Thursday, July 28, 2011

गोरखालैंड- त्रिपक्षीय करार या भविष्य की टकरार

शंकर जालान



बीते कुछ सालों से गोरखालैंड के नाम पर पश्चिम बंगाल के विभाजन की मांग
को बीते सप्ताह उस वक्त विराम लगा, जब केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम,
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा
(जीजेएम) के लोगों के बीच त्रिपक्षीय करार हुआ और एक समझौते पर हस्ताक्षर
किए गए। राजनीतिक से प्रभावित लोग भले ही इस समझौते को गोरखालैंड का सटीक
हल माने, लेकिन जानकारों के मुताबिक इस त्रिपक्षीय करार में कहीं न कहीं
भविष्य में होने वाली टकरार नजर आ रही है। तृणमूल कांग्रेस समर्थकों के
शब्दों में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहल के कारण राज्य के विभाजन की
नौबत नहीं आई। वहीं वाममोर्चा, भाजपा समेत एवं अन्य विपक्षी दलों के
नेताओं ने समझौते पर असंतोष जताया। दूसरे शब्दों में कहे को समझौते के
कारण पहाड़ में कही खुशी तो कही गम का माहौल है।
समझौते पर हस्ताक्षर के लिए आयोजित समारोह में बनर्जी ने कहा- राज्य का
विभाजन नहीं हुआ है। पश्चिम बंगाल एक है और एक ही रहेगा। दार्जीलिंग
पश्चिम बंगाल का अविभाज्य अंग है। यह राज्य और इसके पर्वतीय हिस्सों का
हृदय-स्थल है। अब पर्वतीय और मैदानी भागों के लोग समृद्धि एवं विकास की
ओर बढ़ेंगे।
जिले के कुर्सियांग उपमंडल के पिनतैल गांव में आयोजित समझौता समारोह में
केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम भी शामिल हुए। यह ऐतिहासिक समझौता गोरखा
जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम), पश्चिम बंगाल और केंद्र सरकार के बीच हुआ है।
इस दौरान चिदंबरम ने कहा कि नई स्वायत्त संस्था का गठन इस समझौते का मूल
तत्व है। स्वायत्त संस्था को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) नाम
दिया गया है जो निर्वाचित सदस्यों की अधिकार सम्पन्न परिषद होगी। इस
परिषद के पास 1980 के दशक में गठित दार्जीलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद
(डीजीएचसी) की तुलना में अधिक अधिकार होंगे।
खबर है कि नई पर्वतीय विकास परिषद का नाम गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन
रखे जाने के कारण मुख्यमंत्री बनर्जी को आलोचना का सामना करना पड़ रहा
है। कयास लगाया जा रहा है कि परिषद में शामिल लोग अंतत: अलग गोरखालैंड
राज्य गठन के लिए बाध्य कर सकते हैं। इस बाबत ने बनर्जी ने सफाई दी हमने
केवल अंग्रेजी के 'रीजनल' शब्द को 'टेरिटोरियल' में बदला है। इसके अलावा
विशेष कोई बदलाव नहीं हुआ है।
त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के विरोध में बंगाल और बांग्ला
भाषा बचाओ समिति ने 48 घंटे के बंद किया। इस वजह से के सिलीगुड़ी उपमंडल
और उसके पड़ोसी जलपाईगुड़ी इलाके में जनजीवन आंशिक रूप से प्रभावित रहा।
कस्बे में बड़ी दुकानें बंद रहीं, निजी बसें नहीं चलीं। सड़कों पर वाहनों
और ऑटो-रिक्शा की संख्या कम रही। सरकारी कार्यालयों में सामान्य रूप से
काम-काज हुआ। पुलिस ने बताया कि धरना देने वाले तीन लोगों को गिरफ्तार कर
लिया गया।
राजनीतिक के जानकारों के मुताबिक, त्रिपक्षीय समझौते के बावजूद अलग
गोरखालैंड राज्य की मांग पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है, लेकिन गौरतलब यह
है कि यह मांग फिलहाल दब गई है। जीजेएम के अध्यक्ष विमल गुरुंग करार के
बाद भी अलग गोरखालैंड की मांग सिर्फ राजनीतिक विवशता के कारण कर रहे हैं।
गुरूंग भली-भांति जानते हैं कि यदि वे इस मांग से पीछे हटे तो उनका भी
हाल वही होगा जो कभी सुभाष घीसिंग का हुआ था।
मोटे तौर गुरुंग द्वारा पृथक गोरखालैंड की मांग किए जाने से फिलहाल इलाके
में किसी अशांति की आशंका नहीं है। जीटीए का चुनाव यदि छह महीने बाद होता
है तब भी चुनाव के बाद उसके पांच वर्ष के कार्यकाल तक पर्वतीय क्षेत्र
में शांति कायम रखने की कोशिश जीजेएम के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम
नहीं होगी।
वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समझौते पर दस्तखत होने के साथ
ही चालीस महीने से पर्वतीय इलाके में जारी संघर्ष पर लगभग विराम लग गया
है। यही नहीं, समझौते पर दस्तखत होने के साथ ही पूरे पर्वतीय क्षेत्र के
लोग खुशी से झूम उठे उससे साफ है कि सरकार व प्रशासन पर यहां के लोगों का
भरोसा फिर से कायम हुआ है। ममतापंथी लोग इसे उनकी (ममता) की बड़ी
उपलब्धि मान रहे हैं। वे कहते हैं कांग्रेस जो काम सात साल में तेलंगाना
में नहीं कर पाई, उसे तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने महज दो महीने में कर
दिखाया। जीजेएम अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर अस्तित्व में आया और जल्द
ही पूरे दार्जिलिंग में उसकी तूती बोलने लगी। विमल गुरुंग उसके सबसे
शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे। उसी गुरुंग को ममता बनर्जी आज यदि जंगी
आंदोलन से विरत रहने के लिए राजी करा सकी हैं तो क्या यह कम बड़ी बात है?
त्रिपक्षीय करार कर ममता ने एक संदेश यह भी दिया है कि छोटी-छोटी
सांस्कृतिक अस्मिताओं को मान्यता देने में सरकारों को उदारता दिखानी
चाहिए। अलगाववादी आंदोलनों से निपटने के लिए सरकारें जब-जब बल प्रयोग
करती हैं तब-तब परिस्थिति और जटिल होती है।
वहीं, वाममोर्चा व भाजपा समेत अन्य दलों के नेता इस समझौते को
दार्जिलिंग समस्या का अंतिम समाधान नहीं मान रहे हैं इन नेताओं का कहना
है कि समझौता और समाधान एक चीज नहीं हैं। यह भी सही है कि सुलह-समझौता
दरअसल समाधान की तरफ बढ़ने वाला एक कदम होता है। इस कदम से यदि अंतिम
समाधान की राह प्रशस्त होती है तब भी यह बेहद तात्पर्यपूर्ण है।
दार्जिलिंग के लोगों की बड़ी शिकायत यह रही है कि सरकार इस क्षेत्र से
खूब राजस्व उगाहती है, पर यहां के विकास पर खर्च बहुत कम करती है।
सरकारी पक्ष के लोग यह दलील दे रहे हैं कि तितरफा समझौते में जीटीए को
सिर्फ भारी बजट ही नहीं दिया गया है, उसे विकास काम में अपने हिसाब से
खर्च करने की आजादी भी दी गई है। यदि इस धनराशि का दुरुपयोग नहीं हुआ तो
निश्चित ही पहाड़ का परिदृश्य बदलेगा। ममता दार्जिलिंग समेत विकास में
पिछड़े पूरे उत्तर बंगाल में क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के लिए
सचेष्ट हैं। जीटीए करार के उपरांत उन्होंने पूरे उत्तर बंगाल के लिए जो
पैकेज घोषित किया है, उसका यदि सही-सही क्रियान्वयन हुआ तो उत्तर बंगाल
से भेदभाव बरतने और विकास में सौतेला व्यवहार किए जाने से बढ़ती गई
क्षेत्रीय असंतुलन की खाई पाटने में निश्चित ही मदद मिलेगी।

