मंत्री व कलाकार भी उपस्थित रहे।
रवींद्र जयंती पर आज महानगर में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए। स्कूल, कालेज आदि शिक्षण संस्थानों समेत विभिन्न इलाकों में भी रवींद्र जयंती का पालन किया गया। कई जगह बच्चों व छात्रों ने जुलूस निकाला। इसके अलावा रवींद्र जयंती के मौके पर विभिन्न तरह के आयोजन भी हुए, जिसमें संगीत, काव्य-पाठ, आवृत्ति, रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन पर नाटकों का मंचन, प्रभात फेरी आदि प्रमुख थे। इसमें महिलाओं व स्कूली बच्चों ने रंग-बिरंगी पोशाकों में हिस्सा लिया। 
विशिष्ट रवींद्र संगीत गायिका पुरबी मुखोपाध्याय ने राज्य सरकार के फैसले पर विरोध जताते हुए कहा-‘पचीसे वैशाख’ पर सुबह होने वाले कार्यक्रम की हम उत्सुकता से इंतजार करते हैं। ऐसे पारंपरिक व सम्मानजनक समारोह के समय में परिवर्तन कर इसे दोपहर कर देने का कोई अर्थ समझ में नहीं आ रहा है। मशहूर वाचिक कलाकार गौरी घोष ने कहा-हम सरकारी फैसले का कड़ा विरोध करते हैं। 
एसएफआई के प्रदेश सचिव सायंनदीप मित्र व डीवाईएफआई के प्रदेश सचिव आबास रायचौधरी ने कहा कि प्रतिवर्ष राज्य सरकार की तरफ से रवींद्र जयंती पर रवींद्र सदन परिसर में कार्यक्रम का आयोजन किया जाता रहा है। उन्होंने कहा कि यह परंपरा पिछले चार दशक से भी ज्यादा समय से चल रही है। लेकिन इस बार राज्य सरकार ने यह आयोजन सुबह के बदले दोपहर दो बजे करने का निर्णय लिया है जो पूरी तरह परंपरा का उल्लंघन है। 
इधर, कुछ हलकों में राज्य सरकार के इस फैसले के पीछे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की दिनचर्या को मुख्य कारण बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री सुबह देर से सोकर उठती हैं। बाद में व्यायाम, स्नान व पूजा-पाठ करने में उनको काफी वक्त लग जाता है। ऐसे में रवींद्र जयंती के मौके पर सुबह के कार्यक्रम में वे हिस्सा नहीं ले सकतीं, लिहाजा इस बार सरकार की तरफ से रवींद्र जयंती समारोह का स्थान व समय बदल दिया गया है।
मालूम हो कि यह साल कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर की 150वीं जयंती का समापन वर्ष था। एक साल पहले यानी 2011 से 2012 के दौरान कोलकाता समेत पूरे राज्य में टैगोर की याद में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए। केंद्र सरकार ने रवींद्रनाथ टैगोर की 150वीं जयंती के समापन के मौके पर बोलपुर स्थित विश्वभारती के विकास के लिए 150 करोड़ रुपए मंजूर किया है। बांग्लादेश की विदेश मंत्री दीपू मोनी की मौजूदगी में आयोजित एक समारोह में केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इसकी घोषणा की। इस मौके पर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी उपस्थित थे। इसी समारोह में प्रतिवर्ष ‘टैगोर इंटरनेशनल’ सम्मान प्रदान करने की भी घोषणा की गई। इस बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कला व संस्कृति जगत में विशिष्ट योगदान के लिए मशहूर सितारवादक पंडित रविशंकर को यह सम्मान देने की घोषणा की गई। इस साल के अंत में एक समारोह में राष्ट्रपति उनको यह सम्मान प्रदान करेंगे।

हिलेरी-ममता वार्ता






शंकर जालान






अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिटंन ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात कर भले ही ममता बनर्जी का राजनीतिक कद बढ़ा दिया हो, लेकिन संविधान विशेषज्ञ इसे परंपरा का उल्लंघन मान रहे हैं। जहां संविधान विशेषज्ञ इसकी वैधता पर सवाल उठाने लगे हैं। इस पर बहस तेज हो गई है कि कोई राज्य कैसे किसी दूसरे देश की विदेश मंत्री से सीधी बात कर सकता है? वहीं, माकपा के दो शीर्ष नेताओं ने कड़ी आपत्ति जताई। इनमें राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट््टाचार्य व माकपा के राज्य सचिव विमान बसु प्रमुख हैं। दोनों नेताओं ने एक स्वर से हिलेरी क्लिंटन के साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुलाकात को लेकर आशंका जताई। माकपा नेताओं ने कहा कि  पश्चिम बंगाल में इसी विदेशी मेहमान की पसंद की सरकार सत्ता में आई है, इसीलिए वे (हिलेरी क्ंिलटन) यहां आई हैं। मालूम हो कि पिछले साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के समय अमेरिकी संस्था विकीलिक्स ने अपने एक खुलासे में भारत में अमेरिकी राजदूत के हवाले कहा था कि अमेरिका पश्चिम बंगाल में अपनी पसंद की सरकार स्थापित करना चाहता है। विकीलिक्स पर यह खुलासा 20 अप्रैल 2011 को हुआ था। साथ ही इसी खुलासे में यह भी कहा गया था कि 20 अक्तूबर 2009 को कोलकाता स्थित अमेरिकी कांसुल जनरल द्वारा भेजे एक संदेश में कहा गया था कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को भावी मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित करना होगा। माकपा नेताओं ने कड़े शब्दों में कहा कि भारत के अंदरुनी मामलों में अमेरिकी विदेश मंत्री के हस्तक्षेप को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जरूरी मुद्दों पर हिलेरी क्लिंटन को अगर कुछ कहना हो तो वे सीधे भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहनी चाहिए।  
माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने यह मामला ससंद में भी  उठाया। हिलेरी-ममता की मुलाकात के ठीक बाद येचुरी ने राज्यसभा में शून्यकाल के दौरान कहा कि केंद्र सरकार को इस पर तत्काल टिप्पणी करनी चाहिए। आखिर, ममता बनर्जी को किसी दूसरे देश की विदेश की मंत्री से सीधी वार्ता की इजाजत किसने दी। आमतौर पर भारतीय संविधान में ऐसी वार्ता की परंपरा नहीं है। यह पहला मौका है जब अमेरिका ने भारत के किसी राज्य सरकार से सीधी वार्ता की हो। संविधान के जानकार इसे भारत के आंतरिक मामलों में दखल करार दे रहे हैं। 
अमेरिकी विदेश मंत्री के दौरे पर एक पक्ष का यह भी कहना है कि आर्थिक तंगी से जूझ रहे पश्चिम बंगाल में अमेरिकी निवेश की संभावनाएं भी काफी बढ़ गई हैं।  लंबे अरसे बाद पहला मौका है जब किसी अमेरिकी विदेश मंत्री ने अपनी तीन दिवसीय भारत यात्रा के दो दिन कोलकाता में गुजारे हों और मुख्यमंत्री से मुलाकात की हो। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इससे साफ है कि अमेरिका ममता बनर्जी और उनकी सरकार को जरूरत से ज्यादा महत्व दे रहा है। तभी तो हिलेरी ने भारत की राजधानी नई दिल्ली से पहले कोलकाता का दौरा किया। अपने दो दिवसीय दौरे में हिलेरी ने भारतीय संस्कृति परिषद की ओर से आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिस्सा लिया। विक्टोरिया मेमोरियल देखने पहुंचीं।

एक साल की तृणमूल सरकार







शंकर जालान




कोलकाता। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार को बीते 20 मई को एक साल हो गया। एक साल यानी 365 दिनों के भीतर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कार्य पद्धति ज्यादातर लोगों को नागवार लगने लगी। मौटे तौर पर देखा जाए तो एक साल में ममता ने बातें ज्यादा की और उस तुलना में काम कम किया। ममता का बतौर मुख्यमंत्री पहला साल घोषनाओं का साल रहा। मुख्य विपक्षी दल माकपा तो क्या तृणमूल की सहयोगी कांग्रेस पार्टी भी ममता के अड़ियल रवैए से तंग आती दिखी। राज्य की जनता से जिस उम्मीद से ममता को राज सिंहासन (मुख्यमंत्री की गद्दी) पर बैठाया था, करीब-करीब वह काफूर होती दिखी। बीते साल 20 मई को राज भवन में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ममता वहां से पैदल अपने सरकारी कार्यालय (राइटर्स बिल्ंिडग) पहुंची थी। रास्ते भर उन्होंने लोगों का अभिवादन स्वीकार किया था और लोगों का लगा था कि सचमुच ममता कुछ करेगी, लेकिन एक साल में ही दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। ऐसा नहीं है कि इन 365 दिनों में ममता ने कुछ नहीं किया, लेकिन जनता को जो उम्मीद थी उस लिहाज से ममता द्वारा किया गया काम ऊंट के मुंह में जीरा की कहावत को चरितार्थ करता है। इन सब बातों के बीच ममता बनर्जी की कुछ उपलब्धियों को नदरअंदाज नहीं किया जा सकता। जैसे टाइम पत्रिका द्वारा ममता को दुनिया की सौ जानी-मानी हस्तियों में शुमार करना, अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की ममता से मुलाकात और प्रेस कौंसिल आॅफ इंडिया के चेयरमैन मार्कडेय काटजू का कोलकाता में ममता बनर्जी की तारीफों का पुल बांधने की घटना प्रमुख है। इन घटनाओं ने नि: संदेह ममता के राजनीति कद में इजाफा किया है, लेकिन ममता ने इन 12 महीनों के दौरान अपनी मनमर्जी से बगैर सोचे-विचारे जो फैसले लिए उनमें से कई फैसलों के लिए उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़ा। वैसे तो ममता के कई निर्णय राज्य की साधारण जनता के साथ-साथ बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों, पत्रकारों को गैर जरूरी लगे, लेकिन सरकारी अनुदानप्राप्त पुस्तकालयों में रखे जाने वाले समाचार-पत्रों पर सरकार का हस्तक्षेप और इमामों के लिए मासिक भत्ते की घोषणा ने न केवल ममता की मानसिकता को उजागर किया, बल्कि बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों को उनके (ममता) खिलाफ बोलने का मौका भी दे दिया।
कहना गलत न होगा कि वाममोर्चा को मन से उतारने में राज्य की जनता को 34 साल लग गए थे और जिस मन से राज्य की जनता ने तृणमूल कांग्रेस को जीत दिला कर ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया था। एक साल में ही ममता की आंखों में जनता के लिए वह ‘ममता’ नहीं दिख रही है, जिसकी उसे उम्मीद और आशा थी। दूसरे शब्दों में कहे तो ममता की ‘ममता’ राज्य की जनता से दूर होती जा रही है। राज्य के नाराज लोगों का कहना है कि ममता को जीतने के पीछे उनकी जो मंशा थी वह लगभग धरी की धरी रह गई। ममता के एक साल के कार्यकाल पर लोगों ने कहा- एक कहावत सुन रखी थी दूर का ढोल सुहावना लगता है। ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के एक साल के भीतर ही यह कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है।
ममता बनर्जी ने एक साल पहले 20 मई 2011 को पश्चिम बंगाल में 34 साल से सत्तासीन वाममोर्चा को हराने के बाद बतौर मुख्यमंत्री राइटर्स बिल्डिंग (राज्य सचिवालय) में कदम रखा था। उनकी इस जीत में बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों व कवियों द्वारा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के खिलाफ चलाए गए अभियान ‘परिवर्तन चाई’ (बदलाव चाहिए) का अहम योगदान रहा था। इन लोगों को सौ फीसद उम्मीद थी कि अग्निकन्या के नाम से चर्चित ममता बनर्जी राज्य की बदतर हालात को बदलेंगी और जड़ता की स्थिति को समाप्त कर राज्य की स्थिति में सुधार लाएंगी। वाममोर्चा के 34 सालों की तुलना में एक साल में ही इन लोगों की उम्मीदें धूमिल होती नजर आ रही हैं। मजे की बात तो यह है कि जिन बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट देने अपील की थी, उनमें से कुछ बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार को ‘फासीवादी’ तक कह दिया है।
बताते चले कि बनर्जी के खिलाफ आवाज उठाने वालों में लेखिका महाश्वेता देवी, शिक्षाविद् सुनंदा सान्याल, तरुण सान्याल, नाटककार कौशिक सेन, दक्षिणपंथी सुजात भद्रा हैं, जो कभी परिवर्तन चाई अभियान चलाने वालों की पहली कतार में खड़े थे। इस क्रम तृणमूल कांग्रेस के बागी सांसद और गायक कबीर सुमन के नाम को भी नहीं भूलाया जा सकता है।
परिवर्तन चाई अभियान की अगुवाई करने वाली लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी ममता के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली पहली शख्सियत थीं। बुद्धिजीवी कहते हैं कि कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। कानून-व्यवस्था और बिगड़ी है। बनर्जी आम आदमी की मुख्यमंत्री बनने के लिए क्षुद्र राजनीति से ऊपर नहीं उठ सकी हैं। यह निरंकुशता है, जो तानाशाही से एक कदम पीछे की स्थिति है।
एक कहावत है- बंगाल जो आज सोचता है, वह भारत कल सोचता है। सच है हर जगह यह कहावत सही नहीं हो सकती है, लेकिन यह कहना सही होगा कि बंगाल के बुद्धिजीवी जो आज सोचते हैं, बंगाल की बाकी जनता उसे अगले दिन सोचती है। बनर्जी के साथ जो लोग खड़े हैं वे भी   इस बात को अच्छी तरह समझते हैं और चिंतित हैं।
पार्क स्ट्रीट बलात्कार जिसे मुख्यमंत्री ने झूठा कहा था, कटवा बलात्कार कांड जिसे माकपा की साजिश करार दिया गया था, बनर्जी का मजाकिया चित्र भेजने के लिए यादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र की गिरफ्तारी और एक मामले में पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक पार्थ सारथि राय की गिरफ्तारी जैसी घटनाओं ने बुद्धिजीवियों और ममता बनर्जी के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है।
ममता को उनकी गलतियों का आइना दिखाने की जिम्मेदारी लेते हुए जब कुछ समाचार पत्रों ने उनके खिलाफ आलोचनात्मक नजरिया अपनाना शुरू किया, तो सरकार ने राज्य से सहायता प्राप्त पुस्तकालयों पर ऐसे समाचार पत्र खरीदने पर पाबंदी लगाने वाले विज्ञप्ति जारी कर दी।
सत्ता में आने के बाद सरकारी अस्पतालों के आपातकालीन वार्डों का औचक दौरा हो या ममता का राइटर्स बिल्डिंग से निकलने का समय हो। शुरू-शुरू में वे हमेशा रयल्टी शो की तरह कुछ निजी टीवी चैनलों पर छाई रहती थीं। यह वह दौर था जब बनर्जी सफलता के शिखर पर थीं और उनके लिए सब कुछ नया था। एक साल (2011 से 2012) के भीतर ही जनता को अचानक नई हकीकत का सामना करना पड़ रहा है।
ममता बनर्जी के संवाददाता सम्मलेन की कवरेज करने वाले पत्रकार जानते हैं कि वहां सवाल के लिए कोई जगह नहीं होती है और असहज करने वाले सवालों पर मुख्यमंत्री की कड़ी प्रतिक्रिया होती- आप माकपा के एजेंट हैं।
एक-डेढ़ साल पहले सामान्य से दो शब्द (1) बदलाव (2) चाहिए। जंगल की आग की तरह हर किसी तक पहुंच गए थे। जिसकी शुरुआत नंदीग्राम और सिंगुर से हुई थी। सिंगुर एक बार फिर सुर्खियों में है। सात साल पहले जमीन खोने वालों को विश्वास था कि उन्हें जमीन वापस मिलेगी। बनर्जी ने उन्हें यह भरोसा भी दिया था, लेकिन इस मामले का अभी तक हल नहीं निकल सका है।
ममता बनर्जी के अपनी ऐतिहासिक जीत के एक साल बाद अब भी किसी मुख्यमंत्री की बजाए सड़क पर जूझती, विपक्षी नेता की तरह ज्यादा व्यवहार कर रही हैं। ममता अब बावलेपन की मलिका या मनमौजी ममता हो गई हैं।

