शंकर जालान
यही सुन कर पत्रकारिता में आया था कि समाचार पत्र समाज का आईना होते हैं और पत्रकार कलम का सिपाही। सचमुच आज से 10-15 साल पहले तक यह सही भी था, लेकिन बीते कुछ सालों में जब से इलेक्ट्रिानिक मीडिया का चलन बढ़ा है, तब से पत्रकारिता की पूरी परिभाषा ही मानो बदल गई है। ऐसा नहीं है कि 15 साल पहले प्रबंधन या विज्ञापन विभाग से समाचार विभाग को कोई लेना-देना नहीं था। प्रबंधन, विज्ञापन और समाचार विभाग में गजब का तालमेल था और सभी विभाग अपनी-अपनी सीमा और मर्यादा को भली-भांति समझते थे, लेकिन इन सालों में संपादक कहने भर को रह गए हैं, सारा नियंत्रण प्रबंधन का है। यही कारण है कि संपादक न तो खुलकर अपने विचार प्रकट कर सकता है, न सटीक संपादकीय लिख सकता है और न ही अपने रिपोर्टर से खोजी व जोखिम भरी पत्रकारिता करने की सलाह या हुक्म दे सकता है। कुल मिलाकर इन दिनों बड़े घरानों के लिए अखबार निकालना, मंत्रालय व मंत्री स्तर पर अपनी पहुंच बनाने का जरिया बन गया है और पत्रकारों के लिए मात्र रोजी-रोटी का साधन। ऐसी विकट और दुखद स्थित में अब यह नहीं समझ में आ रहा है कि जान-जोखिम में डालकर खबर लाने वाले पत्रकारों में अब खुदगर्जी क्यों हावी होती जा रही है?
इनदिनों घट रही कुछ घटनाओं पर नजर दौड़ाने से पुख्ता तौर पर तो नहीं, हां मोटे तौर पर जरूर कुछ समझ पाया कि कभी समाज को सच्चाई से अवगत करने के उद्देश्य से खबर छापने वाले अखबार अब विज्ञापन पाने के लिहाज से खबर बनाते व प्रकाशित करते हैं। वहीं, समाचार एकत्रित करने के लिए पसीना बहाने वाला पत्रकार इन दिनों उपहार (गिफ्ट) हासिल करने में दिन-रात एक किए हुए है।
बाबा रामदेव और उनके समथर्कों को बर्बरतापूर्वक देश की राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान से पुलिस द्वारा खदेड़ना। दूसरी घटना कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी को एक पत्रकार का जूता दिखाना और तीसरी घटना मायानगर मुंबई में सरेआम एक पत्रकार को गोलियों से छलनी कर मौत के घाट उतारना।
पहले-पहल बाबा रामदेव के सत्याग्रह पर गौर करते हैं। बाबा ने काले धन का मामला उठाकर जैसे गुनाह कर डाला। केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार बाबा रामदेव के पीछे हाथ धो कर पड़ गई, उनकी संपत्ति से लेकर उनके इतिहास को खंगालने में जुट गई। मजबूर बाबा को दिल्ली के बजाए हरिद्वार जाना पड़ा। अनशन के दौरान वहां उनकी तबीयत बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया।
लेकिन अफसोस इस घटनाक्रम को जिस तरह से इलेक्ट्रिोनिक मीडिया ने दिखाया और प्रिंट मीडिया ने छापा उसने पत्रकारिता के पेशे पर सवालिया निशान लगा दिया, जिस बाबा को मीडिया ने ऊंचाई प्रदान की थी, टीआरपी के चक्कर में उसी मीडिया ने उन्हें नीचे गिरा दिया।
अब आते हैं कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्द्धन द्विवेदी की प्रेस कांफ्रेस में एक नामालूूम पत्रकार ने उन्हें जूता दिखा दिया, जिस पर उसकी जमकर पिटाई कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया। अगले दिन एक टीवी चैनल ने दिखाया कि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी उस पत्रकार को लात मारी और चैनलों को टीआरपी बढ़ाने का जुमला मिल गया। दुखद यह है कि उस पत्रकार से यह पूछने की बजाए कि उसने ऐसा कदम क्यों उठाया, इससे उलट मीडिया ने खबर को मसालेदार बनाने की भरसक कोशिश की।
आइए, अब बात करते हैं मुंबई में मिड डे से जुड़े क्राइम रिपोर्टर और अंडरवर्ल्ड पर दो बेहतरीन किताबें लिखने वाले ज्योतिर्मय डे की। कुछ अज्ञात लोगों ने उन्हें गोलियों से भून डाला। हैरानी की बात ये है कि मायानगरी में पत्रकार खबर जुटाने की बजाए खुद खबर बन गया। बावजूद इसके किसी भी टीवी चैनल नें ज्योतिर्मय के परिवार के लोगों का इंटरव्यू नहीं लिया, सरकार पर तो दबाव डालना दूर की बात है। इन सभी घटनाओं को देख व महसूस कर यह बात साफ हो जाती है कि पत्रकारिता में आखिर खुदगर्जी कितनी हावी हो चुकी है, सही मायने में कहें तो पत्रकारों की संवेदना मर चुकी है। प्रिंट मीडिया जहां सबसे अधिक बिकने वाला अखबार बता कर पाठक की बजाए ग्राहक बनाने में जुटा है। वहीं इलेक्ट्रिोनिक मीडिया सबसे पहले आपको एक्सक्लूसिव बता कर खबरें दिखाने में, लेकिन उन्हें समझना चाहिए ये पब्लिक है सब जानती है।