Saturday, July 23, 2011

बिखराव के कगार पर वाममोर्चा

शंकर जालान


पश्चिम बंगाल में लगातार व रिकार्ड ३४ साल तक सत्ता पर काबिज रहा और हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस-एसयूसीआई गठबंधन के हाथों करारी हार झेलने के बाद सत्ता से दूर हुआ वाममोर्चा इन दिनों बिखराव के कगार पर है या यूं कहें कि बिखराव का शिकार हो गया है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कह सकते हैं कि जो वाममोर्चा ३४ सालों तक सत्तासीन रहा, उसमें सत्ता से दूर होते ही ३४ दिनों के भीतर मनमुटाव शुरू हो गया। वाममोर्चा के नेतृत्व करने वाली व वाम घराने में बड़े भाई की भूमिका निभाने वाली माकपा को अब मोर्चा के घटक दल चुनौती देने की मुद्रा में आ गए हैं। ये घटक दल न केवल विधानसभा चुनाव में हार की जिम्मेवारी माकपा पर थोप रहे हैं, बल्कि मोर्चा की कुछ छोटी पार्टियों ने मोर्चा से अलग होने की कवायद शुरू कर दी है। वैसे कहने को ऊपर से सभी घटक दल वाममोर्चा की एकता का राग अलाप रहे हैं, लेकिन भीतर-ही-भीतर मोर्चा में बिखराव होता जा रहा है। वाममोर्चा के जिन घटक दलों ने इन दिनों बगावती तेवर अख्तियार कर रखा है, उनमें आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक, आरएसपी व पश्चिम बंगाल समाजवादी पार्टी प्रमुख है। मोर्चा की एक अन्य सहयोगी भारतीय कम्यूनिष्ट पार्टी (भाकपा) फिलहाल मौन है। हालांकि इसके नेता भी कभी-कभार या गाहे-बगाहे माकपा के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहते हैं, लेकिन वे इस मुद्दे पर अभी उतने मुखर नहीं हुए हैं, जितने आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक, आरएसपी व समाजवादी पार्टी के नेता दिख रहे हैं।
फारवर्ड ब्लाक के राष्ट्रीय महासचिव देवव्रत विश्वास ने तो पिछले दिनों वाममोर्चा में नेतृत्व परिवर्तन की मांग तक उठा डाली थी। यहीं नहीं, बीते दिनों संपन्न हुए महाजाति सदन में पार्टी के ७२वें स्थापना दिवस के मौके पर वक्तव्य रखते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर एक वृहद वाममोर्चा गठन का प्रस्ताव दिया था। साथ ही उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से मोर्चा के नेतृत्व के मुद्दे पर माकपा की योग्यता को कटघरे में खड़ा किया था। वहीं, पार्टी के प्रदेश सचिव अशोक घोष ने भी अपने भाषण में नैनो परियोजना के लिए टाटा को हुगली जिले के सिंगुर में दी गई जमीन की प्रक्रिया पर सवाल उठाया था।
कहना गलत नहीं होगा कि पश्चिम बंगाल में लगातार सात बार सत्ता में रहे वाममोर्चा में सत्ता से बाहर होते ही सात सप्ताह भी एकता कायम नहीं रह सकी। राजनीतिक हल्कों में यह भी चर्चा है कि माकपा में बुद्धदेव भट्टाचार्य, विमान बसु और पार्टी के महासचिव प्रकाश करात पार्टी के दिग्गज व दिवंगत नेता ज्योति बसु, अनिल विश्वास और हरकिशन सिंह सुरजीत का सटीक व सही विकल्प नहीं बन सके। ज्योति बसु ने २१ जून १९७७ को पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के शासन में आने पर मुख्यमंत्री का दायित्व संभाला था और कुशलतापूर्वक वे वर्ष २००० तक यानी लगातार २३ सालों कर इस जिम्मेवारी को निभाते रहे। सन २००० में शारीरिक अस्वस्थता की वजह से उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी बुद्धदेव भट्टाचार्य को सौंप दी थी।
बुद्धदेव भट्टाचार्य दिवंगत ज्योति बसु के सही उत्तराधिकारी नहीं बन पाए। इसी तरह माकपा के दिवंगत नेता व पार्टी के पश्चिम बंगाल प्रदेश इकाई के सचिव अनिल विश्वास के निधन के बाद वाममोर्चा के अध्यक्ष विमान बसु ने पार्टी प्रदेश सचिव का पद संभाला था, लेकिन लगातार पिछले कई चुनावों में हार के बाद अब विमान बसु की काबिलियत पर भी सवाल उठने लगे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो विमान बसु भी बुद्धदेव भट्टाचार्य की तरह अनिल विश्वास के सटीक उत्तराधिकारी बनने में विफल रहे।
माकपा के महासचिव प्रकाश करात पर तो इन दिनों पार्टी के भीतर और बाहर लगातार आक्रमण हो रहा है। प्रकाश करात वर्ष २००५ में हुए माकपा के राष्ट्रीय अधिवेशन (पार्टी कांग्रेस) के बाद पार्टी के महासचिव के पद पर आसीन हुए थे। पार्टी के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने भी शरीरिक दुर्बलता का हवाला देते हुए यह पद छोड़ दिया था और तब प्रकाश करात पार्टी के महासचिव चुने गए थे। तब से लेकर अपवाद स्वरूप वर्ष २००६ के छोड़कर पश्चिम बंगाल में छोटे-बड़े जितने भी चुनाव हुए उनमें वाममोर्चा और विशेषकर माकपा को मुंह की खानी पड़ी। चाहे २००८ का पंचायत चुनाव हो या फिर २००९ का लोकसभा चुनाव और २०१० का नगर निगम व नगरपालिका चुनाव।
इन सभी चुनावों में वाममोर्चा व माकपा शिकस्त खाती रही। २०११ के विधानसभा चुनाव में तो मानो वाममोर्चा का सूपड़ा ही साफ हो गया। राज्य की २९४ सीटों में से वाममोर्चा को मात्र ६२ सीटों पर ही कामयाबी मिली। इस वजह से माकपा की बंगाल इकाई में पार्टी महासचिव प्रकाश करात के खिलाफ विरोधी स्वर उभरने लगे। पार्टी के बंगाल इकाई के नेता मानते हैं कि प्रकाश करात द्वारा लिए गए कुछ गलत फैसलों की वजह से माकपा का इतना बुरा हाल हुआ है। इनमें २००८ में केंद्र में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार से परमाणु करार के मुद्दे पर वाममोर्चा का समर्थन वापस लेने का फैसला प्रमुख है।