Sunday, May 13, 2012

फिर तृणमूल के सामने याचक की मुद्रा में कांग्रेस








शंकर जालान






कोलकाता। यह सही है कि 2009 से कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार में तृणमूल उसके (कांग्रेस) साथ है और 2011 में पश्चिम बंगाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भारी जीत अर्जित कर सत्तासीन होने वाली तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस है। कहने को तो कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में गठबंधन है, लेकिन व्यवहार में देखा जाए तो दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने या दबाने से कभी नहीं चूकते। लगभग हर मुद्दे पर कांग्रेस को ही तृणमूल कांग्रेस के सामने झुकना पड़ा है। ममता बनर्जी भले ही इसे अपनी जीत मानती हो, लेकिन राजनीति के पंडितों का कहना है कि ममता ने गठबंधन धर्म को ताक पर रख दिया है और अपनी मनमानी कर रही है। यह बात राजनीति के जानकारों के समझ में नहीं आ रही है कि आखिर कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व ममता की हर बात मान क्यों रहा है?
करीब तीन साल केंद्र में और बीते साढ़े ग्यारह महीनों ने पश्चिम बंगाल में ममता ने कांग्रेस से जो चाहा वहीं करवाया तो है ही मजे की बात यह है कि कई मुद्दों पर कांग्रेस को आड़े हाथों भी लिया है। अबकी बार भी दो बातों को लेकर कांग्रेस ममता के दरवाजे पर याचिका की मुद्रा में खड़ी दिख रही है। पहली बात राष्ट्रपति चुनाव की और दूसरी तिस्ता जल बंटवारे की।
कांग्रेस ने तिस्ता जल बंटवारे पर भारत-बांग्लादेश के बीच संधि में ऐन वक्त पर रोड़ा लगाने वालीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी को मनाने की कवायद नए सिरे से शुरू कर दी है। सूत्रों के मुताबिक आगामी कुछ दिनों में प्रधानमंत्री कार्यालय के कुछ अधिकारी तीस्ता जल के बंटवारे के फार्मूले में कुछ बदलाव की पेशकश के साथ ममता से मुलाकात कर सकते हैं। तीस्ता पर गतिरोध को तोड़ने के लिए बांग्लादेश और भारत के विदेश मंत्रियों की एक समिति भी बनाई है, जिसकी पहली बैठक नई दिल्ली में होने वाली है। तीस्ता पर किसी समझौते पर पहुंचने की ढाका की बेसब्री इसी बात से समझी जा सकती है कि निजी दौरे पर कोलकाता आईं बांग्लादेश की विदेश मंत्री दीपू मोनी इस मामले पर राय जाहिर करने से खुद को रोक न सकीं। उन्होंने अपने कोलकाता दौरे के दौरान पत्रकारों से कहा कि तीस्ता जल समझौते का महत्व सामरिक न होकर सामाजिक है। उनके शब्दों में दोंनों मुल्कों के लोग भावनात्मक तौर पर इससे जुड़े हैं, लिहाजा भारत सरकार को समय रहते इस पर निर्णय ले लेना चाहिए। हालांकि इस सिलसिले में उनकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात नहीं हो पाई थी।
दरअसल, भारत और बांग्लादेश के प्रधानमंत्रियों का मानना है कि दोनों देशों को तीस्ता का पानी आधा-आधा बांट लेना चाहिए। दस्तखत के लिए पेंडिंग पड़े संधि के ड्राफ्ट में भी यही बात है, लेकिन ममता तीस्ता के पानी का सिर्फ 25 फीसद बांग्लादेश को देना चाहती हैं।
उन्हें (ममता को) मनाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फरवरी में विदेश सचिव रंजन मथाई को कोलकाता भेजा था। दोनों की मुलाकात भी हुई, लेकिन ममता नहीं मानी। सूत्रोंं ने बताया कि प्रधानमंत्री कार्यालय के कुछ वरिष्ठ अधिकारी के मई के अंतिम सप्ताह में फिर से ममता बनर्जी से बात करेंगे। ताकि उन्हें तीस्ता जल बंटवारे में 60-40 के अनुपात पर मनाया जा सके। अगर ऐसा हुआ तो भारत तीस्ता का 40 फीसद पानी बांग्लादेश को देगा। हालांकि, ममता इस पर मानेंगी, इसको लेकर संशय है। पश्चिम बंगाल सचिवालय सूत्रों का कहना है कि ममता 70-30 का अनुपात चाहती हैं, लेकिन बांग्लादेश को यह मंजूर नहीं है। दोनों के बीच किसी समझौते पर पहुंचना केंद्र के लिए टेढ़ी खीर है।
दूसरी ओर देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा? यह अकेले कांग्रेस नहीं तय कर सकती, क्योंकि आंकड़ों के लिहाज से उसे घटक दलों के साथ-साथ कुछ अन्य दलों की रजामंदी भी चाहिए। इसलिए तीस्ता मुद्दे पर फिलहाल कांग्रेस ममता से पंगा लेने की स्थिति में नहीं दिखती, क्योंकि अपनी पसंद के व्यक्ति को राष्ट्रपति भवन भेजना कांग्रेस की पहली प्राथमिकता होगी और इस बात का पूरा-पूरा लाभ उठाने से ममता बनर्जी चूकने वाली नहीं दिखती।

Monday, May 7, 2012

जीपीओ में लगा खतों का अंबार






शंकर जालान





कोलकाता। भेजा गया खत गंतव्य स्थान तक नहीं पहुंचा या फिर मनी आर्डर से लगाया गया रुपया उनके घरवालों को नहीं मिला। लोग शिकायत करते रहते हैं कि भारतीय डाक के मार्फत पोस्ट किया गया पत्र या तो पहुंचा ही नहीं और अगर पहुंचा तो काफी विलंब से, जब उसका कोई मतलब नहीं रह गया। ठीक इसी तरह मनीआर्डर भी जरूरत के वक्त नहीं पहुंचता। इसे डाक विभाग की लापरवाही कहे या फिर पत्र और मनीआर्डर पाने वाले का दुर्भाग्य कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर यहीं कहा जा सकता है कि डाक विभाग के गैर जिम्मेदाराना रवैए के कारण ही निजी कुरियर कंपनियां फल-फूल रही हंै। लेकिन इससे भारतीय डाक विभाग के अधिकारियों व कमर्चारियों को कई फर्क नहीं पड़ता। पत्र, मनीआर्डर और पार्सल के बारे में पूछने पर वे टाल-मटोल सा उत्तर देते हैं। इन दिनों शॉटिंग मशीन की गड़बड़ी के कारण महानगर के मुख्य डाकघर (जीपीओ) में शहर से बाहर जाने वाली और बाहर से आईं खतों का अंबार लगा है, लेकिन अधिकारी कुछ बोलने को तैयार नहीं।
खत हो, मनीआर्डर हो या फिर पार्सल नहीं मिलने पर लोग डाकिए के खिलाफ शिकायत करते हैं। लोगों का मानना रहता है कि डाकिए ने उन्हें पत्र, मनीआर्डर या पार्सल देने में गफलत की है। लोगों की शिकायत लाजिमी भी है और स्वभाविक भी। लेकिन अगर डाकिए को आपका पत्र, मनीआर्डर या पार्सल मिले ही नहीं तो वह आपतक उसे कैसे पहुंचाएगा। इस बारे में उनका कहना है कि हमें डाकघर से जितने खत, मनीआर्डर और पार्सल मिलते हैं वे उसे समय पर सही लोगों के हाथों में पहुंचा देते हैं, बावजूद इसके कई बार उन्हें लोगों के कोप-भाजन का शिकार होना पड़ता है।
एक डाकिए न नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि ज्यादातर मामलों में डाकघर की गड़बड़ी के कारण खत गुम होते हैं, या फिर देर से पहुंचते हैं। इसके कारण का खुलासा करते हुए उन्हें कहा कि शॉटिंग मशीन की गड़बड़ी इसकी मुख्य वजह है। उन्होंने कहा कि बीते तीन-चार सप्ताह से जीपीओ में खतों का अंबार लगा है, क्योंकि वहां की स्पीड शॉटिंग मशीन ठीक से काम नहीं कर रही है। उन्होंने बताया कि बहुत कम लोग इस बारे में जानते हैं खतों को पोस्ट करने और उसे गंतव्य स्थान तक पहुंचाने में शॉटिंग मशीन की अहम भूमिका होती है। हमारा (डाकिए) काम तो बस स्थानीय डाकघर से मिले खतों को घर-घर पहुंचाना है। उनके मुताबिक जीपीओ में लाखों खतों का ढेर लगा है और इसी अनुपात में मनीआर्डर और पार्सल लंबित पड़े हैं।
इस बारे में जीपीओ के संबंधित विभाग के अधिकारियों का कहना है कि करीब दो महीने पहले खतों को इलाका (स्थानीय डाकघर) स्तर पर छांटने के लिए विदेश से स्पीड शॉटिंग नामक मशीन मंगवाई गई थी और लगभग एक महीने से वह काम नहीं कर रही है, लिहाजा यहां खतों का पहाड़ लग गया है। उन्होंने कहा कि कर्मचारियों के अभाव में हम यह काम मेन्यूवल भी नहीं करा पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि मशीन आने से पहले यहां खतों को छांटने का काम कर्मचारी ही करते थे, लेकिन मशीन आने के बाद मेन्यूवल छंटाई का काम बिल्कुल बंद हो गया और अब मशीन काम नहीं कर रही है, इसलिए यह समस्या खड़ी हो गई है। हालांकि इस बारे में जीपीओ के पोस्ट मास्टर ने कुछ भी बोलने से इंकार किया।
मालूम हो कि एक सौ करोड़ की लागत वाली इस विदेशी स्पीड शॉटिंग मशीन को जीपीओ में करीब दो महीने पहले लगाया गया था और बताया गया था कि इस मशीन के व्यवहार में आते ही खतों की छंटनी बहुत कम समय में हो जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, अलबत्ता जीपीओ में खतों का अंबार लग गया।

Sunday, May 6, 2012

पुरीने सिक्के हैं रोटी का जरिया





शंकर जालान





कोलकाता, महानगर कोलकाता की फुटपाथों पर सिक्कों की खरीद-फरोख्त से जुड़े लोगों पर अब संकट के बादल मंडराने लगे हैं। क्योंकि उनके लिए सिक्कों का संग्रह करना कठिन हो गया है। इसलिए आमदनी प्रभावित हो रही है।
महानगर कोलकाता में कई लोग प्राचीन मुद्राओं की खरीद-फरोख्त के कारोबार से जुड़े हैं। मुद्राओं का कारोबार वैध है या अवैध, यह इन कारोबारियों को नहीं मालूम। जवाहरलाल नेहरू रोड पर पुरानी मुद्रा बेच रहे डी. साहा कहते हैं कि वह पिछले तीस साल से फुटपाथ पर पुरानी मुद्राओं की दुकान लगाते आ रहे हैं। उनकी दुकान देशी-विदेशी पुरानी मुद्राओं से सजी रहती है और इनकी बिक्री से हुई कमाई से उनका परिवार चलता है। साहा कहते हैं कि अलग-अलग समय के सिक्कों की अलग- अलग कीमत होती है। सिक्कों के संग्रह के शौकीनों को इनकी कीमत देने में कोई दिक्कत नहीं होती है। वहीं, एल. घोष का कहना है कि ब्रिटिश कालीन सिक्कों को यूरोपिय देशों से आये पर्यटक चाव से खरीदते हैं। ऐसे सिक्के जिन पर महारानी विक्टोरिया व एलिजाबेथ की तस्वीर छपी हो, उसे अधिक कीमत देकर वे खरीदते हैं। वे कहते हैं कि अब सिक्कों का संग्रह करना कठिन हो गया है। इसलिए आमदनी भी प्रभावित हो रही है। इटली, सिंगापुर व मलेशिया व खाड़ी देशों की मुद्राएं खासी कीमत में बिकती हैं। मुद्राओं का संग्रह करने वालों की संख्या भी धीरे-धीरे कम हो रही है। अब कारोबार विदेशी पर्यटकों के भरोसे रह गया है।
गौरतलब है कि पुरानी देशी विदेशी मुद्राओं की कीमत वर्तमान में आसमान छू रही है। वर्ष १८३५ के आधा आना के तांबे के सिक्के दो सौ से ढाई सौ रुपए में बिक रहे हैं। वर्ष १९४४ व १९४५ में प्रचलन में रहे दो आने के सिक्के की कीमत दस रुपए, १९१७, १९१८, १९३४ और १९४१ के बने १/४ आना के तांबे के सिक्के १५ रुपए में बिक रहे हैं।

Saturday, May 5, 2012

परिवर्तन पर पछतावा






शंकर जालान




एक साल जाते न जाते पश्चिम बंगाल की जनता को राज्य में ३४ साल बाद हुए सत्ता परिवर्तन में पछतावा होने लगा है। राज्य की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की कार्य पद्धति ज्यादातर लोगो को रास नहीं आ रही है। केंद्र पर दवाब डालने का मामला हो या विपक्ष को फटकारने का, ममता सबसे आगे हैं। नि-संदेह दुनिया के सौ चुनिंदा लोगों में ममता का नाम शामिल होने से वे खुद पर फूली नहीं समा रहीं हो, लेकिन हकीकत यह है ममता बनर्जी आजकल गलत कारणों से चर्चा में हैं। इन दिनों ममता अपनी न समझ आ पाने वाली कार्रवाइयों के कारण आलोचनाओं का शिकार हो रही हैं, जैसे कि उनको बुरे तरीके से प्रदॢशत करते एक कार्टून के कारण एक शिक्षाविद् को गिरफ्तार करना या अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से किसी माकपा परिवार में शादी न करने के लिए कहना या शहर में नीला रंग करना या फिर खुद का न्यूज चैनल व समाचार-पत्र निकलाने की बात हो। हर रोज एक नई चीज सामने लाना उनकी असहनशीलता को दर्शाता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि कुछ महीनों से राज्य में परिवर्तन का उत्साह मंद पड़ गया है या फिर लोगों को परिवर्तन पर पछतावा होने लगा है।
बीते साल मई में विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस की जबरदस्त जीत के बाद ममता एक चमत्कारिक व्यक्ति बन सामने आईं थीं। एक ऐसी नेता के लिए, जिसने जबरदस्त सौहार्द तथा विशाल बहुमत के साथ 34 वर्षों बाद साम्यवादियों से छुटकारा पाकर इतिहास रचा है, लेकिन उनके कारमानों ने  आलोचकों को जल्द मुंह खोलने का मौका दे दिया।
एक समय था जब माकपा मीडिया पर ममता के प्रति पक्षपाती होने व उन्हें विशेष प्रचार देने का आरोप लगाती थी। आज ममता दीवार की दूसरी तरफ हैं। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि वह मीडिया के साथ-साथ लोगों की निगाह में हैं जिन्होंने उन्हें इतना बड़ा जनादेश दिया था। जनता ने उन्हें वोट दिया, वह आशा कर रही थी कि उनका प्रशासन खुला तथा भविष्यपरक होगा। इसकी बजाय उन्होंने 9 मंत्रालय संभाल कर सभी शक्तियां अपने में केन्द्रित कर ली हैं जिससे निर्णय लेना और भी कठिन हो गया है क्योंकि हर बात का निर्णय उन्हीं को लेना होता है।
आखिर क्यों ममता का मीडिया से इतनी जल्दी मोह भंग हो गया। क्यों ‘हनीमून’ समाप्त होने से पहले ही मीडिया की रसिया ममता बनर्जी को पुष्पगुच्छों की बजाय आलोचना का सामना करना पड़ रहा है? ऐसा अत्यधिक आशाओं तथा बहुत कम कार्य के कारण है। या फिर यह इसलिए तो नहीं कि अनुभवहीन मुख्यमंत्री परिणाम देने में अक्षम हैं? या फिर इसलिए तो नहीं कि अपना समर्थन करने वाले लोगों को पक्के तौर पर अपने पक्ष में मान लिया है?
सबसे पहली बात यह है मुख्यमंत्री अपनी पहले वाली झगड़ालू नेता की भूमिका से बाहर नहीं निकली पाई हैं। इस प्रवृत्ति ने तब काम किया, जब वह विपक्ष में थी, लेकिन यह तब काम नहीं आएगी जब वह शासक हैं। उन्हें अवश्य पता होना चाहिए कि इन दोनों भिन्न-भिन्न भूमिकाओं के लिए उन्हें अलग-अलग नीतियां अपनानी होंगी। एक अखबार के मुताबिक ममता के आलोचकों को भय है कि ममता ने ‘एलिस इन वंडरलैंड’ में ‘रैड क्वीन’ की टोपी पहन ली है जो यह कहती-फिरती थी कि जिस किसी को भी वह पसंद नहीं करती उसका सिर कलम कर दो।
दूसरे, उन्हें निर्णय लेने की शक्ति का विकेन्द्रीयकरण करना होगा ताकि निर्णय तेजी से लिए जा सकें। उन्होंने एक शानदार टीम चुनी है लेकिन इस वक्त सब कुछ इस बात की प्रतीक्षा में है कि उनका इरादा क्या बनता है? उन्हें कुछ मंत्रालय भी छोडऩे होंगे ताकि बड़े नीति मामलों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए समय निकाल सकें।
ममता को यह एहसास होना चाहिए कि यह लोकतंत्र है, जिसने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है और लोगों के पास अभिव्यक्ति का अधिकार तथा कार्रवाई करने की स्वतंत्रता है। यदि इन्हें दबाया गया तो परिणाम विनाशकारी होंगे। उन्हें गलत तरीके से दर्शाने वाले एक कार्टून के लिए प्रोफैसर को गिरफ्तार करने के हालिया मामले के कारण न केवल हर कहीं उनके खिलाफ प्रदर्शनकारी उठ खड़े हुए हैं बल्कि पढ़ा-लिखा वर्ग भी, जिसने चुनावों से पूर्व उनका समर्थन किया था। जितनी उनकी आलोचना होती है, उतनी ही वह असहनशील बन जाती हैं।
ममता ने अभी कार्यकाल की बीस फीसद भी पूरा नहीं किया है। डर है कि यदि आलोचना ऐसे ही जारी रही तो क्या होगा? अगले वर्ष होने वाले पंचायती चुनावों में उनका कड़ा परीक्षण होगा। माकपा की हालिया कांग्रेस में अभी ममता का सामना करने की बजाय पार्टी के पुननिर्माण का निर्णय लिया गया। यदि वास्तव में माकपा ऐसा करती है तो ममता के सामने गंभीर चुनौती होगी। कामरेडों द्वारा विपरीत प्रतिक्रिया का लाभ उठाए जाने की संभावना है।
यह सच है कि ममता एक बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आई हैं। इसके साथ ही उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी भी मिली है। यदि अत्यधिक नियंत्रण बरता गया तो अपने लोगों को साथ बनाए रखना शीघ्र ही उनके लिए समस्या बन जाएगी नि:संदेह उनकी पार्टी के लोगों को यह एहसास है कि वे उनकी निजी लोकप्रियता के कारण जीते हैं लेकिन उन्हें अत्यधिक नियंत्रण के साथ दीवार की ओर नहीं धकेला जाना चाहिए जो वह उन पर इस्तेमाल कर रही हैं।
ममता को अपने लोगों को साथ बनाए व उनको खुश रखने की युक्ति सीखनी होगी। पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी पहले रेल बजट पर उनका विरोध करके अपनी हिम्मत दिखा चुके हैं जिसके लिए उन्हें अपना पद खोना पड़ा। अब एक अन्य विद्रोही सासंद कबीर सुमन कार्टून मामले पर अपनी कविताओं के माध्यम से उनका मखौल उड़ा रहे हैं।
इस सबका अर्थ यह नहीं कि इन कुछ महीनों के दौरान ममता ने कुछ भी नहीं किया है। लोगों की जुबान पर माओवादियों से निपटने में किए गए उनके प्रयासों का जिक्र है। उन्होंने केन्द्रीय बलों को हमेशा सक्रिय रखा है और माओवादी क्षेत्रों में विकास तथा नौकरियों के लिए बहुत धन उपलब्ध करवाया है। यहां तक कि उनके कट्टर आलोचक भी इस प्रयास के लिए उनको श्रेय देते नजर आए।
ममता का अभी भी अपना एक गुट है और कुछ गैर-कांग्रेस मुख्यमंत्रियों के साथ उनका अच्छा तालमेल है और जब कभी भी वह केन्द्र का सामना करना चाहेंगी, वे आगे बढ़ कर उनका साथ दे सकते हैं।
जानकार मानते हैं कि केन्द्र को जब तक उनके समर्थन की जरूरत है, वह उनके नखरे उठाता रहेगा। ममता के अभी भी समर्थक हैं जो उनकी तरफ देखते हैं और ममता को सुनिश्चित करना होगा कि उनका जल्दी ही उनसे मोहभंग न हो जाए। आगामी लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें और भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है विधानसभा चुनावों के दौरान कमाई नेक-नीयति को न खोना।