यही सुन कर पत्रकारिता में आया था कि समाचार पत्र समाज का आईना होते हैं और पत्रकार कलम का सिपाही। सचमुच आज से 10-15 साल पहले तक यह सही भी था, लेकिन बीते कुछ सालों में जब से इलेक्ट्रिानिक मीडिया का चलन बढ़ा है, तब से पत्रकारिता की पूरी परिभाषा ही मानो बदल गई है। ऐसा नहीं है कि 15 साल पहले प्रबंधन या विज्ञापन विभाग से समाचार विभाग को कोई लेना-देना नहीं था। प्रबंधन, विज्ञापन और समाचार विभाग में गजब का तालमेल था और सभी विभाग अपनी-अपनी सीमा और मर्यादा को भली-भांति समझते थे, लेकिन इन सालों में संपादक कहने भर को रह गए हैं, सारा नियंत्रण प्रबंधन का है। यही कारण है कि संपादक न तो खुलकर अपने विचार प्रकट कर सकता है, न सटीक संपादकीय लिख सकता है और न ही अपने रिपोर्टर से खोजी व जोखिम भरी पत्रकारिता करने की सलाह या हुक्म दे सकता है। कुल मिलाकर इन दिनों बड़े घरानों के लिए अखबार निकालना, मंत्रालय व मंत्री स्तर पर अपनी पहुंच बनाने का जरिया बन गया है और पत्रकारों के लिए मात्र रोजी-रोटी का साधन। ऐसी विकट और दुखद स्थित में अब यह नहीं समझ में आ रहा है कि जान-जोखिम में डालकर खबर लाने वाले पत्रकारों में अब खुदगर्जी क्यों हावी होती जा रही है?
इनदिनों घट रही कुछ घटनाओं पर नजर दौड़ाने से पुख्ता तौर पर तो नहीं, हां मोटे तौर पर जरूर कुछ समझ पाया कि कभी समाज को सच्चाई से अवगत करने के उद्देश्य से खबर छापने वाले अखबार अब विज्ञापन पाने के लिहाज से खबर बनाते व प्रकाशित करते हैं। वहीं, समाचार एकत्रित करने के लिए पसीना बहाने वाला पत्रकार इन दिनों उपहार (गिफ्ट) हासिल करने में दिन-रात एक किए हुए है।
बाबा रामदेव और उनके समथर्कों को बर्बरतापूर्वक देश की राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान से पुलिस द्वारा खदेड़ना। दूसरी घटना कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी को एक पत्रकार का जूता दिखाना और तीसरी घटना मायानगर मुंबई में सरेआम एक पत्रकार को गोलियों से छलनी कर मौत के घाट उतारना।
पहले-पहल बाबा रामदेव के सत्याग्रह पर गौर करते हैं। बाबा ने काले धन का मामला उठाकर जैसे गुनाह कर डाला। केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार बाबा रामदेव के पीछे हाथ धो कर पड़ गई, उनकी संपत्ति से लेकर उनके इतिहास को खंगालने में जुट गई। मजबूर बाबा को दिल्ली के बजाए हरिद्वार जाना पड़ा। अनशन के दौरान वहां उनकी तबीयत बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया।
लेकिन अफसोस इस घटनाक्रम को जिस तरह से इलेक्ट्रिोनिक मीडिया ने दिखाया और प्रिंट मीडिया ने छापा उसने पत्रकारिता के पेशे पर सवालिया निशान लगा दिया, जिस बाबा को मीडिया ने ऊंचाई प्रदान की थी, टीआरपी के चक्कर में उसी मीडिया ने उन्हें नीचे गिरा दिया।
अब आते हैं कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्द्धन द्विवेदी की प्रेस कांफ्रेस में एक नामालूूम पत्रकार ने उन्हें जूता दिखा दिया, जिस पर उसकी जमकर पिटाई कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया। अगले दिन एक टीवी चैनल ने दिखाया कि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी उस पत्रकार को लात मारी और चैनलों को टीआरपी बढ़ाने का जुमला मिल गया। दुखद यह है कि उस पत्रकार से यह पूछने की बजाए कि उसने ऐसा कदम क्यों उठाया, इससे उलट मीडिया ने खबर को मसालेदार बनाने की भरसक कोशिश की।
आइए, अब बात करते हैं मुंबई में मिड डे से जुड़े क्राइम रिपोर्टर और अंडरवर्ल्ड पर दो बेहतरीन किताबें लिखने वाले ज्योतिर्मय डे की। कुछ अज्ञात लोगों ने उन्हें गोलियों से भून डाला। हैरानी की बात ये है कि मायानगरी में पत्रकार खबर जुटाने की बजाए खुद खबर बन गया। बावजूद इसके किसी भी टीवी चैनल नें ज्योतिर्मय के परिवार के लोगों का इंटरव्यू नहीं लिया, सरकार पर तो दबाव डालना दूर की बात है। इन सभी घटनाओं को देख व महसूस कर यह बात साफ हो जाती है कि पत्रकारिता में आखिर खुदगर्जी कितनी हावी हो चुकी है, सही मायने में कहें तो पत्रकारों की संवेदना मर चुकी है। प्रिंट मीडिया जहां सबसे अधिक बिकने वाला अखबार बता कर पाठक की बजाए ग्राहक बनाने में जुटा है। वहीं इलेक्ट्रिोनिक मीडिया सबसे पहले आपको एक्सक्लूसिव बता कर खबरें दिखाने में, लेकिन उन्हें समझना चाहिए ये पब्लिक है सब जानती है।