बारिकी तौर पर देखा जाए तो मोर्चा की विफलता में यदि प्रकाश करात की नीतियां दोषी हैं, तो माकपा की पश्चिम बंगाल इकाई की एक के बाद एक गलतियां भी कम जिम्मेवार नहीं हैं। सिंगुर व नंदीग्राम आंदोलन ने पश्चिम बंगाल वाममोर्चा की न केवल नींव हिला दी, बल्कि इसके मजबूत किले को भी ध्वस्त कर दिया। इन सब की वजह रही बुद्धदेव भट्टाचार्य, विमान बसु, निरूपम सेन, गौतम देव जैसे माकपा नेताओं की वे नीतियां, जिसने इस राज्य में ३४ साल के वाम शासन को सत्ता से उखाड़ फेंका।
वर्ष २००६ में राज्य की २९४ विधानसभा की सीटों में से २३५ पर जीत हासिल करने वाले वाममोर्चा को २०११ के विधानसभा चुनाव में महज ६२ सीटों से संतोष करना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस-एसयूसीआई गठबंधन ने इस चुनाव में वाममोर्चा का विजय रथ रोक दिया।
वैसे माकपा ने कहा है कि आगामी दिनों में इस अप्रत्याशिक हार की समीक्षा की जाएगी। साथ ही यह भी कहा है कि वाममोर्चा राज्य में एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएगा, लेकिन हार के बाद पार्टी कैडरों और कार्यकर्ताओं का मनोबल एकदम से टूट गया है। वे अब बुद्धदेव भट्टाचार्य, विमान बसु व गौतम देव जैसे नेताओं को इस हार का जिम्मेवार ठहरा रहे हैं। उनका सबसे ज्यादा गुस्सा पार्टी के महासचिव प्रकाश करात पर है।
इधर, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य इन दिनों खुद को पार्टी कार्यालय अलीमुद्दीन स्ट्रीट व अपने आवास तक सीमित कर लिया है। यहां तक कि माकपा पोलित ब्यूरो का सदस्य होने के बावजूद उन्होंने पिछले दिनों हुई पोलित ब्यूरो की बैठक और केंद्रीय कमिटी की बैठकों में हिस्सा नहीं लिया। वैसे बुद्धदेव बीते कुछ सालों से लगातार माकपा पोलित ब्यूरो की बैठक में गैरहाजिर होते रहे हैं। हाल में विधानसभा चुनाव में घोर व अपमानजनक पराजय के बाद तो उन्होंने पोलित ब्यूरो व पार्टी की केंद्रीय कमिटी से हटने की इच्छा जताई थी। हालांकि बाद में पार्टी ने उन्हें (बुद्धदेव को) मना लिया और वे फिलहाल पार्टी के दोनों संगठनों से जुड़े हैं।
पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की इस दुर्गति के लिए माकपा के नेता व राज्य के पूर्व आवास मंत्री गौतम देव भी बड़े जिम्मेवार हैं। २०११ के विधानसभा चुनाव के दौरान विरोधी तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ गौतम देव का बड़बोलापन कुछ इस कदर बढ़ा कि इसने चुनाव में पार्टी की पूरी फजीहत ही करा दी। इसी तरह राज्य के पूर्व भूमि व भूमि सुधार मंत्री व इस बार के चुनाव में माकपा के चंद जीतने वाले नेताओं में शुमार अब्दुर रज्जाक मोल्ला का बगावती सुर भी कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। बीच-बीच में मोल्ला ऐसा बयान जारी कर देते हैं कि माकपा नेतृत्व को उनको समझाने-बुझाने पर मजबूर होना पड़ रहा है।
इसी तरह लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का मुद्दा भी रह-रहकर पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन जाता है। वैसे सोमनाथ चटर्जी ने विधानसभा चुनाव में गौतम देव समेत कई माकपा उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया था, लेकिन चुनाव बाद की परिस्थितियों में उनके देवर भी बदल गए। १३ मई को विधानसभा चुनाव के नतीजा आने व राज्य की मुख्यमंत्री का दायित्व संभालने के बाद ममता बनर्जी ने सोमनाथ चटर्जी के साथ मुलाकात की थी। हालांकि ममता ने इस मुलाकात को सौजन्यपूर्ण मुलाकात कहा था, लेकिन इससे माकपा नेताओं की स्थिति बगलें झांकने जैसी हो गई थी।
याद रहे कि वर्ष २००८ में पार्टी के निर्देश का उल्लंघन करने के आरोप में माकपा महासचिव प्रकाश करात ने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया था। बावजूद चटर्जी खुद को वामपंथी बताते रहे और विधानसभा चुनाव में उन्होंने माकपा के पक्ष में प्रचार भी किया।
इधर विधानसभा चुनाव का नतीजा आने के बाद से पश्चिम बंगाल के विभिन्न इलाकों में अवैध हथियारों की बरामदगी भी माकपा की परेशानी का कारण बनी हुई है। क्योंकि से सारे अवैध हथियार माकपा के स्थानीय कार्यालयों या पार्टी नेताओं के घर के आसपास मिल रहे हैं। हालांकि माकपा इसके पीछे तृणमूल कांग्रेस व राज्य पुलिस की मिली-भगत को वजह बता रही है और इसे वह पार्टी के खिलाफ साजिश करार दे रही है। यही नहीं राज्य में राजनीतिक हिंसा के पीछे भी माकपा खुद को पाक साफ बताते हुए इसे तृणमूल की साजिश बताने में लगी है, लेकिन पार्टी की यह सारी कवायद लगभग विफल साबित हो रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वाममोर्चा गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है और बिखराव के सम्मुख पहुंच गया है।