पहनावे पर विवाद में पादरी




शंकर जालान



देश की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले कोलकाता के  शहर के एक पादरी आर्क बिशप को चर्च में महिलाओं का मॉडर्न ड्रेस में आना पसंद नहीं। उन्होंने बीते दिनों महिलाओंप्रार्थना के दौरान पारदर्शी, चुस्त और छोटे कपड़े पहन कर नहीं आने की नसीहत दी। उनका मानना है कि इससे प्रार्थना में भिग्न पैदा होता है। पदारी की यह नसीहत कई लोगों को नागवार गुजरी। इससे पहले किसी पदारी ने इस तरह की सीख नहीं दी थी। चर्च में इस तरह के ड्रेस कोड का यह देश का पहला मामला है। जिस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है। कई महिलाइों ने इसे अपनी आजादी का हनन माना है।
बीते दिनों रोमन कैथोलिक चर्च के प्रधान आर्क बिशप थॉमस डिसूजा ने प्रार्थना के दौरान यह नसीहत देते हुए कहा था कि चुस्त व छोटे वस्त्र भद्दे दिखते हैं। उनका मानना है-पारदर्शी कपड़े भी लड़कियों की शालीनता का मजाक उड़ाते हैं। महिलाओं को वैसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए, जिससे उनकी देह झलकती हो। विशेष कर प्रार्थना के समय तो ऐसे कपड़ों को बिल्कुल ही नहीं पहनने चाहिए। वैसे बिशप ने इस बाबत कोई फतवा जारी नहीं किया है। चर्च में आने वाली महिलाओं से सिर्फ अपील भर की है। उन्हें उम्मीद है कि इस अपील का असर पड़ेगा और महिलाएं चर्च में आते वक्त छोटे कपड़े पहनने से पहरेज करेंगी।
पादरी के इस बयान पर महानगर में ईसाई समुदाय के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई है। ईसाई समुदाय की युवतियों ने इसका विरोध करते हुए कहा कि उनकी आजादी का हनन है। उनका धर्म बिशप को इस बात की इजाजत नहीं देता कि वह कोई ड्रेस कोड लागू करें। महानगर के प्रोटेस्टेंट ईसाई भी इस नसीहत को गैरजरूरी मान रहे हैं। कई अन्य चर्च के पादरी व ईसाई स्कूलों की प्रधानाध्यापिकाएं भीा बिशप की नसीहत से खफा हैं। इन लोगों का तर्क है कि आज के जमाने में हम सौ साल पुराने कपड़े पहनने को बाध्य नहीं कर सकते।
ध्यान रहे कि कोलकाता में ब्रिटिश राज के कुछ चुनिंदा क्लब ड्रेस कोड को अभी भी अहमियत देते हैं। समय-समय पर इसको लेकर विवाद भी होते रहे हैं। प्रख्यात बांग्ला चिज्ञकार शुभप्रसन्न को ऐसे ही एक क्लब ने धोती, कुर्ता और चप्पल के कारण प्रवेश से रोक दिया था। इसके बाद काफी बवाल मचा था।
जानकारों का मानना है कि पोशाक पहनने का अधिकार पूरी तरह से व्यक्तिगत है। जहां तक प्रार्थना सभा में मर्यादित कपड़े पहनने की बात है, लोगों को इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन जबरदस्ती महिलाओं या युवतियों पर किसी तरह का ड्रेस कोड लादना बिल्कुल उचित नहीं है।

Sunday, April 22, 2012

पश्चिम बंगाल - कार्टून पर बवाल





शंकर जालान



बीते सप्ताह पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एक कार्टून न केवल चर्चा का विषय बना, बल्कि इस कार्टून पर काफी बवाल भी मचा। यहां तक कि इंटरनेट पर कार्टून जारी करने वाले यादवपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले रसायन के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र और उनके पड़ोसी सुब्रत सेनगुप्ता को गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि अदालत से दोनों को जमानत मिल गई, लेकिन इस घटनाक्रम ने जहां लोगों को यह बता दिया कि सत्तासीन पार्टी तृणमूल कांग्रेस कुछ भी बोलने या लिखने वालों के ऐसा ही किया जाएगा। वहीं, तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी पार्टी कांग्रेस के साथ-साथ मुख्य विपक्षी दल माकपा के आलावा भाजपा ने कार्टून मसले पर प्रोफेसर व उनके पड़ोसी की गिरफ्तार का सत्ता का गलत उपयोग बताया।
आपको बताते चले की पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, रेल मंत्री मुकुल राय और पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी पर केंद्रित कार्टून इंटरनेट पर जारी किया गया था, जिसे तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेता अपमानजनक कार्टून की संज्ञा दे रहे हैं। सूत्रों की माने तो तृणमूल कांग्रेस की सह पर ही पुलिस ने प्रोफेसर और उनके पड़ोसी को गिरफ्तार किया। हालांकि कोलकाता पुलिस के उपायुक्त  (दक्षिण) सुजय चंदा ने कहना है कि  प्रोफेसर को कार्टून के लिए नहीं बल्कि कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के बारे में अपमानजनक बातें इंटरनेट पर डालने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। है। शुक्रवार ने जब उनसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों का नाम जानना चाहा, तो उन्होंने  नामों का खुलासा करने से इंकार कर दिया।
इस बारे में जानकारों लोगों का कहना है कि कार्टून में इस तरह का कुछ नहीं था, जिससे तृणमूल कांग्रेस को अपमान बोध हो और प्रोफेसर को गिरफ्तार करना पड़े। इन लोगों ने कहा कि तमाम अखबारों में कार्टून छपते हैं, कुछ अखबारों में तो कार्टून के एक विशेष स्थान तय होता है। कार्टून बनाने वाले कई बार यह दिखाने की कोशिश करते हैं, कि इनदिनों देश, दुनिया, समाज, फिल्म या फिर राजनीति में क्या हो रहा है। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा  सकता है कार्टून जिस पर बना हो उसे नागवार लगता हो, लेकिन इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता कि कार्टून देखने व पढ़ने वाले कार्टूस्टि की सोच की तारीफ जरूर करते हैं। ध्यान नहीं आता कि कार्टून को लेकर किसी देश, समाज, पार्टी, नेता या फिर व्यक्ति ने इतना बवाल मचाया हो और कार्टून बनाने या जारी करते वाले को इसकी कीमत गिरफ्तार होकर चुकानी पड़ी हो।
पुलिस का कहना है कि प्रोफेसर के खिलाफ भारतीय दंड संहिता और सूचना तकनीक अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है। उन्हें साइबर क्राइम अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया था। तृणमूल कांग्रेस के समर्थक भले ही पुलिस कार्रवाई को जायज ठहरा रहे हो और यह कहते फिर रहे हो कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी और पार्टी के अन्य नेताओं से संबंधित अपमानजनक कार्टून बनाने तृणमूल सरकार की नीतियों का मखौल उड़ाने वाले का भविष्य में भी यही हश्र होगा। लेकिन उसकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस ने ममता के इस कदम की निंदा की है। कांग्रेस सांसद मौसम बेनजीर नूर का कहना है कि यह लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश सचिव राहुल सिन्हा ने सरकार की इस कार्रवाई को सत्ता का दुरुपयोग करार दिया है। राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता और राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सूर्यकांत मिश्र इस वाकिए को अत्यंत हास्यास्पद बताया। उन्होंने कहा कि इस घटना से साफ हो जाता है कि सहनशीलता का अभाव है। भापका के राज्य सचिन मंजू कुमार मजुमदार ने कहा कि राज्य सरकार लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार का हनन कर रही है।
कांग्रेस, भाजपा, माकपा और भाकपा के नेताओं के बयान को गैर जरूरी बताते हुए राज्य के शहरी विकास मंत्री फिरहाद हाकिम कहते हैं कि इस तरह की किसी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।  परिवहन मंत्री मदन मित्र कहते हैं कि प्रोफेसर ने जो किया वह शिक्षक की गरिमा के खिलाफ है। श्रम मंत्री पूर्णेंदु बसु कहना है कि यह ममता बनर्जी का अपमान कर उनकी छवि पर धूमिल करने का प्रयास किया गया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि माकपा मेरी छवि खराब करने के लिए तरह-तरह के मुद्दे उछाल रही है। माकपा के नेता इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि कैसे मुझे फंसाया जा सके और बदनाम किया जा सके।
वहीं, तृणमूल के बागी सांसद कबीर सुमन ने कहा कि उन्होंने कार्टून देखा है,  लेकिन वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह किस प्रकार साइबर अपराध है। यह हास्य व्यंग्य के रूप में बनाया गया है। अगर आज प्रोफेसर को गिरफ्तार किया गया है तो कौन जानता है कल हमें भी गिरफ्तार किया जा सकता है।  सुमन कहते हैं कि मुझे भी वह कार्टून ई-मेल से मिला है। लेकिन उसमें वैसी कोई अपमानजनक बात नजर नहीं आती। ममता के करीबी समझे जाने वाले जाने-माने शिक्षाविद् सुनंद सान्याल ने भी इस घटना की निंदा की है। उन्होंने कहा कि राज्य के लोगों ने इस बदलाव की उम्मीद नहीं की थी। अभिनेता कौशिक सेन ने सवाल किया कि कार्टून बनाने वाले को गिरफ्तार करना कहां का कानून है? यह प्रवृत्ति खतरनाक है। यही सिलसिला जारी रहा तो बाद में हमारे नाटकों   पर भी पाबंदी लगा दी जाएगी और घरों पर हमले किए जाएंगे।
दूसरी ओर, प्रोफेसर की गिरफ्तारी के खिलाफ में यादवपुर व प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय में छात्रों व शिक्षकों ने विरोध प्रदर्शन किया और जुलूस निकाला। विश्वविद्यालय के दूसरे प्रोफेसरों का मानना है कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करना कोई जुर्म नहीं हैं और इसके लिए किसी को गिरफ्तार करना अनुचित है। यादवपुर विश्वविद्यालय शिक्षक संगठन के अध्यक्ष पार्थ प्रतीम विश्वास ने बताया कि आए दिन अकसर पत्र-पत्रिकाओं में सरकार व मंत्रियों के खिलाफ व्यंगात्मक कोलॉज व लेख प्रकाशित किए जाते हैं पर उनपर कोई कार्रवाई नहीं होती तो फिर इस मामले में प्रोफेसर को किस वजह से गिरफ्तार किया गया। इस घटना कि निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि देश में हर व्यक्ति को अपनी बातों को समाज के समक्ष रखने की आजादी है।  उन्होंने कहा कि एक तरह लोगों का वाहवाही लूटने के लिए ममता बनर्जी बीमार काटूनिस्ट को देखने अस्पताल जाती हैं और दूसरे ओर कार्टून बनाने वाले की गिरफ्तारी को जायज बता रही हैं। उन्होंने कहा कि  शिक्षकों का एक प्रतिनिधिमंडल इस मुद्दे पर राज्यपाल एमके नारायणन से मिलेगा।
मालूम हो कि प्रोफेसर का इंटरनेट पर जारी  कार्टून सत्यजीत रे की फिल्म सोनार केल्ला पर आधारित है। उसमेंं कथित तौर पर पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को हटाने के लिए ममता बनर्जी और मुकुल राय को आपस में बातचीत करते हुए दिखाया गया है। ध्यान रहे कि रेल बजट में किराया बढ़ाने के बाद ममता और पार्टी के दबाव में त्रिवेदी को रेल मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था।

Friday, April 13, 2012

तृणणूल कांग्रेस के दो रंग

शंकर जालान




तीन अप्रैल को पश्चिम बंगाल की जनता को चंद घंटों के दौरान ही तृणमूल
कांग्रेस के दो अलग-अलग रंग देखने को मिले। पहला रंग पार्टी के विधायक की
दबंगगिरी का और दूसरा रंग पार्टी प्रमुख की दरियादिली का। पढा था कि
गिरगिट रंग बदलने में माहिर होते हैं और सुना था कि नेता मौका पाकर रंग
यानी पाली बदल लेने हैं, लेकिन एक ही पार्टी के विधायक और उस पार्टी के
प्रमुख के अलग-अलग रंग पहली बार देखने को मिला।
तृणमूल कांग्रेस के फूलबागान इलाके के विधायक पारेश पाल ने उत्तर कोलकाता
स्थित उल्टाडांगा में प्रदर्शन कर रहे आटो चालकों को बेरहमी से पीट कर
अपनी दबंगी का परिचय दिया। विधायक ने कई आटो चालकों को कान-पकड़कर
उठख-बैठक भी कराई। कई चैनलों पर दिखाई गए इस कांड पर जब शुक्रवार ने
विधायक से पूछा क्या कानून हाथ में लेकर आपसे सही किया ? पहले तो वे जवाब
देने से कतराते रहे, लेकिन उनसे कहा गया कि आप के कृत को सभी ने न्यूज
चैनलों में देखा है तो उन्होंने तपाक से कहा जो किया अच्छा किया।
तृणमूल कांग्रेसी विधायक की दबंगगिरी ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया
कि क्या ये वहीं राजनीति दल है जो मां-माटी-मानुष के नारे के साथ
सत्तासीन हुई थी। बीते साल हुए विधानसभा चुनाव के पहले पार्टी के
उम्मीदवार, नेता व समर्थक यह कहते थे कि हम जनता के साथ रहेंगे। हर
सुख-दुख में खड़े दिखेंगे, लेकिन तृणमूल कांग्रेस विधायक पारेश पाल के
जघंन्य कांड ने लोगों को सोचने को बाध्य कर दिया कि हमने यह कैसा
परिवर्तन किया। माकपा रूपी सांप नाथ के स्थान पर तृणमूल रूपी नाग नाथ को
सत्ता की चाबी दे दी।
ध्यान रहे कि इससे पहले में ममता के भतीजे के पुलिस अधिकारी को थप्पड़
मारकर यह बता दिया था कि अब राज्य में तृणमूल की सत्ता है और तृणमूल के
समर्थक जो कर रहे हैं वहीं सही है।
राजनीति के जानकार मानते हैं कि बीते दस महीनों के दौरान ममता के नेतृत्व
वाली तृणमूल सरकार ने कार्य प्रणाली से यह साफ हो गया है कि परिवर्तन के
नाम पर केवल झंडा बदला है। सही मायने में राज्य की स्थित बदतर हुई है।
राज्य की बागडोर की महिला के हाथों में होने के बावजूद न केवल महिलाओं पर
अत्याचार बल्कि बलात्कारों की घटना में काफी इजाफा हुआ है। राज्य की
महिलाओं की सुरक्षा और स्थिति का पता लगाने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग
का प्रतिनिधिमंडल में राज्य का दौरा कर चुका है।
राजनीति के पंडितों की माने तो लोकतांत्रिक प्रणाली में शासन कानून से
चलता है। ऐसे में, किसी भी दल के नेता, विधायक और पार्षद को कानून हाथ
में लेकर मनमानी करने की छूट नहीं दी जा सकती। यदि कोई सीमा का उल्लंघन
करता है, तो उसकी
चौतरफा भ‌र्त्सना होनी चाहिए। प्रशासनिक कार्यो में रोक-टोक व नेताओं
द्वारा कानून हाथ में लेने से विधि-व्यवस्था बिगड़ सकती है। कानून को
अपना काम करने देना चाहिए। नहीं तो लोग समझेंगे कि सत्ता की ताकत का
प्रदर्शन किया जा रहा है।
इस मामले में बुद्धिजीवियों ने सवाल उछाला कि कोई नेता यह कैसे तय सकता
है कि वह जो कह रहा है या कर रहा है, वही ठीक है?
तृणमूल विधायक ने पूर्व उल्टाडांगा में जिस ढंग से अपने समर्थकों के साथ
सड़क जाम व बसों में तोड़फोड़ कर रहे आटो चालकों की पिटाई की और कान पकड़
कर उठक-बैठक कराया, उसे लेकर माकपा समेत अन्य राजनीतिक दलों के साथ-साथ
आम लोग भी
तरह-तरह के सवाल उठा लाजिमी हैं।
यह ठीक है कि आटो चालकों ने बसों पर पथराव व सड़क जाम कर गलत किया था,
लेकिन उससे पुलिस तो निपट रही थी। ऐसे में जनप्रतिनिधि खुद सजा कैसे दे
सकते हैं? आज यदि विधायक व पार्षद ऐसे अपनी ताकत का इस्तेमाल करेंगे तो
पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच क्या संदेश जाएगा? राजनीति में इस तरह के
रास्ते को आम जनता कतई पसंद नहीं करती हैं, जिससे अशांति को बढ़ावा मिले।
भले ही तृणमूल कांग्रेस के नेता यह कह रहे हो कि माकपा ने माकपा ने आटो
चालकों को भड़का कर कानून-व्यवस्था बिगाड़ने की कोशिश की। किंतु, इसके
लिए कानून तोड़ने की जरूरत क्यों महसूस हुई? अवरोध हटाने के लिए वह
स्थानीय पुलिस की मदद ले सकते थे, पर ऐसा नहीं कर वे समर्थकों के साथ आटो
चालकों को दंडित कर शक्ति प्रदर्शन करने पहुंच गए, जो गैर कानूनी है।
सरकार यदि यह कहती है कि कानून अपना काम करेगा तो सवाल उठना स्वभाविक है
कि किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार कहां से मिला कि वह किसी को भी सरेआम
दंडित करे? यदि इसके बाद स्थिति बिगड़ जाती तो इसके लिए जिम्मेवार कौन
होता?
वहीं दरियादिली का दूसरा रंग दिखाते हुए राज्य के मुख्यमंत्री ममता
बनर्जी ने नेताजी इंडोर स्टेडियम में इमामों के सम्मलेन को संबोधित करते
हुए राज्य के तीस हजार इमामों को प्रति महीने ढाई हजार रुपए देने का एलान
कर दिया। ममता के अस एलान पर प्रदेश भाजपा समेत अन्य विपक्षी दलों ने
कड़ी प्रतिक्रिया जाहि्र की। प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष राहुल सिन्हा ने तो
यहां तक कह दिया कि वे इस एलान के खिलाफ अदालत जाएंगे।