लोकपाल के दायरे में होना चाहिए प्रधानमंत्री को - उमा भारती

मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व सांसद और हाल ही में दोबारा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हुईं तेज-तर्रार नेत्री उमा भारती का मानना है कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए। हालांकि उनका यह भी मानना है कि इसका प्रारूप क्या हो यह चर्चा का विषय है। बीते दिनों समग्र गंगा नामक कार्यक्रम में शिरकत करने महानगर कोलकाता आईं उमा भारती ने कहा कि भाजपा अण्णा हजारे व बाबा रामदेव द्वारा उठाए गए देश हित के मुद्दों के साथ है। अपने काफी व्यस्त कार्यक्रम के बीच भी उमा भारती ने शंकर जालान से बातचीत की। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश...

०० उमाजी, सीधे सवाल पर आते हैं लगभग छह साल बाद आपकी भारतीय जनता पार्टी
(भाजपा) में वापसी हुई है आप कैसा महसूस कर रही हैं ?
--आप कुछ ज्यादा बोल गए। मैं छह साल नहीं साढ़े पांच साल भाजपा से अलग रही। फिर से भाजपा में लौटे अभी पांच सप्ताह हुआ है, इसीलिए कैसा महसूस कर रही हूं फिलहाल कहना मुश्किल है।

०० आपके भाजपा में लौटने की चर्चा तो कई बार हुई, लेकिन बीते महीने अचानक इसकी घोषणा कर दी गई। क्या ऐसा करने की कोई विशेष वजह थी?
--इस बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम है। इतना जरूर कह सकती हूं कि पार्टी नितिन गडकरीजी और वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणीजी पिछले एक-डेढ़ साल से मुझे पार्टी में आने के लिए कह रहे थे, लेकिन बीते महीने अचानक यह घटनाक्रम क्यों हुआ, इस बाबत में कुछ नहीं कह सकती।

०० सुना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के भाजपा समर्थकों की मांग पर आपकी घर वापसी हुई है?
-- बीते ६६ महीने के दौरान मैं देशभर में जहां भी गई। भाजपा के कार्यकर्ता मुझसे मिलते थे और पार्टी में वापस लौटने का आमंत्रण देते थे। बीते साल के आखिरी महीने यानी दिसंबर में जब द्वादश ज्योतिर्लिंग की यात्रा पर गई थी तो वहां मंदिरों में जो भी श्रद्धालुओं
मिलते थे, सभी कहते थे कि वे भाजपा में लौट आएं। इसलिए मैं मानती हूं कि उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के अन्य राज्यों के भाजपा समर्थक भी यहीं चाहते थे कि मैं दोबारा भाजपा में शामिल हो जाऊं।

०० क्या आप इसे घर वापसी मानती हैं?
-- हां, बिल्कुल मानती हूं। इसके साथ ही विश्वास से यह भी कह सकती हूं कि मेरे भाजपा में फिर से शामिल होने से पार्टी के शीर्ष नेताओं के साथ-साथ कार्यकत्ता भी बेहद खुश होंगे।

०० लोकपाल बिल पर आपकी क्या राय है?
-- लोकपाल बिल से मैं पूरी तरह समहत हूं। देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए लोकपाल विधेयक जरूर बनना चाहिए।

०० क्या प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में होना चाहिए?
--जी हां, जरूर होना चाहिए, लेकिन इसका प्रारूप क्या हो यह चर्चा का विषय हो सकता है।
००बीते दिनों रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव व उनके भक्तों के साथ जो हुआ उस पर आप क्या कहना चाहेंगी?
--जो हुआ, बेहद गलत हुआ। उस दिन की घटना ने जलियावाला बाग की याद दिला दी।

०० पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितीन गडकरी ने मुख्य रुप से आपको क्या जिम्मेवारी दी है?
-- मैं गंगा से जुड़े मुद्दे को लेकर पहले से सक्रिय थी और भाजपा में भी गंगा सेल है तो मुझे उसका काम सौंपा गया है। गड़करी जी ने राजनाथ सिंह की जगह पर अब मुझे गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की जिम्मेदारी सौंपी है।

००अगले साल यानी 2012 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होना है। क्या आपने समाजवादी पार्टी (सपा) व बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को टक्कर देने के लिए कोई विशेष रणनीति बनाई है?
-- उत्तर प्रदेश की जनता मायावती से तंग आ चुकी है और मुलायम सिंह यादव के जनविरोधी कार्यों को प्रदेश की जनता अभी तक भूला नहीं पाई है। इसलिए मेरा मानना है कि चुनाव के मद्देनजर भाजपा या मुझे कोई विशेष रणनीति बनाने की जरूर नहीं है। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की पहली पसंद भाजपा ही होगी।
००क्या ऐसा माना जाए कि आपकी घर वापसी से भाजपा को उत्तर प्रदेश के लिए तेज-तर्रार और स्वाभाविक नेता मिल गया है?
--मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानूंगी। हां, मैं यह जरूर मानती हूं कि मेरे आने से उत्तर प्रदेश के भाजपा समर्थक काफी खुश हैं। मैं पार्टी से चली गई थी तो इसका उन्हें दुख था। ऐसा बिलकुल नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कोई नया नेता आ गया है। यहां नेताओं का अभाव नहीं है।

००कांग्रेस की ओर से दिग्विजय सिंह, बसपा की ओर से मायावती और सपा की ओर से मुलायम की चुनौतियों का कैसे सामना करेंगी?
--मुझे कुछ नहीं करना है, जो करेगी जनता करेगी। मैं अपने आप को पार्टी की कार्यकर्ता मानती हूं और इससे उलट यह मानती हूं कि हमारा राष्ट्रीय दायित्व है कि हम उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति को सुधारें, क्योंकि उत्तरप्रदेश से ही भारत की राजनीति में विकृतियां उत्पन्न हुई हैं। हमें केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में फैली राजनीति विकृतियों को समाप्त करना है।

०० कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की पदयात्रा से कांग्रेस को लाभ होगा?
--कोई फायदा नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में बीते 22 सालों से कांग्रेस सत्ता से दूर हैं। अभी 22 साल और दूर रहंगी।

००उत्तर प्रदेश में मुख्य चुनावी मुद्दे क्या होंगे?
--राम और रोटी के मुद्दे पर हम चुनावी मैदान में जाएंगे। राम-मंदिर से राम-राज्य की ओर यही हमारा मुख्य नारा होगा।

०० भाजपा से अलग होकर आपने नई पार्टी बनाई और छह साल तक भाजपा से दूर रहीं। उन छह सालों का अनुभव कैसा रहा?
--मैं भाजपा से अलग हुई थी। भाजपा की विचारधारा और नीतियों से नहीं। नई पार्टी के बैनर तले में मैंने साढ़े पांच सालों के दौरान वहीं किया जो भाजपा में रहते हुए करती। इस दौरान ऐसा कोई उल्लेखनीय अनुभव नहीं रहा, जो जिक्र या याद रखने लायक हो।
००इस दौरान भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही समान दूरी से देखा होगा, दोनों पार्टियों में आपको क्या बदलाव नजर आया?
--जब हम राजनीतिक समीक्षा कर रहे होते हैं तो कुछ चीजों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि हमें अपने दल के बारे में कुछ कहना है तो हम दल के अंदर ही कहेंगे। मुझे ‘भारतीय जनशक्ति पार्टी’ में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं बाहर बोलने नहीं जाती थी। पार्टी के अंदर ही बैठकर बात होती थी। इसलिए जब मैं भाजपा की समीक्षा करूंगी तो पार्टी के अंदर बैठकर ही करूंगी। बाहर आप जैसे पत्रकारों के सामने तो कतई ही नहीं करूंगी। हां, जहां तक पूरी राजनीतिक व्यवस्था की समीक्षा का सवाल है तो मैं यह कह सकती हूं कि अभी एक समय आया है, जिसमें अचानक विचारधाराओं की अतिवादिता खत्म हुई है। जब देवगौड़ा की सरकार बनी तो उस समय वामपंथियों ने अपने आग्रह छोड़े। अपनी विचारनिष्ठाओं से कहीं न कहीं समझौता किया। फिर हमारी सरकार बनी, पर 2004 में हम नहीं जीत पाए। फिर मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो उसे बचाने का प्रयास हुआ। इस प्रयास में जो स्थितियां बनीं, उन सब को मिलाकर एक बात कह सकती हूं कि राजनीति में विचारनिष्ठा के पुनर्जागरण का युग आया है। फिर से उसको पुनर्स्थापित करना है।

००मिशन गंगा पर कुछ बताएं?
--गंगा को स्वच्छ रखना देश की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है और उनके इस अभियान को हिंदुत्व के मसले से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। गंगा को प्रदूषित करने में बिजली व खनिज माफियाओं की बहुत बड़ी भूमिका है। अगर गंगा की रक्षा करनी है तो केंद्र सरकार को जल्द एक कानून बनाने की जरूरत है। इसको लेकर मैं जल्द प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलेंगी। इसके अलावा अक्टूबर में दिल्ली में गंगा सम्मेलन का भी आयोजन करेंगी ,जिसमें देश-विदेश से सैकड़ों वैज्ञानिक व प्रोफेसर भाग लेंगे। साथ ही गंगा बचाओ अभियान के तहत नवंबर में गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक मानव बंधन का आयोजन किया जाएगा?