Thursday, April 5, 2012

तृणमूल का तुगलकी फतवा

शंकर जालान






बीते सप्ताह तृणमूल कांग्रेस के एक फतवे ने न केवल विपक्षी दलों बल्कि
बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, फिल्मकारों व अदाकारों के साथ-साथ आम जनता
को भी तृणमूल कांग्रेस की मनमानी व गैर जरूरी फरमान के खिलाफ मुखर होने
का मौका दे दिया। तृणमूल कांग्रेस की ओर से जारी आदेश में कहा गया था कि
राज्य में सरकारी और सरकारी सहायताप्राप्त पुस्तकालयों में बांग्ला के
पांच, उर्दू के दो और हिंदी का एक अखबार ही रखा जा सकेगा। सरकारी आदेश
में बकायादे इन तीनों भाषाओं के नाम तक का जिक्र कर दिया गया था।
इस आदेश के खिलाफ न केवल विपक्षी दलों बल्कि बुद्धिजीवियों,
साहित्यकारों, फिल्मकारों व अदाकारों के साथ-साथ आम जनता को लामबंद होते
देख राज्य के पुस्तकालय मंत्री अब्दुल करीम चौधरी ने कुछ संशोधन किया और
इस सूची में पांच अखबारों के नाम और जोड़े। इन पांच अखबारों में
अंग्रेजी, नेपाली और संथाली के एक-एक अखबार और बांग्ला भाषा के दो अन्य
अखबार शामिल किए गए।
संशोधन के बावजूद लोग इस फतवे को तुगलकी फरमान मान रहे हैं। किसी ने
राज्य सरकार के इस फैसले के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया है, तो किसी
ने राज्यपाल एमके नारायणन से भेंट कर उन्हें ज्ञापन देकर इस मामले में
दखल देना का अनुरोध किया है।
लोगों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस का यह फऱमान मुगल सम्राट मोहम्मद
बिन तुगलक की स्मृति को एक बार फिर से तरो-ताजा करने में इनके लिए सहायक
रहा है। लोगों ने सवाल उछाला कि पुस्तकालय मंत्री ने आखिर किस अधिकार
से सरकारी और सरकारी सहायताप्राप्त पुस्तकालयों में ऱखे या खरीदे जाने
वाले अखबारों के नाम का एलान कर दिया ? क्या हमें कौन सा अखबार पढ़ना है
इसका फैसला राज्य सरकार या पुस्तकालय मंत्री या फिर मुख्यमंत्री करेंगी ?
सरकारी आदेश में कहा गया कि सरकारी व सरकारी सहायताप्राप्त करीब २४५०
पुस्तकालयों में वहीं अबबार रखें जाएंगे, जो स्वतंत्र विचार के परिचायक
हैं। संशोधन के बाद जारी आदेश में अखबार की संख्या, भाषा और नाम का भी
साफ-साफ उल्लेख हैं। सरकारी आदेश के मुताबिक सरकारी व सरकारी सहायता वाले
पुस्तकालयों में बांग्ला के सात (सबाल बेला, खबर ३६५ दिन, बांग्ला
स्टेट्समेन, प्रतिदिन, आजकल, कलम (जिसका प्रकाशन अभी शुरू नहीं हुआ है)
और एक दिन), उदू के दो (आजाद हिंद व अखबार-ए-मशरीक) और हिंदी में एक
(सन्मार्ग), अंग्रजी में एक (टाइंस आफ इंडिया) व संथाली व नेपाली के
एक-एक अखबारों के नाम है।
जैसे ही इस फतवे के पीछे मुख्यमंत्री का नाम जुड़ा भले ही राज्य के
पुस्तकालय मंत्री अब्दुल करीम चौधरी मुख्यमंत्री के बचाव में यह कहते
फिरे की यह फैसला विभागीय है और इससे ममता बनर्जी का कोई लेना-देना नहीं
है। लेकिन ज्यादातर लोग पुस्तकालय मंत्री अब्दुल करीम चौधरी के तर्क को
हजम नहीं कर पा रहे हैं। लोगों का कहना है कि ममता बनर्जी ऐसा कर
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ माने जाने वाले अखबारों पर सेंसरशिप लगाने का
प्रयास कर रह है, जो लोकतंत्र के लिए किसी भी नजरिए से सही नहीं है। यह
फैसला इमरजेंसी (आपालकाल) से घातक होगा।
बांग्ला के जानेमाने साहित्यकार व साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील
गंगोपाध्याय, लेखिका महाश्वेता देवी, फिल्मकार मृणाल सेन, पत्रकार
ओमप्रकाश जोशी समेत कई लोग ने इसे गैर जरूरी बताया। लोगों ने कहा- ममता
बनर्जी की अपनी पसंद हो सकती है वे निजी तौर पर किसी अखबार को पंसद या
नापसंद कर सकती हैं, लेकिन पुस्तकालय में रखे जाने वाले अखबारों के बारे
में उनका आदेश सरासर गलत है।
इन लोगों का मत है संभवत: देशभर में ममता बनर्जी पहली ऐसी मुख्यमंत्री या
किसी पार्टी की प्रमुख होंगी, जिन्होंने इस तरह का फरमान जारी किया है।
लोगों का कहना है कि समाचार पत्र को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है
और ममता ने अपने फैसले से इस स्तंभ को ध्वस्त करने की कोशिश की है।
पत्रकार ओमप्रकाश जोशी ने कहा कि खर्च में कटौती करने के मसकद से
मुख्यमंत्री या राज्य सरकार उन पुस्तकालयों को राय दे सकती है कि सरकार
तीन या चार या फिर पांच अखबार का खर्च ही वहन करेगी। जहां तक अखबारों के
चयन की बात थी यह अगर पुस्तकालय अध्यक्ष पर छोड़ा जाता तो ज्यादा बेहतर
होता। संख्या और भाषा तक तो ममता बनर्जी की हां में हां मिलाई जा सकती
है। लेकिन ममता बनर्जी ने हिंदी, बांग्ला और उर्दू के अखबारों के नाम का
जिक्र कर लोगों को उनके खिलाफ बोलने का मौका दे दिया है। मुख्यमंत्री ने
अपने पहले फरमान में हिंदी का एक, उर्दू का दो और बांग्लाभाषा के पांच
अखबारों को जिक्र किया था। इससे उनकी मंशा साफ हो जाती है कि वे
पुस्तकालय में आने वाले लोगों को वही पढ़ाना चाहती है, जो उनके या उनकी
सरकार के पक्ष में हो। हालांकि चौतरफा निंदा और हो-हल्ले के बाद इस सूची
में पांच अखबारों को और जोड़ा गया। जोशी ने कहा- आर्थिक तंगी तो एक बहाना
है। बात दरअसल पैसे की होती तो ममता पुस्तकालयों में केवल अंग्रेजी अखबार
रखने की वकालत करती। क्योंकि हिंदी, बांग्ला और उर्दू की तुलना में
अंग्रेजी अखबार सस्ते हैं। मजे की बात यह है कि रद्दी में भी अंग्रेजी
अखबार अन्य भाषाओं के अखबार की अपेक्षा अधिक कीमत पर बिकते हैं।
साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय ने सरकारी अधिसूचना का हवाला देते हुए कहा
कि जहां तक मुझे जानकारी है सरकारी आदेश में कहा गया है कि पाठकों के हित
में सरकारी पैसे से ऐसा कोई अखबार नहीं खरीदा जाएगा जो प्रत्यक्ष या
परोक्ष तौर पर किसी राजनीतिक दल की सहायता से छपता हो। यानी इस सूची में
शामिल अखबारों के अलावा बाकी तमाम अखबार सरकार की नजर में किसी न किसी
राजनीतिक दल से सहायता हासिल करते हैं। कोलकाता से हिंदी के नौ अखबार
निकलते हैं, लेकिन सरकारी सूची में वही इकलौता अखबार शामिल है जिसके
मालिक को ममता ने हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा में
भेजा है। उन्होंने कहा कि वाममोर्चा के शासनकाल में तमाम सरकारी
पुस्तकालयों में बाकी अखबारों के अलावा माकपा का मुखपत्र गणशक्ति खरीदना
अनिवार्य था, लेकिन उसके लिए कोई लिखित निर्देश जारी नहीं किया गया था।
अब सरकार जिन अखबारों को साफ-सुथरा और निष्पक्ष मानती है उनमें से
ज्यादातर को तृणमूल कांग्रेस का समर्थक माना जाता है। सरकार की इस सूची
में सबसे पहला नाम बांग्ला दैनिक संवाद प्रतिदिन का है। उसके संपादक और
सहायक संपादक दोनों तृणमूल के टिकट पर राज्यसभा सांसद हैं। दूसरे अखबारों
का भी ममता और तृणमूल कांग्रेस के प्रति लगाव जगजाहिर है। उनके मुताबिक
सरकार यह तय करती है कि पाठक कौन से अखबार पढ़े तो बंगाल की जनता के लिए
इससे शर्म की बात और कुछ नहीं हो सकती।
दूसरी ओर, राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता व राज्य के मुख्य स्वास्थ्य
मंत्री सूर्यकांत मिश्र, फारबर्ड ब्लॉक के राज्य सचिव अशोक घोष, प्रदेश
भाजपा के अध्यक्ष राहुल सिन्हा, कांग्रेस सांसद अधीर चौधरी के साथ-साथ
तृणमूल के सांसद कबीर सुमन ने ममता सरकार के इस फरमान को तुलगकी आदेश
करार दिया है।
ध्यान रहे कि ममता ने जिन अखबारों के नाम का उल्लेख किया है, वे कहीं ना
कहीं तृणमूल कांग्रेस से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। ममता
द्वारा सुझाव गए अखबारों के नामों में से हिंदी, बांग्ला और उर्दू अखबार
के प्रमुख को ममता ने ही में पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेजा है और
जिन तीन जिला प्रधानों के अधिकार छीने हैं वे वाममोर्चा के अधीन थी। इसी
से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ममता की सोच कितनी स्वतंत्र है।

Friday, March 30, 2012

नंदीग्राम- बीते पांच साल, आज भी है ठगी का अहसास

शंकर जालान





पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनपुर जिला का नंदीग्राम इलाके पांच वर्ष पहले भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों द्वारा उठाई गई आवाज के बाद देश ह नहीं दुनिया भर में चर्चा में आया था। यहां पुलिस की गोली से मारे गए १ लोगों की मौत ने राज्य में ३४ सालों से सत्तासीन वाममोर्चा सरकार को अर्श से फर्श पर ला दिया था। राजनीति के पंडितों का कहना है कि नंदीग्राम की घटना के बाद से ही
वाममोर्चा के शासनकाल की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी।
भले ही नंदीग्राम की घटना के बाद राज्य में २०११ में हुए पहले विधानसभा चुनाव में सत्ता क चॉबी तृणमूल कांग्रेस को मिल गई। राज्य में सत्ता बदल गई हो, राजनीतिक पार्टियों के इंडे बदल गए हो, लेकिन राज्यभर के विभिन्न जिलों व गांवों की स्थिति जस क तस है। विशेषकर गोलीकांड की घटना के पांच साल नंदीग्राम की जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है.
भूमि अधिग्रहण आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत करने वालों के साथ-साथ इस घटना में अपने परिवार के सदस्यों को खोने वाले लोगों का कहना है कि उन्हें राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था। दरअसल, आंदोलन का पूरा फायदा तो ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को मिला।
नंदीग्राम के दुखी व गरीब लोगों का कहना है कि हमने अपनी पुस्तौनी जमीन के लिए लड़ाई लड़ी थी, जो जीती ली। इनलोगों ने सवाल उछाला जमीन की लड़ाई जीतने और तृणमूल कांग्रेस को जीताने के बाद भी उन्हें क्या मिला ? नंदीग्राम, सिंगूर व खेजुरी के हिस्से क्या आया ? इन लोगों ने आरोप लगाया कि माकपा समर्थकों ने हमारे घरों में आग लगाई और तृणमूस समर्थकों ने उसमें रोटियां सेंकी।
भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति (बीयूपीसी) के एक सदस्य ने नाम नहीं छापने की शर्त पर शुक्रवार को बताया कि २००७ में जनवरी के पहले सप्ताह में किसानों के हितों के ध्यान में रखते हुए समिति का गठन किया गया था। समिति का काम २००७ में नंदीग्राम व खेजुरी में विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए किसानों की भूमि के अधिग्रहण की अधिसूचना के खिलाफ आवाज बुलंद करना था।
जरा पीछे जाए तो याद आता है कि आंदोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन राज्य सरकार की सह पर पुलिस ने किसानों के खिलाफ बल प्रयोग किया, जिसके बाद यह आंदोलन और तीव्र हो गया. माकपा के खिलाफ लोगों में नाराजगी का लाभ सीधे तौर तृणमूल कांग्रेस को मिला और बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में वह १९७७ से सत्ता में रहे वाममोर्चा को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रही। तृणमूल को सत्ता संभाले नौ महीने से ज्यादा हो गए है, फिर भी नंदीग्रम की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। इस वजह से स्थानीय लोगों में निराशा है।
नंदीग्राम के एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा कि वाममोर्चा को परास्त करने के लिए तृणमूल ने हमारा इस्तेमाल किया। उन्होंने आरोप लगाया कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और क्षेत्र के विकास के लिए अन्य विकास कार्य आपसी मतभेद के कारण रुके हुए हैं.
समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने आरोप लगाते हुए कहा कि सत्ता में आने के बाद तृणमूल का कोई भी विधायक या मंत्री गोलीकांड पर जान गंवाने वाले लोगों के घर नहीं पहुंचे. क्षेत्र के बहुत से लोग अब भी लापता हैं. उस भयावह घटना को भले पांच साल बीत गए हों, लेकिन नंदीग्राम के लोगों को पांच साल पहले जो घाव वह अभी तक भरा नहीं है।
मालूम हो कि जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले किसानों पर २००७ में १४ मार्च को पुलिस ने गोलियां दागी थी, जिसमें १४ लोग कभी न खुलने वाली नींद में सो गए थे।
वैसे तो नंदीग्राम के लोग सामान्य जीवन-यापन कर रहे हैं, बस १४ मार्च की घटना का जिक्र करते ही लोगों की आंखें भींग जाती हैं। इन पांच सालों में सत्ता के गलियारों में बहुत कुछ बदला, लेकिन नंदीग्राम में कुछ नहीं बदला। मानो यहां वक्त थम सा गया हो। वहीं बदहाल सड़कें, परिवहन का पुख्ता इंतजाम नहीं इत्यादि कई समस्याएं यहां मुंह बाएं खड़ी हैं। यहां के लोगों का कहना है कि चाहे माकपा हो या तृणमूल। दोनों ने वायदे तो बहुत किए थे, लेकिन उन्हें पूरा करने को नहीं आ रहा है। इस दौरान अगर हमें कुछ समझ में आया है तो वह यह है कि कभी किसी का मोहरा नहीं बनना चाहि्ए।

Thursday, March 29, 2012

आम लोगों ने कहा- समझ से परे है ममता का यह फरमान

शंकर जालान



कोलकाता। सरकारी व सरकारी सहायताप्राप्त राज्य के विभिन्न पुस्तकालयों में रखे जाने वाले समाचारपत्रों को लेकर राज्य की मुख्यमंत्री व तृणणूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी सरकार के फरमान को विभिन्न पार्टियां जहां गलत बता रही हैं, वहीं आम लोग भी इस आदेश को सहज रूप से गले नहीं उतार पा रहे हैं। आम लोगों का कहना है कि संभवत: देशभर में ममता बनर्जी पहली ऐसी मुख्यमंत्री या किसी पार्टी की प्रमुख होंगी, जिन्होंने इस तरह का फरमान जारी किया है। लोगों का मत है कि समाचार पत्र को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और ममता ने अपने फैसले से इस स्तंभ को ध्वस्त करने की कोशिश की है।
इस बारे में वृहत्तर बड़ाबाजार के कई लोगों से पूछा गया तो लगभग सभी लोगों ने इस गैर जरूरी बताया। लोगों ने कहा- ममता बनर्जी की अपनी पसंद हो सकती है वे निजी तौर पर किसी अखबार को पंसद या नापसंद कर सकती हैं, लेकिन पुस्तकालय में रखे जाने वाले अखबारों के बारे में उनका आदेश सरासर गलत है।
सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट के रहने वाले साधुराम शर्मा ने बताया कि खर्च में कटौती करने के मसकद से मुख्यमंत्री या राज्य सरकार उन पुस्तकालयों को राय दे सकती है कि सरकार तीन या चार या फिर पांच अखबार का खर्च ही वहन करेगी। जहां तक अखबारों के चयन की बात थी यह अगर पुस्तकालय अध्यक्ष पर छोड़ा जाता तो ज्यादा बेहतर होता।
इसी तरह रवींद्र सरणी के रहने वाले आत्माराम तिवारी ने कहा कि संख्या और भाषा तक तो ममता बनर्जी की हां में हां मिलाई जा सकती है। लेकिन ममता बनर्जी ने हिंदी, बांग्ला और उर्दू के अखबारों के नाम का जिक्र कर लोगों को उनके खिलाफ बोलने का मौका दे दिया है। लोगों ने बताया कि मुख्यमंत्री ने अपने फरमान में हिंदी का एक, उर्दू का दो और बांग्लाभाषा के पांच अखबारों को जिक्र किया है। इससे उनकी मंशा साफ हो जाती है कि वे पुस्तकालय में आने वाले लोगों को वही पढ़ाना चाहती है, जो उनके या उनकी सरकार के पक्ष में हो।
वहीं, पेशे से वकील कुसुम अग्रवाल का कहना है कि आर्थिक तंगी तो एक बहाना है। बात दरअसल पैसे की होती तो ममता पुस्तकालयों में केवल अंग्रेजी अखबार रखने की वकालत करती। क्योंकि हिंदी, बांग्ला और उर्दू की तुलना में अंग्रेजी अखबार सस्ते हैं। मजे की बात यह है कि रद्दी में भी अंग्रेजी अखबार अन्य भाषाओं के अखबार की अपेक्षा अधिक कीमत पर बिकते हैं।
ध्यान रहे कि ममता ने जिन तीन भाषाओं के आठ अखबारों के नाम का उल्लेख किया है, वे कहीं ना कहीं तृणमूल कांग्रेस से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। ममता द्वारा सुझाव गए आठ अखबारों के नामों में से हिंदी, बांग्ला और उर्दू अखबार के प्रमुख को ममता ने ही में पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेजा है।

Thursday, March 22, 2012

कभी नहीं भूलेंगे यह काली रात

शंकर जालान




उत्तर कोलकाता स्थित हाथीबागान बाजार में बुधवार रात लगी आग की लपटों से आर्थिक रूप से चौपट हुए दुकानदारों का कहना है कि बुधवार की यह काली रात वे जिदंगी में कभी नहीं भूलेंगे। यह वह रात है, जिसकी सुबह उनके जीवन में उजाले की बजाए अंधेरा लेकर आई थी। आग में अपनी-अपनी दुकानों में रखे सामान की राख में तब्दील होते देख ज्यादातर दुकानदारों की आंखू से आंसू निकल रहे थे। पीड़ित दुकानदारों ने कहा कि हाथीबागान इलाका बांग्लाभाषी क्षेत्र है और करीब २० दिन बाकी पोइसा बैशाख यानी बांग्ला नववर्ष। इसी के मद्देनजर इनदिनों कई दुकानों में चैत्र सेल चल रही थी और इन दुकानों भारी मात्रा में स्टॉक रखा था, जो बुधवार को लगी आग की भेंट चढ़ा गया। प्रभावित दुकानदारों ने जनसत्ता को बताया कि वैसे तो साल के बारह महीने इस बाजार में ग्राहक खरीदारी के लिए आते हैं, लेकिन में वर्ष में दो मौके ऐसे आते हैं, जब ग्राहकों का तांता लगा रहता है और हम जैसे दुकानदारों को फुसर्त नहीं मिलती। एक दुर्गापूजा और दूसरा पोइला बैशाख। उनलोगों ने इस बार का नया साल यानी पोइला बैशाख हम जैसे सैंकड़ों दुकानदारों को ऐसा उपहार दे गया, जिसे हम जीते जी नहीं भूल सकते। आग में सब कुछ गवां चुके लोगों ने बताया कि हम मध्य कोलकाता के नंदराम मार्केट में लगी आग भयावह आग की घटना को भूले नहीं। नंदराम मार्केट में लगी आग को लगभग चार साल हो गए हैं और आज भी वहां के दर्जनों दुकानदार अपने हक व अपनी रोजी-रोटी के लिए सरकारी कार्यालयों के चक्कर काट रहे हैं। ऐसे में उन्हें नहीं लगता महज तीन सप्ताह के भीतर यानी पोइला बैशाख से पहले वे लोग दुकानें खोल पाएंगे।
हाथीबागान बाजार के तीन नंबर गेट के पास अस्थाई दुकान लगाकर स्टील के बर्तन बेचे वाले अनुपम दास ने कहा कि सोमवार को ही उसने अपने कुछ कैटिरंग चलाने वाले ग्राहकों के कहने पर डढ़े लख रुपए के फैंस बर्तन मंगवाएं थे और शनिवार बर्तनों का आसनसोल के लिए ट्रांसपोर्ट में लगाना था। बीते दो दिनों से कार्टुनों में बर्तनों की पैकिंग की जा रही थी। इसके अलावा भी उनकी दुकान में करीब दो लाख का माल और रखा था, जो अब स्वाहा हो चुका है। अपनी तकदीर को कोसते हुए उन्होंने बताया कि हमारी कोई अस्थाई और पक्की दुकान नहीं है। इसलिए हमें बैंक से ऋण नहीं मिलता। हां, २०-२२ सालों से लगातार एक ही स्थान पर दुकान लगाने के कारण बाजार के कुछ ऐसे लोगों से पहचान हो गई है, जो व्याज में रुपए उधार देते हैं। उन्होंने कहा कि महाजन को आग से कोई मतलब नहीं है। मुझे यहीं चिंता सताएं जा रही है कि अगले महीने में उन्हें उधार के सवा लाख रुपए कैसे दे पाऊंगा।
कपड़ा की दुकान चलाने वाली चेताली राय ने बताया कि चैत्र सेल के मद्देनजर एक दिन पहले ही उन्होंने हावड़ा के मंगलाहाट के काफी खरीदारी की थी। करीब ७० हजार का माल बुधवार सुबह ही उनकी दुकान पर पहुंचा था और वृहस्पतिवार सुबह आते-आते सब खत्म हो गया। आंखों से टपकते आंशूं के बीच चेताली देवी ने कहा कि इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जिस कपड़ों को यह समझ कर खरीदा था कि इन्हें बेचकर रुपए में तब्दील करेंगे वे कपड़े राख में बदल गए।
लगभग इसी तरह का दुख प्रकट करते हुए मुंशीलाल (फल विक्रेता), सागर कुमार (सब्जी विक्रता), संजय जायसवाल (अंडा बेचने वाला), सुकुमारी माझी (मछली बेचने वाली), प्लास्टिक के सामानों के दुकान के मालिक (ओमप्रकाश साव), विद्युत चक्रवर्ती (तेल-घी की दुकान के मालिक), अनुपम दास (मिट्टी के बर्तन बेचने वाले) ने कहा कि चाहे दमकल विभाग हो या कोलकाता की पुलिस या फिर राज्य सरकार ही क्यों न हो। उनके नुकसान की भरपा करने वाला कोई नहीं है। इनलोगों ने कहा- हमने महानगर में हुई कई अग्निकांड की घटनाओं में उनलोगों ने देखा है कि पीड़ित लोगों के लिए ईमानदारी से कोई पहल नहीं होती। जब तक धुआं उठता है विभिन्न दलों के नेतागण बयानबाजी और बड़ी-बड़ी बातें करते रहते हैं। जैसे ही धुआं बंद हुआ और मलवा उठा, ये नेता और सरकारी अधिकारी मदद करने की बजाए हम पर ही अंगूली उठाने लगते हैं। मसलन बाजार का रख-रखाव ठीक नहीं था। बिजली के तार तरीके से नहीं लगे थे। फायर लाइसेंस में त्रुटियां थी। ट्रेड लाइसेंस का नवीनकरण नहीं होगा। इन्हीं सब कानूनी दांवपोंच में उलझा कर जले पर मरहम लगाने का नहीं, बल्कि नमक छिड़कने का काम करते हैं।

Thursday, March 15, 2012

भूमि कटान की गंभीर समस्या

शंकर जालान


राज्य के विभिन्न जिलों में भूमि कटान की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है। उत्तर बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में नदी के जल स्तर के भू-भाग पर अतिक्रमण के कारण हर वर्ष यहां के हजारों लोगों के अपनी जमीन और अपने आशियाना खोना पड़ा रहा है। वहीं दक्षिण चौबीस परगना जिले के सुंदरवन व मालदा जिले के कुछ गावों में नदियों का बढ़ता दायरा खतरे की दस्तक दे रहा है। इस बाबत मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु पर हो रहे बदलाव की वजह ऐसा हो रहा है। विशेषज्ञों की माने तो बीते दस साल में बंगाल के तटवर्ती क्षेत्रों में भूमि कटान की समस्या पनपी है, जो धीरे-धीरे गंभीर रूप धारण करती जा रही है। मौसम के जानकार का कहना है कि वायुमंडल का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसी के फलस्वरुप ग्लेशियर तेजी से पिघल रही है, जिससे नदियों की धारा तीव्रता से बढ़ गई है और वह अनियंत्रित होकर भू-भाग पर अतिक्रमण कर रही है। इस सिलसिले में विशेषज्ञ अरुण दास का कहना है कि भू-कटान की समस्या केवल बंगाल या भारत की नहीं, बल्कि विश्वभर के कई देश इससे जूझ रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि सभी देश इस रोकने के लिए एक जुट होकर प्रयास करे।
उन्होंने बताया कि उत्तर बंगाल में भू-कटान की सबसे ज्यादा प्रभाव महानंदा वन्य जीव अभयारण्य पर पड़ा है। इस अभयारण्य से आधा से ज्यादा हिस्से पहले ही पानी की चपेट में आ चुका है। दास के शब्दों में इस वजह से वनांचल सीमित हो रहे हैं, जिससे वहां रहने वाले वन्य जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ा गया है।
मालूम हो कि सैकड़ों किलोमीटर में फैले इस वन क्षेत्र में गैंड़ा, तेंदुआ. हिरण की कई दुर्लभ प्रजातियों का वास है। इसके अलावा यहां साल व सागौन के हजारों पेड़ भी हैं।

Monday, March 12, 2012

जहां, दुकान आती है ग्राहकों के पास

शंकर जालान



कोलकाता। पापी पेट के लिए मेहनतकश और घूम-घूमकर फेरी करने वाले लोग क्या-क्या नहीं करते। वृहत्तर बड़ाबाजार के विभिन्न गलियों में इसकी अनोखी मिसाल देखने को मिलती है। कहीं माथे पर तो कहीं कंधों पर जिंदगी की दुकान चलती है। मजे की बात यह है कि लोग दुकानों के पास चलकर नहीं जाते, बल्कि दुकानें या दुकानदार खुद ग्राहकों के पास आते हैं। बड़ाबाजार के लगभग हर गली-कूचे में ऐसा नजारा देखने को मिल जाएगा। जहां रोजाना कंधे पर तराजूनुमा डाला या माथे पर पानीपुड़ी की टोकरी वाले समेत सैकड़ों लोगों को खाने-पीने की चीजें बेचते देखा जा सकता है। इनमें पानीपुड़ी, झालमुड़ी, समोसा, खस्ता कचौड़ी, पापड़, सुआली, दही बड़ा से लेकर पावरोटी, सैंडविच व टोस्ट तक शामिल हैं। धूम-धूमकर तराजूनुमा दुकान समोसा, कचौड़ी बेचने वाले सुशील कुमार ने बताया कि इन्हें तैयार करने से लेकर बेचने तक का सारा काम कंधों पर होता है। एक डाला में स्टोव पर गर्म कड़ाही चढ़ी रहती है, जिसमें दिनभर नमकीनें तली जाती हैं, तो दूसरे पर बड़ी सी परात रहती है जिसमें रखकर समोसा-कचौड़ी को बेचा जाता है।
उन्होंने बताया कि हम डोला लिए (दोपहर बारह बजे से रात दस बजे तक) घूमते रहते हैं। हमें अकेले ही पकाने से लेकर बेचने तक का सारा काम करना पड़ता है। उनके मुताबिक, कुछ फेरीवाले अपने साथ सहायक रखते हैं। उन्होंने बताया कि सुबह से घर पर पत्नी और दोनों बच्चियां तैयारी में जुट जाती है। कचौड़ी में बेसन भरना हो या समोसे में आलू परिवार के लोगों का पूरा साथ मिलता है।
किसी तरह के ग्राहक आपके बनाए समोसे व कचौड़ी खाते हैं? इसके जवाब में उन्होंने बताया कि ग्राहकों की कमी नहीं है। दुकानदार, माल ढोने वाले मजदूर से लेकर विभिन्न वर्ग के लोग उनके ग्राहक हैं। उन्होंने बताया कि कई ग्राहक उनके समोसे व कचौड़ी के मुरीद हैं। कई दुकानदार तो रोज के ग्राहक बन गए हैं।
राजाकटरा, पोस्ता, बड़तल्ला स्ट्रीट, दिगंबर जैन टेंपल रोड, सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट, कलाकार स्ट्रीट, चाइना मार्केट, कैनिंग स्ट्रीट, बागड़ी मार्केट, पगिया पट््टी, सत्यनारायण पार्क, कॉटन स्ट्रीट समेत आसपास के विभिन्न इलाके में इस तरह के फेरीवाले को देखा जा सकता है। इससे जुड़े अमरकांत ने बताया कि वह ओडीशा के कटक के रहने वाला है और पिछले पांच वर्षों से यहां के गली-कूचे में घूम-घूमकर समोसा-कचौड़ी बेच रहे हैं। इससे रोजाना कितने की कमाई हो जाती है? इसके जवाब में अमरकांत ने बताया कि औसतन रोज 250 से 300 रुपए तक की कमाई हो जाती है।
इसी तरह एक अन्य फेरीवाले ने बताया कि उनकी दुकानदारी दोपहर बारह बजे से शुरू होती हैं, क्योंकि उस समय तक बाजार पूरी तरह खुल जाते हैं और इन बाजार से खरीदारी करने ग्राहक अच्छी-खासी संख्या में आते हैं, लिहाजा उनके द्वारा बनाए गए समोसा व कचौड़ी के लिए ग्राहकों की कमी नहीं है। रात आठ-नौ बजे तक सारी चीजें बिक जाती हैं। कंधा जब थक जाता है तो वे डाला को उतारकर स्टैंड के सहारे खड़ा कर देते हैं। उन्होंने बताया कि बरसात के दिनों में परेशानी होती है, क्योंकि सिर पर छत नहीं होती। ज्यादा बारिश होने पर दुकानदारी बंद भी करनी पड़ती है।
स्थानीय एक ग्राहक ने कहा कि ये फेरी वाले बहुत उनके जैसे बहुत से से लोगों के लिए नाश्ते की दुकान है। इन फेरीवालों के पास सभी चीजें हमेशा गर्म मिलती हैं, जो खाने में स्वादिष्ट लगती हैं। उन्होंने बताया कि समोसा व कचौड़ी इनके पास तीन रुपए में मिल जाती हैं, जिसकी कीमत दुकानों में पांच से छह रुपए के बीच है।