००सुना है मिशन पूरा नहीं होने तक आप अन्न ग्रहण नहीं करेंगी?
--सही सुना है आप ने। जब तक इस काम में कामयाब नहीं हो जाती, अन्न नहीं खाऊंगी। एक बात और बता देती हूं मालपुआ मुझे बहुत पसंद है। अब मालपुआ तभी खाऊंगी, जबिक गंगा के पानी पीने लायक हो जाएगा।
०० इस बार कई लोगों को 15 अगस्त तो नेताओं को 16 अगस्त का इंतजार है। क्योंकि 16 अगस्त से अण्णा हजारे ने अनशन का एलान किया है। आपको क्या लगता है कि हजारे का अनशन पर बैठना जायज है?
-- अगस्त हम देश को अंग्रेजों के हाथों ने मुक्त कराने के लिए मनाते हैं और इस बार का 16 अगस्त देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की मुहिम के लिए याद किया जाएगा। मेरा मानना है कि केंद्र सरकार के 16 अगस्त से पहले ही अण्णा हजारे की बात मान लेनी चाहिए, ताकि अनशन पर बैठने की नौबत ही न आए।

००आप पश्चिम बंगाल के दौरे पर हैं और अभी हाल ही में बंगाल में सत्ता परिवर्तन हुआ, बंगाल की नई मुख्यमंत्री और कभी राजग के साथ रही ममता बनर्जी के बारे में आपकी क्या राय है?
--तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की यह खासियत रही है कि वे जिनके सहारे से आगे बढ़ती हैं उन्हें ही नीचे गिरा देती हैं। मैं विश्वास के साथ कह सकती हूं कि राज्य की नई मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कांग्रेस का विनाश कर देंगी। इतिहास गवाह है ममता ने जिसका भी हाथ थामा है, केन्द्र की सत्ता से उसका सफाया हो गया है। जब वह राजग में शामिल थीं तो केन्द्र की सत्ता से भाजपा को भी हाथ धोना पड़ा था। उसी तरह अब कांग्रेस का भी पतन हो जाएगा।