Saturday, March 10, 2012

आधुनिकता ने छीना कईयों का निवाला

शंकर जालान



कोलकाता। आधुनिकता ने जहां मनोरंजन के नए-नए साधन उपलब्ध कराए हैं। वहीं, बहुत से लोगों के मुंह से निवाला छीनने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। टेलीविजन के अलावा कई तरह के मनोरंजन के साधन आ जाने से मदारी, सपेरे, बहुरुपिए समेत खिलौना बेच कर रोटी-रोटी कमाने वाले लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं। रही-सही कसर वन विभाग के कानून ने पूरी कर दी है। वन्य जीव कानून के तहत सांप, बंदर व भालू पकड़ने और उसका खेल दिखाने पर रोक लगने का बाद असंख्य सपेरे, मदारी व भालू का खेल दिखाने वाले लोग इन दिनों गर्दिश के दौर से गुजरते हुए भुखमरी की कगार पर हैं। दो-तीन दशक पहले जब सपेरे कंधे पर बांक और बांक के दोनों छोर पर रस्सी से बंधी टोकरी के साथ बीन बजाते हुए या डमरू बचाते हुए बंदर-भालू का खेल दिखाने वाला मदारी किसी गली मुहल्ले में प्रवेश करता था तो अनगिनत बच्चे एकत्रित हो जाते थे। बीन की तान पर सपेरे सांप का खेल हो या डमरू की डमडम पर बंदर अथवा भालू का खेल दिखाकर ये मदारी कुछ कमाई कर लेते थे और उसी पैसे से अपने व अपने परिवार के लोगों को पालन-पोषण करते थे। भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद टेलीविजन ने घर-घर में कब्जा जमा लिया है। कार्टून व चटपटे कार्यक्रम देखने में व्यस्त बच्चे सांप, बंदर या भालू का खेल देखने में अब दिलचस्पी नहीं लेते। इसी कारण अब न तो पहले की तुलना में सपेरे और मदारी दिखाई देते हैं न बीन की तान या डमरू की आवाज ही सुनाई देती है और न सांप, बंदर या भालू का खेल कहीं दिखने को मिलता है।
मूल रूप से गुजरात के रहने वाले 48 साल के रसिक दास (सपेरे) ने बताया कि वे बीते 25 साल से महानगर कोलकाता में बीन बजा कर सांप का खेल दिखाते आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि पहले दिन भर में 8-10 स्थानों पर खेल दिखा कर एक-डेढ़ सौ रुपए कमा लेते थे, उसमें 15-20रुपए सांप को दूध पीलाने में खर्च करने के बाद पत्नी समेत तीन बच्चों का गुजरा हो जाता था, लेकिन इन दिनों टेलीविजन और वन विभाग के नए कानून ने इनके लिए न सिर्फ मुसीबत खड़ी कर दी है, बल्कि मुंह से निवाला भी छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दास ने बताया कि उनके पिता रौनक दास ने उन्हें बीन बजाना और सांप का खेल दिखाना सिखाया था, लेकिन अब वह स्थिति नहीं कि मैं अपने बच्चों के हाथ में बीन पकड़वाने की सोचूं। उन्होंने बताया कि करीब दस साल पहले हम जैसे सपेरे ने मिलकर सांप और सपेरा एकता मंच का गठन किया था, लेकिन यह मंच हमारी आवाज को बुलंद करने में नाकामयाब रहा। इसके कारण का खुलासा करते हुए उन्होंने कहा-मंच के अधिकारी शिक्षा के अभाव में हमारी समस्याओं को सही तरीके से नहीं उठा पाते। लिहाजा हमारा खेल चौपट होता जा रहा है और हमारी हालत बदतर होती जा रही है।
32 वर्षीय चमनलाल (बंदर का खेल दिखाने वाले) ने बताया कि उनके पास प्रशिक्षित बंदर और बंदरी के तीन जोडों हैं। बावजूद इसके उन्हें सप्ताह में तीन दिन आधा पेट खाना खाकर सोना पड़ता है। उन्होंने बताया कि 16 वर्ष की उम्र से वे महानगर कोलकाता के वृहत्तर बड़ाबाजार में डमरू बजाकर बंदर-बंदरी का करतब दिखाते आ रहे हैं, लेकिन बीते पांच-छह सालों से ऐसा लगने लगा है कि अब तक मैंनं डमरू बजाकर बंदर को नचाया और दशर्कों ने ताली बजाई, लेकिन अब हालात मुझे नचा रहा है और समाज ताली बजा रहा है।
यही हाल भालू का खेल दिखाने वाले अशोक कुमार का है। 58 साल के अशोक कुमार भी कमोवेश बंदर का खेल दिखाने वाले चमनलाल सपेरे रसिक लाल की भाषा में ही बात करते हैं। यह पूछने पर कि पहली जैसी आमदनी न होने पर भी आप भालू लेकर गली-गली क्यों घूमते हैं? कोई दूसरा कारोबार क्यों नहीं करते? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि जब से होश संभाला है तब से भालू नचाकर बच्चों को खुशी प्रदान करते आ रहा है, अब जीवन के अंतिम पड़ाव में क्या धंधा बदलू।
वहीं, तरह-तरह का रूप धारण करने वाले बहुरुपिए और धूम-धूम कर बच्चे के खिलौना बेचने वाले लोग की रोजी-रोटी भी इन दिनों खतरे में है। स्वांग रचने वाले बहुरुपिए और खिलौना बेच परिवार का भरण-पोषण करने वाले लोग भी पुराने दिनों को याद करते हुए आंसू बहाते हुए नजर आते हैं। आधुनिक युग में बैलून, चरखी, बांसुरी, मुखौटे समेत विभिन्न तरह के बाजे व गुड़िया (पुतुल) जैसे पारंपरिक खिलौना की बिक्री लगभग बंद हो गई है।
शिव ठाकुर गली के रहने वाले 54 साल के रामप्रसाद दुबे ने बताया कि 30-32 सालों से बड़ाबाजार की गलियों में धूम-धूम कर खिलौना बेच रहे हैं। उन्होंने बताया कि 5-6 साल पहले तक दिनभर में 80-90 रुपए कमा लेते थे। अतीत के दिनों को याद करते हुए उन्होंने बताया कि वे जब बांसुरी बजाते हुए एक गली या मकान में प्रवेश करते थे तो अपनी-अपनी पसंद के खिलौना लेने के लिए बच्चों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। कोई 50 पैसे की सीटी से खुश होता था तो कोई पांच रुपए की बांसुरी से । कोई बच्ची अपने अभिभावक से गुड़िया खरीदकर देने की जिद करती थी तो कोई बच्चा बैलून खरीदने को कहता था। कुल मिलाकर दिनभर में परिवार का पेट भरने लायक कमाई हो जाती थी। उन्होंने बताया कि बैटरी चालित खिलौने के अलावा टेलीविजन पर आने वाले कार्टून शो ने बच्चों का ध्यान हमारी तरफ से लगभग हटा दिया है। और तो और बड़ी-बड़ी मल्टीस्टोरेज बिल्डिंगों में खड़े गार्ड उन्हें मकानों में प्रवेश नहीं करने देते, इसलिए उन्हें ग्राहकों के इंतजार में सकड़ के किनारे खड़ा रहना पड़ता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आधुनिक युग ने जहां हमें सुख-सुविधा मुहैया कराई है वहीं, समाज के एक वर्ग को दाने-दाने के लिए मोहताज कर दिया है।

Friday, March 9, 2012

होली के दिन जब दिल खिल जाते हैं..

शंकर जालान




होली के दिन जब दिल खिल जाते हैं.., रंग बरसे भीगे चुनर वाली.., होली आई रे कन्हाई.., जग होली ब्रज होला...आदि गीतों की ऐसी पंक्तियां हैं, जिसे सुनते ही होली के त्योहार की कल्पना से मन झूम उठता है। अब जब मार्च महीना शुरू हो गया है और होली में दो दिन ही बाकी बचे हैं। इस लिहाज से बाजारों में होली के सामान की दुकानें सज गई हैं। इस बार बाजार में चाइना से आयातित होली के सामान की बहुत सी किस्म मौजूद है और वो भी देखने में आकर्षक व सस्ती। होली पर शहर का माहौल रंगीन होने लगा है। क्या बच्चे, क्या युवा और क्या महिलाएं सभी होली की तैयारियों में जुट गए हैं। बाजार भी होली के रंगों और पिचकारियों से सज चुके हैं।
इन दिनों महानगर समेत आसपास के जिलों के बाजार होली से संबंधित सामग्री से पटे पड़े हैं। इन बाजारों में चाइना में बनी पिचकारियों का ही दबदबा है। छोटे बच्चे से लेकर बड़े और हर वर्ग के लिए पिचकारी उपलब्ध है। छोटे बच्चों के लिए म्यूजिकल पिचकारी, मिक्की माउस, स्पाईडर मैन, फिश, ऐनक व डायनासोर की आकृति में बनी पिचकारियां बिक रही हैं। वहीं, बड़ों के लिए बड़े-बड़े टैंकर जैसी पिचकारियों से बाजार पटा पड़ा है। खास बात यह है कि इस बार स्टील व पीतल से बनी पिचकारी न के बराबर ही है। बाजार में प्लास्टिक से बनी पिचकारी ही अत्याधिक देखने को मिल रही है, जिनकी कीमत 20 रुपए से लेकर पांच सौ रुपए तक है।
बड़ाबाजार में होली की सामग्री बेच रहे एक दुकानदान ने बताया कि होली में गुब्बारे तो हर बार ही देखने को मिलते हैं, पर इस बार रंग-बिरंगे गुब्बारों की पैकिंग के साथ एक टैप भी मिल रही है, जिसे नल पर चढ़ा कर गुब्बारों में आसानी से पानी भरा जा सकता है। इन गुब्बारों के पैकेट की कीमत 30 रुपए से शुरू होती है। उन्होंने बताया कि एक पैकेट पर 50 गुब्बारें होते हैं।
नूतन बाजार स्थित पिचकारी दुकान के मालिक का कहना है कि होली के सामान में इस बार अत्याधिक चाइना में बना सामान ही आया है, जिसकी खासियत सस्ता होना व कलरफुल लुक होना है। उन्होंने बताया कि होली में अब दो दिन ही बचे हैं, इसीलिए ग्राहकों की भीड़ बढ़ गई है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि बच्चों में फिश व ऐनक स्टाइल की पिचकारी खरीदने का रूझान देखने को मिल रहा है।
व्यापारियों के मुताबिक संगठित क्षेत्र नहीं होने के कारण होली के बाजारों का सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं होता है, लेकिन एकअनुमान के तौर पर होली के उत्पादों का बाजार देश भर में पांच हजार करोड़ रुपए का है। जबकि कारोबारियोंका अंदाजा है कि इस साल होली के दौरान देश भर में दो हजार करोड़ रुपए के रंगों को घोल दिया जाएगा। पिछले चार-पांच सालों में लोगों की पिचकारियों में हर्बल कलर ने भी अपनी खास जगह बनाई है। हालांकि इस बाजार में चाइना की हिस्सेदारी भी बढ़ती जा रही है। व्यापारियों का कहना है कि कम कीमत होने के कारण ग्रामीण इलाकों में चाइना से आयातित सामग्री की मांग बढ़ती जा रही है। रसायन व्यापार संघ के मुताबिक सिर्फ कोलकाता में पांच से छह करोड़ रुपए के रंगों की बिक्री होने का अनुमान है।

आखिर कब सार्थक होगा महिला दिवस

शंकर जालान



विश्व महिला दिवस यानी आठ मार्च। फिर आ गया वह एक दिन जो महिलाओं के सम्मान और आत्म रक्षा व आत्म निर्भरता के लिए मनाया जाता है। प्रश्न यह है कि क्या दिवस मना लेने भर से महिलाओं को वह अधिकार व सम्मान मिल जाएगा, जिसकी वे हकदार हैं। आखिर क्या औचित्य है महिला दिवस का। आठ मार्च केवल महिलाओं के लिए और सिर्फ महिलाओं के नाम क्यों? इसलिए कि इस दिन हम महिलाओं का सम्मान कर सकें, उनकी महिमा का बखान कर सकें, उन्हें यह एहसास दिला सकें कि कितनी अमूल्य हैं, जो वंश को बढ़ाती हैं, एक ममतामयी मां, एक प्यारी बेटी, बहन, सच्ची जीवनसाथी और दो परिवारों के बीच एक सेतु की तरह। नहीं वर्ष में एक दिन ऐसा कर लेने और कह देने भर से महिलाओं को समुचित अधिकार कतई नहीं मिल सकता।
महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अपराधों ने उनकी सुरक्षा पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। फरवरी महीने में ही राज्य के विभिन्न जिलों में हुई बलात्कार की नौ घटनाओं ने (जो प्रकाश में आईं) महिलाओं पर सोचने को मजबूर कर दिया है। इस बाबत कई महिलाओं का कहना है कि जब सूबे की मुख्यमंत्री एक महिला हो ऐसे में महिला की अस्मत पर खतरा मंडराता रहे, इसे ठीक नहीं कहा जा सकता।
गोलाघाटा इलाके की वंदना देवी ने बताया कि अब कहीं अकेले जाने से पहले हमें दस बार सोचना पड़ता है। हरदम डर बना रहता है कि कब, कहां, कौन-सा भेड़िया ताक लगाए बैठा है कि शिकार मिलते ही उस पर टूट पड़े और दुखद यह है कि जब रक्षक भी भक्षक भूमिक में आ जाए तब हम किससे मदद की गुहार लगाएं? वंदना देवी ने कहा- मैं मानती हूं कि सारे पुरुष और समाज के सभी लोग ऐसी सोच वाले नहीं होते और वे नारियों को वह सम्मान देते हैं जिनकी वे हकदार हैं, पर जिस तरह एक सड़ी हुई मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है उसी तरह ऐसा कृत्य करने वाले पुरुष सारे सभ्य वर्ग के लिए एक कलंक हैं।
दक्षिण कोलकाता की रहने वाली दीपा कुमारी ने कहा कि सिर्फ नाम के लिए महिला दिवस मना लेना ही काफी नहीं है। सही मायने में महिला दिवस तब सार्थक होगा जब असलियत में महिलाओं को वह सम्मान मिलेगा जिसकी वे हकदार हैं। उन्होंने कहा- सभी महिलाओं को निश्चित तौर पर दो कानूनों को अवश्य जानना चाहिए। इनमें पहला है सूचना के अधिकार का कानून और दूसरा घरेलू हिंसा रोकथाम कानून। ये दोनों कानून सामाजिक तौर पर महिलाओं को अधिकार देते हैं। सभी महिलाओं के लिए जरूरी है कि वे इन कानूनों के बारे में जानें। कहने का अर्थ है कानून की सीधी सरल जानकारी और इसके लिए किसी समीक्षा की जरूरत नहीं है। इससे उन्हें कानूनों के बुनियादी प्रावधानों को जानने में मदद मिलेगी और वे इस जानकारी के भरोसे आत्मनिर्भर बनेंगी।

Saturday, March 3, 2012

कलर कोड कोलकाता

शंकर जालान


पढ़ा है कि रंगों का जीवन में बड़ा महत्व होता है, लेकिन किसी शहर के लिए सत्ताधारी राजनीति दल की ओर से कलर कोड का फरमान जारी करने की घटना देश की पहली घटना है, जिसे पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस शासित सरकार ने जारी किया है। पश्चिम बंगाल की नई सरकार के नए फरमान में कोलकाता शहर को नीला शहर (ब्लू सिटी) बनाने की बात कही गई है।
जानकारों का कहना है कि माक्र्सवादियों की पिछली सरकार को जहां लाल रंग पसंद था। अब वहीं पश्चिमी बंगाल की नई मुख्यमंत्री ममता बनर्जी गुलाबी नगरी (पिंक सिटी) जयपुर की तर्ज पर कोलकाता को नीले रूप में देखना चाहती हैं। इसके लिए ममता बनर्जी सभी सरकारी भवनों, फ्लाईओवर्स, सड़क किनारों की रेलिंग तथा टैक्सियों को हल्के नीले रंग में रंगा हुआ देखना चाहती हैं।
राज्य के शहरी विकास मंत्री फरिहाद हाकिम ने शुक्रवार को बताया कि उनकी नेता ममता बनर्जी ने निश्चय किया है कि रंगों के विषय-वस्तु के रूप में कोलकाता शहर का रंग नीला होना चाहिए क्योंकि नई सरकार की थीम ‘आकाश की सीमा’ है। उन्होंने कहा कि वह निजी भवन मालिकों से भी अनुरोध करेंगे कि वे भी नीले कलर के ‘पैटर्न’ का पालन करें। उन्होंने कहा कि इस संबंधी जरूरी सरकारी आदेश जल्द जारी किए जाएंगे।
कोलकाता के मेयर और ममता बनर्जी के करीबी शोभन चटर्जी ने शुक्रवार से बातचीत में कहा कि अब शहर के फुटपाथ से लेकर फ्लाईओवर, जीर्ण-क्षीर्ण पार्क और पटरियां को सफेद और नीले रंग के नपे तुले इस्तेमाल से शहर को नया रूप दिया जाएगा।
चटर्जी ने बताया कि राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस पार्टी अपनी राजधानी के लिए एकसमान रंग संयोजन को आवश्यक समझती है। उनके मुताबिक सफेद और नीले का चयन ध्यानपूर्वक उनकी गैर-विवादास्पद विशेषताओं को देखते हुए किया गया है।
उनका दावा हैं कि इस कदम का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि राज्य सरकार के फैसले पर कदाचित क्षेत्रीय राजनीति का प्रभाव है।
लाल रंग का से कोलकाता के बीते वक्त से संबद्ध रहा है। जिसका सटीक उदाहरण वाममोर्चा का ३४ सालों का राज है। जिसने राज्य पर लगातार तीन दशकों से ज्यादा लंबे समय तक शासन किया। जानकार मानते हैं कि ममता बनर्जी का यह कदम बंगाल को उसकी लाल विरासत से छुटकारा दिलाने का प्रयास है।
जानकारों की माने तो तृणमूल कांग्रेस का चिन्ह तिरंगा है। सफेद के अलावा इन दोनों रंगों (भगवा और हरा) के अपने-अपने राजनीतिक नुकसान हैं। भगवा को भाजपा से जोड़कर देखा जाता है और हरे को इस्लाम के साथ। इसी लिए ममता ने चतुराई के साथ कोलकाता को नीला शहर बनाने का एलान किया है।
राज्य सरकार ने शहर में रंग-संयोजन के लिए आठ सौ मिलियन डालर आवंटित किए हैं। तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने अनुमानित लागत पर टिप्पणी करने से इन्कार कर दिया।
पश्चिम बंगाल का पर्यटन मंत्रालय बेशक सरकार के इस कदम से प्रसन्न हो, लेकिन हर कोई नीले और सफेद के रूपांतरण को खुले दिल से नहीं ले रहा। शहर को नीले रंग में रंगने की मुहिम में सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर शहर की पीली टैक्सियों को सफेद और नीले रंग में बदलने का फरमान सुना दिया है।
यह हमारी पहचान को बदल देगा- यह कहना है टैक्सी चालक करतार सिंह का। उन्होंने कहा कि पीली टैक्सियां पिछले पांच दशकों से ज्यादा लंबे समय से शहर में दौड़ रही हैं। पेंट के लिए पैसा आवंटन करने की बजाय, सरकार राज्य परिवहन में पैसा खर्च कर सकती थी।
विपक्ष ने सरकार की इस सौंद्रीयकरण योजना की खंचाई करते हुए इसे धन की बर्बादी करार दिया है। राज्य के परिवहन मंत्री मदन मित्र की दलील है कि टैक्सियों और बसों को एक ही रंग में रंगने पर कलर थीम में समानता आएगी और महानगर का सौंदर्य कई गुना बढ़ जाएगा. लेकिन बंगाल टैक्सी एसोसिएशन ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया है. एसोसिएशन के सचिव विमल गुहा कहते हैं- टैक्सी का रंग बदलने में लगभग सात हजार रुपए खर्च होंगे. टैक्सी मालिक यह खर्च उठाने की स्थिति में नहीं हैं।
जहां तक आम लोगों का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया मिलीजुली है. एक निजी दफ्तर में काम करने वाले कर्मचारी का कहना है कि नया रंग अच्छा ही लग रहा है. इससे शहर की सुंदरता निखर गई है। वहीं एक बुजुर्ग हैं कि सरकार यह रकम सड़कों और बसों की दशा सुधारने पर खर्च करती तो बेहतर होता। आम लोग या विरोधी चाहे कुछ भी कहें, सरकार महानगर को ब्लू सिटी में बदलने की अपनी योजना पर दिल खोल कर खर्च कर रही है।
दिलचस्प बात यह है कि कोलकाता नगर निगम ने ममता के इस पसंदीदा रंग यानी सफेद और नीले रंग से अपना मकान रंगवाने वाले तमाम मकान मालिकों को संपत्ति कर में भी छूट देने का फैसला किया है।

अफीम है इनकी जिंदगी

शंकर जालान


कहने को तो आजादी के बाद से ही देश में अफीम का उत्पादन व कारोबार प्रतिबंधित है, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी उत्तर दिनाजपुर जिले के १२ लाइसेंसशुदा नशेड़ियों को सरकार अफीम की आपूर्ति करती है। यह नियम अंग्रेजों के जमाने से ही चला आ रहा है। इन सबों को चिकित्सकों के परामर्श से शारीरिक बाध्यता के चलते अफीम दी जाती है। पहले अफीम की बिक्री के लिए लाइसेंस दिए जाते थे, लेकिन वह नियम अब बंद है। इसीलिए सरकार सीधे ट्रेजरी के जरिए अफीम की आपूर्ति नशेड़ियों को करती है। मालूम हो कि कानूनन अफीम का सेवन, संग्रह या इसकी खेती करना दंडनीय अपराध है। आरोप साबित होने पर दस साल की जेल के अलावा कई लाख रुपए का जुर्माना लग सकता है। हालांकि इन १२ लाइसेंसी अफीमचियों पर यह कानून लागू नहीं होता। अफीम की खेती को हतोत्साहित करने के लिए ही यह कानून बनाया गया है। अंग्रेजों के जमाने में अफीम के कारोबार से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रचुर लाभ अर्जित किया था। उस समय अफीम सेवन के लिए सरकारी लाइसेंस दिए जाते थे। उनमें से ही अब केवल एक दर्जन अफीमची रह गए हैं। इनमें एक महिला भी हैं। नए सिरे से किसी को लाइसेंस नहीं दिए जाते। इन लोगों के पास अफीम हासिल करने के लिए सरकारी राशन कार्ड है। उल्लेखनीय है कि पूरे देश में अफीम या पोस्तो की खेती पर प्रतिबंध है। कानूनी तौर पर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक सरकारी फार्म में अफीम की खेती होती है, जिसका वैज्ञानिक उपयोग भी है। वहीं से इन अफीमचियों के लिए अफीम मंगाई जाती है। इसके अलावा अफगानिस्तान से भी अफीम मंगाई जाती है। अफीम की खेती नहीं की जा सके, इसके लिए इसे पानी में उबाल कर उसे बाजार में पोस्तो के नाम से बिक्री की जाती है। पोस्तो का उपयोग मसाले के बतौर किया जाता है। चूंकि अफीम का सेवन करने वाले इसे छोड़ नहीं सकते इसलिए अंग्रेज सरकार ने यह नियम बनाया था जिसका आज भी अनुपालन करना पड़ रहा है। अफीम मंगाकर सरकारी कार्यालय से इसे कड़ी सुरक्षा के बीच ट्रेजरी भेजा जाता है। वहां से इसे डीलरों के जरिए अफीमचियों तक पहुंचाया जाता है। इन अफीमचियों को प्रत्येक सप्ताह १२ ग्राम अफीम सेवन के लिए दी जाती है। रायगंज के एक अफीमची ने बताया कि अफीम नहीं मिलने पर मृत्यु जैसी यंत्रणा भोग करनी पड़ती है। उन्होंने बताया कि बचपन में इसकी आदत लग गई। अब तो यह इनके लिए जिंदगी बन गई है। सरकार यह अफीम इन्हें मात्र ६० रुपए में उपलब्ध कराती है।

Tuesday, February 28, 2012

34 साल बनाम 34 सप्ताह

शंकर जालान



कोलकाता, माकपा की अगुवाई वाली वाममोर्चा सरकार को मन से उतारने में राज्य की जनता को 34 साल लग गए थे और जिस चाव से जनता ने तृणमूल कांग्रेस को जीत दिला कर ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया था 34 सप्ताह जाते न जाते अब उसी जनता की आंखों में ममता बनर्जी की वह ममता नहीं देख रही है, जिसकी उन्हें उम्मीद थी। दूसरे शब्दों में कहे तो ममता बनर्जी की ममता राज्य की जनता से दूर होती जा रही है। महानगर के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का कहना है कि ममता को जीताने के पीछे उनकी जो मंशा थी वह सब लगभग धरी की धरी रह गई। लोगों के मुताबिक उन लोगों ने एक कहावत सुन रखी थी- दूर का ढोल सुहावना लगता है। ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद लोगों को यह कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है।
आम लोगों या साधारण जनता की तो विसात ही क्या। ममता इन 34 सप्ताह में उसकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस, जिसकी अगुवाई में केंद्र की सरकार चल रही है और तृणमूल कांग्रेस जिसमें शरीक है के साथ कई मुद्दों पर टकरा चुकी हैं। इनमें ज्यादातर मुद्दों पर केंद्र सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा है। राज्य में कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद ममता बनर्जी ने जब से मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली तब से उन्हें उम्मीद ही नहीं, पूरा भरोसा था कि केंद्र सरकार हर स्तर पर उन्हें राजकाज चलाने में मदद करेगी। पर, उनकी उम्मीद पूरी नहीं हुई। विशेष आर्थिक पैकेज को लेकर सर्वप्रथम केंद्र के साथ विवाद शुरू हुआ था जो धीरे-धीरे गहराता चला गया। अगस्त में जब पेट्रोल की कीमत बढ़ी तो अचानक ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और अल्टीमेटम दे डाला कि यदि बढ़ी हुई कीमत वापस नहीं ली गई तो तृणमूल कांग्रेस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) से बाहर निकल आएगी। इसे लेकर कई दिनों तक राजनीतिक सरगर्मी तेज रही। इस मसले को जैसे-तैसे केंद्र सरकार ने सुलझा लिया। इसके तुरंत बाद बांग्लादेश से तिस्ता जल बंटवारे पर ममता ने मोर्चा खोल दिया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ तय ढाका दौरे पर जाने से मना कर दिया। जिस कारण वर्षों से विवादित तिस्ता समझौता आज भी अधर में है। भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर भी ममता ने विरोध किया और तीन बार केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश को कोलकाता आना पड़ा। इसके बाद खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) को बनर्जी ने जनविरोधी करार देते हुए केंद्र सरकार की खिलाफत शुरू कर दी और विरोध की वजह से केंद्र को पीछे हटना पड़ा। लोकपाल बिल के मसले पर लोकसभा में साथ देने के बावजूद राज्यसभा में लोकायुक्त के प्रावधान के मुद्दे पर ऐन वक्त पर पलटी मार दी और राज्यसभा में लोकपाल बिल लटक गया। कोयले के दर में बढ़ोतरी के मामले में भी केंद्र को ममता के दबाव के आगे झुकना पड़ा। अब एनसीटीसी को ममता ने मुद्दा बनाकर केंद्र सरकार के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है। इस मसले पर केंद्र सरकार बनर्जी के आगे झुकती है या नहीं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
राजनीति के जानकारों की मानें तो राज्य में सत्तासीन होने के बाद तृणमूल कांग्रेस शासित सरकार ने ताबड़तोड़ कई ऐसे एलान किए, जिसे किसी भी मायने में सही नहीं ठहराया जा सकता। कहने को तो राज्य में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की सरकार है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के अलावा जब तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों व विधायकों को कुछ बोलने की आजादी नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के विधायकों और नेताओं की हैसियत की क्या है? जानकार मानते हैं कि लोकतंत्र के लिए इसे शुभ नहीं माना जा सकता।
ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बने लगभग 34 सप्ताह हो गए हैं और कहना गलत नहीं होगा कि जो गलती वाममोर्चा ने 34 सालों के शासन के बाद की थी, लगभग वहीं भूल ममता महज 34 सप्ताह के दौरान कर रही हैं। माओवादी समस्या हो या गोरखालैंड का मसला या फिर जमीन अधिग्रहण की बात हो या राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल। हर क्षेत्र में राज्य सरकार की किरकिरी हुई है।

Saturday, February 25, 2012

घटक से दूरियां, विपक्ष से तनातनी

शंकर जालान


लोकप्रिय नेता होना अलग बात है और कुशल तरीके से शासन चलाना बिल्कुल अलग बात। इसमें कोई संदोह नहीं कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक लोकिप्रय नेता है, लेकिन यह कहना गलत होगा कि वे सफल शासक भी हैं। राज्य में ममता बनर्जी के आठ महीने के शासनकाल को देखते हुए कम से कम यही कहा जा सकता है। राजनीति में विरोधी दलों से तनातनी चलना तो लाजिमी हैं, लेकिन घटक दलों से दूरियां का ममता ने जो रिकार्ड कायम किया है वह बंगाल की क्या देश की राजनीति में अद्वितीय उदाहरण है।
ममता के अब तक के राज में कई ऐसे मौके हैं, जब विपक्ष तो विपक्ष तृणमूल की सहयोगी पार्टी कांग्रेस भी अजरच में पड़ गई। पर ममता है कि अपने आगे न किसी की सुनती है और न मानती हैं। ममता की यही नीति उसे कुशल शासक की उपाधि देने में बाधक सिद्ध हो रही है।
कहने को कहे या फिर फाइलों में राज्य में कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस की गठबंधन वाली सरकार है। इसी गठबंधन ने राज्य से ३४ सालों से सत्तासीन वाममोर्चा का हार का स्वाद चखाया था। कालक्रम में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के रिश्तों के बीच पैदा हुई तल्खी से दोनों दलों के बीच दूरी काफी बढ़ गई है। ममता कांग्रेस के साथ कुछ इस तरह दूरी बना कर चल रही है कि उन्हें रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के नेता दिनेश त्रिवेदी का कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी से मिलना तक नहीं पसंद नहीं आया। वहीं, कांग्रेस भी अब ममता बनर्जी के नखरे उठाने को कतई तैयार नहीं है। केंद्र में भले ही मजबूरन दोनों दल गठबंधन में हों और राज्य में कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के साथ सरकार में शामिल हो, लेकिन दोनों दलों के रिश्तों के बीच आई कटुता के चलते अब दोनों पार्टियां पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव अलग-अलग लडऩे का मन बना चुकी हैं।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि बात चाहे पश्चिम बंगाल की हो, या पेट्रोल की कीमतें बढऩे की हो या फिर खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मुद्दा हो या फिर लोकयुक्त की नियुक्ति का मामला, इन सभी मामलों में ममता ने कांग्रेस को परेशान किया है। कोलकता स्थित इंदिरा भवन का नाम बदलने को लेकर भी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच तनाव पैदा हुआ। कांग्रेस को अब यह तेजी से महसूस होने लगा है जहां-जहां कांग्रेस और सरकार की साख का सवाल पैदा हुआ ममता ने जानबूझ कर अपने तेवर कड़े किए। राहुल से दिनेश त्रिवेदी की मुलाकात को लेकर ममता बनर्जी की आपत्तियों पर भी कांग्रेस अनावश्यक मान रही है और पार्टी नेता मानते हैं कि इस मुलाकात को ममता को तूल नहीं देना चाहिए। नया बखेड़ा पश्चिम बंगाल के बजट को लेकर खड़ा हुआ है। बजट को लेकर राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी के बीच वाक्युद्ध शुरू हो गया। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी ने कहा है कि राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा गलत बयानबाजी कर रहे हैं। मई से लेकर फरवरी तक में राज्य को अब तक २३ हजार करोड़ रूपए दिए जा चुके हैं। मित्रा कह रहे हैं कि केंद्र सरकार ने अब तक राज्य सरकार को कोई सहायता नहीं दी है। तृणमूल व कांग्रेस के बीच बढ़ती दूरियां, दोनों दलों के नेताओं के एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन अधिक दिनों तक चलने वाला नहीं है। कांग्रेस केवल पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार कर रही हैं, ज्यों ही विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित होंगे, काग्रेस भी कम से कम एक बार तृणमूल को उसकी औकात और ताकत जरूर बताएंगी।
दूसरी ओर, विधानसभा सत्र नहीं चलने के दौरान विधानसभा परिसर में संवाददाता सम्मेलन पर रोक लगाने के निर्णय सरकार और विपक्ष के बीच तनातनी बढ़ गई है। इस मुद्दे पर राज्य की राजनीति गरमाने लगी है। बीते दिनों को पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्रा विधानसभा अध्यक्ष विमान बंद्योपाध्याय को पत्र लिखकर इसका विरोध किया। उन्होंने पत्र में उल्लेख किया है कि विधानसभा अध्यक्ष अपने फैसले पर पुनर्विचार नहीं किया तो इस मुद्दे पर आगामी दिनों तक राजनीतिक गहमागहमी के आसार हैं। विपक्ष ने इसे सरकार के खिलाफ मुद्दा बनाकर आंदोलन पर उतरने के संकेत दिए हैं। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष ने कहा है कि विपक्ष के नेता का पत्र मिला है। जरूरत पड़ने पर सभी दलों के साथ इस मुद्दे पर बैठक करेंगे। विधानसभा अध्यक्ष ने यह भी दलील पेश की है कि सत्र नहीं चलने के दौरान सिर्फ विपक्ष के नेता के संवाददाता सम्मेलन करने पर रोक नहीं लगायी गयी है। कुछ अहम कारणों से सभी दलों पर इस मामले में एक समान नियम लागू करने का निर्णय किया गया है। विधानसभा सत्र चलने के दौरान सभी राजनीतिक दलों के नेता मीडिया सेंटर में संवाददाता सम्मेलन करने को स्वतंत्र हैं। विधानसभा अध्यक्ष ने कहा है कि इस संबंध में बातचीत का विकल्प खुला हुआ है लेकिन वह सबके लिए एक समान नियम लागू करना चाहते हैं।
वहीं, राज्य के खेल मंत्री मदन मित्रा ने शुक्रवार से बातचीत करते हुए विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को जायज ठहराते हुए कहा कि विधानसभा में विपक्ष के नेता जब भी संवाददाता सम्मेलन करते हैं, उसमें राजनीतिक मुद्दा ही प्रभावी रहता है। विस से जुड़े विषय पर वे कम ही बोलते हैं। मित्रा ने कहा कि शुद्ध राजनीतिक बयान जारी करना है तो विपक्ष के नेता को पार्टी कार्यालय में बैठकर संवाददाता सम्मेलन करना चाहिए। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हाशिम अब्दुल हलीम मित्रा के बयान से सहमत नहीं हैं। हलीम ने विधासभा स्थित मीडिया सेंटर में संवाददाता सम्मेलन पर रोक को अपराध की संज्ञा दी है। उन्होंने कहा कि विधानसभा राजनीतिक जगह है। सभी राजनीतिक दलों के नेता वहां निर्वाचित होकर पहुंचते हैं और राजनीतिक बहस में भाग लेते हैं। विधानसभा राजनीतिक बात कहने की ही जगह है, न कि गुल्ली-डंडा खेलने की।
कांग्रेस विधायक असित माल ने शुक्रवार से कहा कि विधानसभा के मीडिया सेंटर में संवाददाता सम्मेलन पर रोक लगाना उचित नहीं है। इस संबंध में कांग्रेस विधायक दल की बैठक में चर्चा होगी और जरूरत पड़ने पर स्पीकर से बातचीत की जाएगी।
मालूम हो कि विधानसभा अध्यक्ष विमान बंद्योपाध्याय ने सत्र नहीं चलने के दौरान मीडिया सेंटर में किसी भी राजनीतिक दल के नेता के संवाददाता सम्मेलन करने पर प्रतिबंध लगा दिया है और इस संबंध में सभी राजनीतिक पार्टियों के विधायक दल के नेता को सर्कुलर भेजा है।