Friday, July 8, 2011

पश्चिम बंगाल खुली स्वास्थ्य सेवाओं की पोल

शंकर जालान




बीते दिनों घटी महानगर कोलकाता के उत्तरी अंचल में स्थिति डा. विधानचंद्र राय शिशु अस्पताल सह मेडिकल कालेज (सरकारी) में दिल दहला देने वाली घटना ने न केवल पश्चिम बंगाल की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोल दी है, बल्कि यह भी जग जाहिर कर दिया है कि राज्य के सरकारी अस्पताल खुद बीमार है। मात्र ४८ घंटों के दौरान १९ बच्चों की मौत ने राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जो स्वास्थ्य मंत्री भी हैं को सोचने पर मजबूर कर दिया है। ध्यान रहे कि २० मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही ममता ने महानगर की कई सरकारी अस्पतालों का औचक दौरा किया था और लचर स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने का वादा भी। अस्पतालों के दौरों के एक महीना बीत जाने के बाद भी इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, लिहाजा कई माताओं की गोद अवश्य सुनी हो गई।
महानगर में यह पहली बार नहीं है जब एक साथ इतनी बड़ी संख्या में इलाजरत शिशुओं की मौत हुई है। नौ वर्ष पहले यानी 2002 में भी तीन दिन के भीतर इसी अस्पताल में 32 बच्चों ने दम तोड़ा था। इस बार ४८ घंटों में १९ बच्चों की मौत हुई है। इतनी बड़ी संख्या में इलाजरत शिशुओं की मौत की जिम्मेदारी लेने के लिए अस्पताल का कोई भी अधिकारी तैयार नहीं है। बहरहाल अस्पताल के अधीक्ष डा. डीके पाल ने कार्रवाई से आशंकित होकर खुद ही इस्तीफे की पेशकश की, लेकिन वे भी सीधे तौर पर जिम्मेदारी मानने को तैयार नहीं है। हद तो तब हुई जब यहां एक वरिष्ठ अधिकारी ने चिकित्सकीय लापरवाही या गड़बड़ी की बात स्वीकार करने की बजाए पर इसे एक सामान्य घटना बता दिया। अधिकारी ने कहा कि यह एक बाल चिकित्सालय है यहां रोजाना ही दो-चार-छह शिशुओं की मौत होती है, लेकिन एक साथ इतनी अधिक संख्या में मौत बड़ी और सनसनीखेज खबर है। अस्पताल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दावा किया कि मारे गए किसी नवजात या शिशु के अभिभावक ने चिकित्सकीय लापरवाही की कोई अधिकृत शिकायत दर्ज नहीं कराई है, लेकिन फिर भी मामले की जांच के लिए कमेटी गठित कर दी गई है। वहीं अस्पताल व मेडिकल कालेज प्रबंधन के अधिकारियों के परस्पर विरोधाभासी बयानों से भी मामला उलझता जा रहा है। अस्पताल के मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल मृणाल चटर्जी ने कहा कि अस्पताल में न ही बुनियादी सुविधाओं की कमी है न ही चिकित्सकों का अभाव। वहीं अस्पताल के अधीक्षक डा. डीके पाल ने बुनियादी ढांचे में कमी की बात स्वीकारी । पाल ने इस्तीफे की पेशकश की है लेकिन सरकार ने अभी तक इस बारे में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है।
चिकित्सा क्षेत्र के जानकारों के मुताबिक अस्पताल का अपना ब्लड बैंक नहीं है और कई जरूरी उपकरणों की भी कमी है। जानकारों ने सवाल खड़ा किया कि १२५ डाक्टरों और २०० नर्सो की फौज वाले डॉ. विधानचंद्र राय शिशु अस्पताल में बार-बार इतनी बड़ी तादाद में बच्चे क्यों मौत के मुंह में समा जाते हैं और इसके लिए सीधे तौर पर कोई जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जाता।
राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी माकपा के राज्य सचिव विमान बसु ने राज्य के मुख्यमंत्री व स्वास्थ्यमंत्री ममता बनर्जी पर निशाना साधते हुए विधानचंद्र राय शिशु अस्पताल में एक साथ हुई १९ शिशुओं की मौत के लिए राज्य की नई तृणमूल सरकार की कड़ी आलोचना की है।
दूसरी ओर, बच्चों के परिजनों का आरोप है कि डॉक्टरों ने इलाज में लापरवाही बरती जबकि अस्पताल प्रशासन खुद को निर्दोष बता रहा है। परिजनों का कहना है कि चिकित्सकों की अनदेखी के कारण उनके घर के चिराग बुझ गए। दिल को रुलाने वाली इस घटना से गुस्साए परिजनों ने पहले तो डॉक्टरों पर नाराजगी जताई , उसके बाद सड़क पर जाम लगाया और फिर कोई सुनवाई न होते देख बेकाबू होकर अस्पताल में जमकर तोड़फोड़ की। हालात काबू करने के लिए पुलिस ने कई बार लाठियां चलाईं। इस बीच स्थिति की गंभीरता को देखते हुए राज्य सरकार जांच के आदेश दिए हैं। इस बाबत दो डॉक्टरों की एक टीम बनाकर उसे २४ घंटों के भीतर रिपोर्ट दर्ज करने को कहा गया है।
ध्यान रहे कि विधानचंद्र राय शिशु अस्पताल कोलकाता और आसपास के इलाक़े में बच्चों का एकमात्र बड़ा सरकारी अस्पताल है। इस अस्पताल में आसपास के गांवों और कस्बों से बीमार बच्चों को भेजा जाता है.
अस्पताल प्रशासन का कहना है कि जिन बच्चों की मौत हुई है वो गंभीर हालत में अस्पताल में लाए गए थे और इलाज में कोई कोताही नहीं बरती गई है। दूसरी ओर बच्चों के परिजनों का आरोप है कि अस्पताल ने इलाज़ में लापरवाही बरती है जिसके कारण बच्चों की मौत हुई है।
अभिभावकों का कहना है कि यह अस्पताल एक बार फिर बच्चों की कब्रगाह साबित हुआ। मौत की नींद सोए १९ शिशुओं में १६ की आयु एक से पांच दिन की थी, इन्हें राज्य के विभिन्न क्षेत्रों से इलाज के लिए यहां लाया गया था।
हास्पिटल में गुरुवार सुबह तकरीबन १० बजे हड़कंप मच गया, जब लोगों को पता चला कि अस्पताल में भर्ती १५ बच्चों की एक साथ मौत हो गई है। खबर मिलते ही इलाजरत तमाम शिशुओं के परिजन और रिश्तेदार अस्पताल पहुंचे। माताओं के विलाप के बीच परिजनों (पुरुष सदस्यों) और अन्य लोगों ने अस्पताल प्रबंधन पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए तोड़फोड़ शुरू कर दी। दोपहर करीब १२ बजे दो और शिशुओं की मौत की खबर के बाद स्थानीय नागरिक भी पीडि़तों के साथ शामिल हो गए। चिकित्सक मृणालकांति चटर्जी ने कहा, १२ बच्चों की मौत बुधवार को हुई, छह बच्चों ने वृहस्पितवार और एक बच्चे ने शुक्रवार तड़के दम तोड़ा। उन्होंने कहा, अधिकांश बच्चे कम नजन (अंडरवेट) थे। इन्हें किडनी, लीवर की गड़बड़ी, रक्ताल्पता, सेप्टिसीमिया जैसी गंभीर तकलीफों के बाद विभिन्न अस्पतालों से इलाज के लिए यहां लाए गए थे। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस घटना को बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बताया और कहा कि गठित टीम की रिपोर्ट आने पर दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा ताकि दूसरे लोग इससे सबक ले सके।
एक निजी टेलिवजीन से बातचीत में ममता बनर्जी ने अस्पतालों में चिकित्सा की बुनियादी जरूरतों को नजरअंदाज करने के लिए वाम मोर्चा के शासन को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि अस्पताल में चिकित्सा की बुनियादी जरूरतों का ध्यान नहीं रखा गया है। इस तरह की घटनाएं वाममोर्चा के शासनकाल में पहले भी हो चुकी हैं।
उन्होंने माना कि बुनियादी जरूरतों को शीघ्र पूरा नहीं किया जा सकता। नई मशीनों को खरीदने के लिए प्रक्रियाओं का पालन करना होता है जिसमें समय लगता है।
हालांकि मुख्यमंत्री ने भरोसा दिलाया कि उनकी सरकार ने चिकित्सा ढांचे को व्यवस्थित करने के लिए अल्प एवं मध्यावधि योजनाओं का खाका तैयार किया है।
ममता बनर्जी चाहे जो दलील दे, लेकिन जिन माताओं ने अपने लाल (बच्चे) खोए हैं, उन्हें विश्वास में लेना उनकी लिए डेढ़ी खीर से कम नहीं होगा। वे मां जिनकी गोद सुनी हो गई है वे यह कभी नहीं भूल पाएंगी कि अग्निकन्या के गद्दी संभालने के सवा महीने के भीतर ही उनके जिगर का टुकड़ा राज्य के लचर स्वास्थ्य व्यवस्था की भेंट चढ़ गया।
राज्य सरकार और अस्पताल प्रबंधन चाहे जितनी सफाई दे। विपक्ष इस घटना के लिए जितनी चाहे सरकार की आलोचना करे, लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है उन माताओं के बच्चों की मौत से अश्वधामा जैसा धावा मिला है, जो न कभी भरेगा और न ही सुखेगा।
दूसरी ओर, मध्य कोलकाता के चित्तरंजन एवेन्यू स्थित मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक महिला मरीज के पैर की अंगूली चूहे ने खा ली। वहीं, नदिया जिले के कल्यानी इलाके में किडनी तस्करी का गिरोह चलाने के आरोप में 2 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार रेल सुरक्षा बल (आरपीएफ) ने उन्हें कल्याणी स्टेशन से पकड़ कर पुलिस के हवाले किया। आरपीएफ का कहना है कि ये दोनों किडनी तस्करी का गिरोह चलाते थे।

Friday, July 1, 2011

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, जो वादा किया वे निभाना...