Thursday, February 2, 2012

धार्मिक होने के मतलब किसी धर्म से पक्षपात कतई नहीं : स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती

वर्तमान समय में देश कई समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं का समाधान तभी संभव है, जब धर्म को ध्यान अथवा जेहन में रख कर राज यानी राजनीति की जाए। यह कथन है द्वारका पीठ के जगद्गुरू स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती महाराज का। स्वामीजी ने अपने कोलकाता प्रवास के दौरान शंकर जालान से लंबी बातचीत करते हुए कहा कि धार्मिक होने का मतलब किसी धर्म से पक्षपात करना कतई नहीं है। सही अर्थों में धर्म निरपेक्षता ही धर्म है। पेश ही महाराजश्री से हुई बातचीत के चुनिंदा अंश



-- महाराज जी, आप धर्म गुरू है, इसीलिए पहला प्रश्न धर्म से संबंधित कर रहा हूं, धर्म की सटीक परिभाषा क्या है?
00 धर्म की सटीक परिभाषा है वह कर्म जिससे किसी को नुकसान न हो, कोई आहात न हो। सही मायने में धर्म उसे ही कहा जा सकता है, जो खुद को शांति और दूसरे को सुख प्रदान करे।

-- संत और संन्यासी में क्या फर्क है?
00 मूल रूप से तो कोई फर्क नहीं है। दोनों को त्यागी और परोपकारी होना चाहिए। यहां यह कह सकते हैं कि संन्यासी बनने के लिए संन्यास आश्रम का आश्रय लेना जरूरी है, जबकि व्यक्ति गृहस्थ होते हुए भी संत हो सकता है।

--संत, महात्मा और संन्यासियों का मुख्य कार्य क्या होना चाहिए?
00 इन सभी का काम और पहला कर्तव्य है मानव मात्र की रक्षा। इसके अलावा लोगों को अपनी धर्म-संस्कृति से अवगत कराना, देश प्रेम की भावना जागृति करना जैसे कामों को दूसरे और तीसरे क्रम में रखा जा सकता है।

-- क्या साधु समाज के लोग अपनी जिम्मेवारी ठीक तरह से निभा रहे हैं या दूसरे शब्दों में कहे तो समाज को उचित अथवा धर्म की राह दिखा रहे हैं?
00 यह बहुत जटिल सवाल कर लिया आपने। आपको बता दें कि साधुओं का कोई समाज नहीं है। जो व्यक्ति घर-द्वार, माता-पिता, भाई-बहन और रिश्ते-नाते को छोड़कर साधु बनता है वह फिर से समाज के घेरे में क्यों बंधना चाहेगा। साधु का व्यवहार ही लोगों को धर्म की राह दिखा देता है, इसके लिए उन्हें अलग से विशेष कुछ करने की जरूरत नहीं होती। जो साधु आडंबर की आड़ में धर्म को बढ़ावा देने की वकालत करते हैं, वे लोगों को धोखा देने के साथ-साथ कहीं न कहीं अपनी जिम्मेवारी से भटक गए हैं।

-- धर्म में दिखावा बढ़ गया है इसका कारण क्या है और इसे कैसे रोका जा सकता है?
00 धर्म में दिखावा नहीं होना चाहिए और ऐसा मंजर तभी देखने को मिलता है जब व्यक्ति धर्मिक आयोजन को स्वार्थसिद्धि के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है। इसे तभी रोका जा सकता है, जब जनता आडंबर वाले धार्मिक आयोजनों में जाने से परहेज करे।

-- सुना जाता है कि संन्यासी होना सहज है, लेकिन वैरागी होना बेहद कठिन ऐसा क्यों?
00 बिल्कुल सही सुना है आपने। संन्यास आश्रम में रहने वाले को संन्यासी कहा जा सकता है। वैरागी होना सहज नहीं है। मोह-माया, मान-सम्मान, स्वाद-बेस्वाद, लाभ-हानि पर विचलित न होना ही वैरागी होने के लक्षण हैं।

-- धर्म और राजनीति का क्या संबंध है?
00 बहुत गहरा संबंध है। व्यक्ति धर्म के मुताबिक जीवन-यापन करे और इसे ही ध्यान में रखकर राजनीति। राजनीति का अर्थ है राज की नीति। यदि राजा धर्म से नियंत्रित होगा तो राजनीति स्वत: धर्म से नियंत्रित हो जाएगी। कुछ लोग धर्म को राजनीति से अलग करने का स्वार्थपूर्ण अभियान चला रहे हैं, ताकि धर्म उनकी राह में बाधक न बने।
-- क्या धार्मिक रहते हुए धर्म निरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता?
00 बिल्कुल हुआ जा सता है। धार्मिक होने का अर्थ किसी धर्म से पक्षपात करना नहीं है। धर्म निरपेक्षता ही धर्म है। जहां तक हिंदू धर्म की बात है वह अत्यंत वैज्ञानिक है, इसमें किसी से विरोध नहीं है।

-- स्वामीजी पाप क्या है और पुण्य क्या है?
00 जब मनुष्य कोई कर्म करता है तो उसका फल कुछ समय बाद प्राप्त होता है। यदि फल के रूप में संस्कार मिले तो वह पुण्य है और दुराचार मिले तो वह पाप है।

-- सनातन धर्म में धर्म गुरूओं की भरमार है, बावजूद इसके समाज में असंतोष बढ़ता जा रहा है इसका क्या कारण है?
00 इसका मूल कारण है कुछ धर्म गुरू अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति से जुड़े हैं। वे जो कहते हैं उसे प्रवचन नहीं, भाषण कहा जाना चाहिए। जब तक प्रवचन की जगह भाषण पिलाया जाएगा, समाज में असंतोष बढ़ता है रहेगा।

--ईसाई धर्म के सर्वोच्च गुरू पोप की बात विश्व का समस्त ईसाई समुदाय और हमारे हिंदू धर्मावलंबी भी न केवल ध्यान से सुनते है, बल्कि अमल भी करते देखे गए हैं। पर हमारे धर्मगुरूओं की बात पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, इसका क्या कारण है ?
00 पोप की बात पर भी अमल नहीं होता। समय-समय पर उन्होंने युद्ध विरोधी बयान दिए हैं, क्या युद्ध रुका। जो हमें दिखता है वह पश्चिमी प्रचार तंत्र पर हमारी निर्भरता है और उनके प्रचार का सही तरीका।

-- पश्चिमी देशों में और अपने देश के पश्चिमपंथियों में आजकल दक्षिणपंथी कट््टरवाद की बहस छिड़ी हुई है। यह प्रकारांतर से हिंदू धर्म पर हमला है। आप क्या कहेंगे?
00 पहली बात तो यह है कि दक्षिणपंथी का जो कट््टरवाद है वह हिंदुत्व से परे है। जो हिंदू धर्म को इससे जोड़ते हैं वे इसे खत्म करना चाहते हैं। कहने का अर्थ है कि हिंदू कभी कट््टरपंथी नहीं हो सकता।

-- एक दिवसीय धार्मिक आयोजनों में लाखों रुपए खर्च करना क्या तर्कसंगत है?
00 मोटे तौर पर तो इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी लोग भाव से ऐसा करते हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन दिखावा या प्रभाव जमाने के लिए ऐसा करना बिल्कुल गलत है।

-- बाबा रामदेव प्रकरण पर आपकी क्या राय है?
00 बाबा रामदेव का तरीका बिल्कुल गलत है। मुझे कहीं न कहीं इसमें भाजपा और आरएसएस के हाथ होने की बू आ रही है। रामलीला मैदान में जो हुआ वह साधुओं के लिए शर्म की बात है। इसके लिए सीधे तौर पर रामदेव दोषी हैं। लोगों को यह समझ में आ गया है कि राष्ट्र के लिए नहीं निजी महत्वकांक्षा के लिए रामदेव यह सब कर रहे हैं। देखिए, रामदेव विदेशों में जमा काला धन स्वदेश लाने की बात कर रहे हैं और उसे सरकारी संपत्ति घोषित करने की मांग भी। साथ ही वे यह आरोप भी की सरकार भ्रष्ट है। वे देश की समृद्धि की वकालत कर रहे हैं तो उन्हें पता होना चाहिए कि धन वापस लाने से देश समृद्धि नहीं होगा। देश तभी समृद्धि होगा जब लोग कठोर परिश्रमी, अनुशासनशील और ईमानदार होगें।

-- क्या आप अण्णा हजारे की मांग से सहमत हैं?
00 जहां तक अन्ना की बात है उनका तरीका और उनकी मांग रामदेव से कुछ भिन्न है। उनकी मांग पर भले ही असहमति जताई जा सकती है, लेकिन तरीके को गलत नहीं कहा जा सकता। रही बात भ्रष्टाचार की तो अन्ना की टीम में कई लोग हैं जो घेरे में हैं। अन्ना को देश को ठीक करने से पहले अपने घर यानी टीम में सुधार करना चाहिए।

-- कहते हैं जब-जब अधर्म बढ़ता है परमात्मा अवतार लेते हैं, भारत में भ्रष्टाचार रूपी अधर्म बढ़ रहा है क्या निकट भविष्य पर किसी चमत्कार की उम्मीद है?
00 धर्म विरोधी लोग हर युग में रहे हैं और अधर्म भी करते रहे हैं। बावजूद इसके धर्म सदियों से जीतता आया है। रावण (अधर्म) को राम (धर्म) ने मारा। इसी तरह कंश (अधर्म) का वध कृष्ण (धर्म) ने किया। निश्चित तौर पर रावण और कंश जैसे अधर्मी लोगों की तादाद बढ़ेगी, तो कोई ना कोई राम या कृष्ण के रूप में अवश्य इस धरती पर आएगा।

-- करीब छह साल बाद भाजपा में लौटी उमा भारती ने गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने का अभियान छेड़ रखा है, क्या उन्हें सफलता मिलेगी?
00 कुछ पाने की तमन्ना से किए जा रहे काम को जनहितकारी नहीं कहा जा सकता। उमा भारती ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जो अभियान छेड़ा है। वह राजनीति लाभ के लिए है। आपको बता दूं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की मांग सर्वप्रथम मैंने की थी। मैं तहे दिल से चाहता हूं कि गंगा प्रदूषण मुक्त हो। उमा भारती मेरे मुद्दे को राजनीति लाभ के लिए इस्तेमाल कर रही है।

-- सुना है मिशन पूरा न होने तक उन्होंने (उमा) मालपुआ न खाने का प्रण लिया है, क्या यह ठीक है?
00 कौन देखने जाता है। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता।

-- यह सच्चाई है कि पढ़ी अधिक रामायण जाती है, लेकिन समाज में अधिक प्रभाव महाभाारत का दिख रहा है, ऐसा क्यों?
00 क्योंकि लोग रामायण केवल पढ़ते हैं, उसका मनन नहीं करते।

राज्यपाल व मुख्यमंत्री में टकराव

शंकर जालान



राज्य में राज्यपाल एमके नारायणन और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच टकराव के संकेत मिल रहे हैं। बीते दिनों किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को लेकर मुख्यमंत्री बनर्जी और राज्यपाल नारायणन के बीच मतैक्य सामने आया है। अब तक कमोबेश हर मुद्दे पर ममता बनर्जी के साथ खड़े नजर आए नारायणन ने इस मुद्दे पर टकराव के अंदाज में कहा- कर्ज के भार से दबे हुए किसान आत्महत्या कर रहे हैं। राज्य सरकार को चाहिए कि वह केन्द्र के साथ मिलकर हल तलाशे। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एकाधिक बार किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को अनदेखा करते हुए कह चुकी हैं, आत्महत्या करने वाले या तो किसान नहीं थे या फिर पारिवारिक कारणों से उन लोगों ने जान दी। इससे पहले कॉलेजों में छात्र संगठनों के कार्यकर्ताओं के बीच संघर्ष और अस्पतालों में शिशुओं की मौतों को लेकर राज्यपाल चिंता जता चुके हैं, लेकिन कोई मतैक्य सामने नहीं आया था। दोनों ही दफा राज्यपाल ने दुख जताते हुए प्रशासन को जरूरी उपाय करने का सुझाव दिया था। लेकिन किसानों की मौतों को लेकर उन्होंने सीधे तौर पर केन्द्रीय हस्तक्षेप की जरूरत मानी है। उन्होंने प्रधानमंत्री को राज्य में किसानों की मौतों को लेकर एक रिपोर्ट भी भेजी है। राज्यपाल का मानना है कि आत्महत्या करने वाले किसान कर्ज में डूबे हुए थे और फसल की बिक्री न होने से परेशान थे। उनके परिवार जन अनाहार को मजबूर थे। पिछले दो महीनों में दो दर्जन से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। इनमें 17 किसान बर्दवान जिले के हैं। मालूम बो कि बर्दवान जिले को बंगाल का चावल भंडार कहा जाता है। मालदा, बांकुड़ा, हुगली और जलपाईगुड़ी में भी आत्महत्या की घटनाएं हुई हैं। जलपाईगुड़ी में चाय बागानों के बंद होने के चलते बेरोजगारी की स्थिति है। हालांकि, सभी मौतों की वजह निजी और पारिवारिक बताकर मुख्यमंत्री ने पल्ला झाडऩे की कोशिश की है। ऐसे में राज्यपाल के ताजा कदम से कांग्रेस और वामपंथी दलों के ममता बनर्जी विरोधी अभियान को बल मिला है। कांग्रेस भी वामपंथी दलों की तर्ज पर राज्य में सड़कों पर उतर चुकी है।

Friday, January 27, 2012

खड़े होकर पढ़ाने का फरमान

शंकर जालान




क्लास रूम में कुर्सी पर बैठ कर नहीं, बल्कि खड़े होकर पढ़ाईए, क्योंकि कुर्सी पर बैठे-बैठे उंघना शुरू होता है फिर नींद आने लगती है'। कुछ इस तरह का अटपटा फरमान दक्षिण कोलकाता के भवानीपुर स्थित खालसा इंग्लिश हाईस्कूल की प्रबंधन समिति की ओर से शिक्षिकाओं के लिए जारी किया गया है। जबकि इस अटपटे फरमान को मानने से इनकार करते हुए शिक्षिकाओं ने कक्षाओं का बायकाट कर स्कूल परिसर में प्रदर्शन किया। वहीं, प्रबंधन समिति फरमान को सही ठहराते हुए इसे न बदलने पर अड़ा हुई है। इस बाबत समिति के एक पदाधिकारी ने बताया कि अनेक बार सीसीटीवी फुटेज में शिक्षिकाओं को क्लास रूम में कुर्सी पर ऊंघते और सोते हुए देखा गया, जिसके बाद सभी कक्षाओं से कुर्सियां हटा ली गईं। अब जारी फऱमान के तहत कक्षाओं में दोबारा कुर्सियां नहीं रखी जाएंगी।
कुर्सी हटाने के खिलाफ प्रदर्शन कर रही शिक्षिका शिखा मुखोपाध्याय के मुताबिक क्लास रूम में ऊंघने के दौरान संबंधित शिक्षिका के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन कुर्सी हटा लेना शिक्षिकाओं का अपमान है। इस फरमान ने विवाद का रूप लिया और देखते ही देखते विवाद प्रदर्शन में बदल गया। सूचना मिलने पर भवानीपुर थाने की पुलिस ने खालसा हाईस्कूल पहुंच कर शिक्षिकाओं और प्रबंधन समिति के लोगों के बीच सुलह कराने की कोशिश की, लेकिन दोनों पक्ष अपनी अपनी मांग को लेकर अड़े हैं। स्कूल बीते कई दिनों से बंद है। जिसे लेकर अभिभावक और बच्चे परेशान हैं। सुना जा रहा है कि इस मुद्दे पर शिक्षिकाएं अदालत का दरवाजा खटखटाने का मन बना रही है।