शंकर जालान


34 साल के वाममोर्चा के शासनकाल को ध्वस्त करते हुए पश्चिम बंगाल में ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए अब चुनाव प्रचार के दौरान किए गए वादे निभाने का वक्त आ गया है। ममता ने दावा किया था कि माओवाद, गोरखालैंड, सिंगुर समेत कई गंभीरर समस्याओं को वे न केवल बहुत जल्द सुलझा लेंगी बल्कि राज्य में विकास की तेजी को भी जारी रखेगी। बतौर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बीते 20 जून को एक महीना का कार्यकाल पूरा किया और इन चार सप्ताह यानी 30 दिन के दैरान ममता ने मानो तूफानी अंदाज में काम किया। उन्होंने तेजी के साथ कई महत्वपूर्ण फैसले लिए। छापामार अंदाज में औचक निरीक्षण किया। अधिकारियों, उद्योगपतियों के साथ बैठक की। अपने चेंबर (कक्ष) को सुसज्जित करने में हुए खर्च बाबत दो लाख की राशि का चेक राज्य के मुख्य सचिव समर घोष का सौंपना। राज्य की खस्ताहाल स्थिति को देखते हुए निजी खाते (चित्रों की बिक्री से हुई आय) से एक करोड़ रुपए मुहैया करना। कई नयी घोषणाएं करना। गोरखलैंड जैसी समस्याओं को दूर करने की दिशा में ठोस कदम उठाना। सत्ता के सफर में इसे ममता की कामयाबी कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। बीते 20 मई को मुख्यमंत्री की शपथ लेने के साथ कैबिनेट की पहली बैठक में उन्होंने सिंगुर में अनिच्छुक किसानों की 400 एकड़ जमीन लौटा देने की घोषणा की। तीन महीने के भीतर गोरखालैंड और माओवाद समस्या दूर करने की बात कही। इन सबसे भी खास बात यह रही कि 30 मई को पंद्रहवीं विधानसभा में पहला भाषण देने के साथ-साथ सदन में विपक्ष को महत्व देने का निर्देश भी दिया।
जून की पहली तारीख को माओवाद प्रभावित इलाकों में अधिक से अधिक एससी व एसटी को दो रुपया किलो चावल देने के लिए आय की सीमा बढ़ाने की घोषणा। रिटायर होते ही शिक्षकों को पेंशन उपलब्ध कराने की घोषणा। शिक्षकों को माह की पहली तारीख से वेतन भुगतान की शुरूआत। स्कूली शिक्षा में वन विंडो सिस्टम लागू करने की घोषणा। कालीघाट स्थित अपने निवास पर जनता दरबार लगाना। ममता के इन सब कारनामों के कारण ही अगर यह कहा जाता कि ममता जैसा कोई नहीं... तो कुछ गलत नहीं होगा।
सरकारी अस्पतालों व पुलिस बैरक के अचानक दौरे को कुछ लोग तानाशाही कह रहे हैं, तो कई लोगों का कहना है कि
ममता बनर्जी ने दोस्ताना संबंध वाले बॉस की छवि स्थापित करने के लिए ऐसा किया।
पश्चिम बंगाल की ही नहीं, पूरे देश में वे सभ्भवत: पहली मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने ऐसा किया है।
राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री ने सरकार की जनहितकारी छवि पेश करने के लिए शीर्ष प्रशासनिक स्तर पर बदलाव भी किए। इसके साथ ही वरिष्ठ अधिकारियों को अपने पहले संदेश में उन्होंने कहा कि यदि कोई राजनीतिक नेता हस्तक्षेप करता है, तो आप सीधे तौर पर उनसे (ममता) से संपर्क करें।
हां, जब लड़ी तो कट्टर राजनैतिक दुशमनों की तरह मगर जा सौजन्यता पेश करने की बात आई तो उसमें भी मिसाल पेश कर दिया। संपन्नता के बावजूद सादगी में भरोसा, जरूरत पड़ी तो तीखे तेवर मगर गरीबों के लिए ममता की प्रतिरूप ममता बनर्जी सचमुच में बेनजीर हैं। अचानक काफिले से छिटककर रोड के किनारे किसी खोमचे वाले से हालचाल पूछने चली जाती हैं। यह भी भूल जाती हैं कि वे मुख्यमंत्री भी हैं। ये कुछ बातें हैं जो ममता की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए उन्हें देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री से अलग करती हैं। ममता पुलिस को हिदायत देती रहती हैं कि उनके लिए ट्रैफिक रोककर आम आदमी की मुश्किलें न बढ़ाए। सिगनल लाल होने पर खुद भी आम आदमी की तरह सिगनल हरा होने का इंतजार करती रहती हैं। खुद को विशिष्ट की जगह आम लोगों की तरह बनाए रखने का यह जज्बा ही बताता है कि सचमुच ममता जैसा कोई नहीं।
राजनीतिक के जानकारों का कहना है कि ममता ने जिस तन्मयता, एकाग्रता और सोच से ३४ सालों से सत्तासीन वाममोर्चा को राज्य सचिवालय (राइटर्स बिल्डिंग) से बेदखल किया ठीक उसी तरह अब वह (ममता) जनता और नेता के बीच की दूरी पाटने में जुटी हैं।
कुछ लोग ममता बनर्जी को नायक फिल्म के मुख्य कलाकार अनिल कपूर के रूप में देख रहे हैं। लोगों का कहना है कि अनिल कपूर ने एक दिन के लिए मुख्यमत्री का पदभार संभाला था और पूरी व्यवस्था को बदल कर रखी दी थी बेशक वह एक फिल्म के दृश्य था, लेकिन ममता बनर्जी जिस गंभीरता से काम ले रही है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि एक दिन, एक सप्ताह या एक महीने में तो नहीं, लेकिन एक साल में ममता पश्चिम बंगाल की पूरी व्यवस्था अवश्य बदल देगी।
लोगों की बीच यह चर्चा है कि ममता की ईंमानदारी और सादगी पर तो उन्हें कभी शक था ही नहीं, लेकिन विधानसभा चुनाव के पहले तक इतनी उग्र लगने वाली ममता चुनावी नतीजे आने के बाद एकाएक इतनी संतुलित कैसे हो गई।