Wednesday, June 5, 2013

पत्रकारिता और खुदगर्जी

शंकर जालान
यही सुन कर पत्रकारिता में आया था कि समाचार पत्र समाज का आईना होते हैं और पत्रकार कलम का सिपाही। सचमुच आज से 10-15 साल पहले तक यह सही भी था, लेकिन बीते कुछ सालों में जब से इलेक्ट्रिानिक मीडिया का चलन बढ़ा है, तब से पत्रकारिता की पूरी परिभाषा ही मानो बदल गई है। ऐसा नहीं है कि 15 साल पहले प्रबंधन या विज्ञापन विभाग से समाचार विभाग को कोई लेना-देना नहीं था। प्रबंधन, विज्ञापन और समाचार विभाग में गजब का तालमेल था और सभी विभाग अपनी-अपनी सीमा और मर्यादा को भली-भांति समझते थे, लेकिन इन सालों में संपादक कहने भर को रह गए हैं, सारा नियंत्रण प्रबंधन का है। यही कारण है कि संपादक न तो खुलकर अपने विचार प्रकट कर सकता है, न सटीक संपादकीय लिख सकता है और न ही अपने रिपोर्टर से खोजी व जोखिम भरी पत्रकारिता करने की सलाह या हुक्म दे सकता है। कुल मिलाकर इन दिनों बड़े घरानों के लिए अखबार निकालना, मंत्रालय व मंत्री स्तर पर अपनी पहुंच बनाने का जरिया बन गया है और पत्रकारों के लिए मात्र रोजी-रोटी का साधन। ऐसी विकट और दुखद स्थित में अब यह नहीं समझ में आ रहा है कि जान-जोखिम में डालकर खबर लाने वाले पत्रकारों में अब खुदगर्जी क्यों हावी होती जा रही है?
इनदिनों घट रही कुछ घटनाओं पर नजर दौड़ाने से पुख्ता तौर पर तो नहीं, हां मोटे तौर पर जरूर कुछ समझ पाया कि कभी समाज को सच्चाई से अवगत करने के उद्देश्य से खबर छापने वाले अखबार अब विज्ञापन पाने के लिहाज से खबर बनाते व प्रकाशित करते हैं। वहीं, समाचार एकत्रित करने के लिए पसीना बहाने वाला पत्रकार इन दिनों उपहार (गिफ्ट) हासिल करने में दिन-रात एक किए हुए है।
बाबा रामदेव और उनके समथर्कों को बर्बरतापूर्वक देश की राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान से पुलिस द्वारा खदेड़ना। दूसरी घटना कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी को एक पत्रकार का जूता दिखाना और तीसरी घटना मायानगर मुंबई में सरेआम एक पत्रकार को गोलियों से छलनी कर मौत के घाट उतारना।
पहले-पहल बाबा रामदेव के सत्याग्रह पर गौर करते हैं। बाबा ने काले धन का मामला उठाकर जैसे गुनाह कर डाला। केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार बाबा रामदेव के पीछे हाथ धो कर पड़ गई, उनकी संपत्ति से लेकर उनके इतिहास को खंगालने में जुट गई। मजबूर बाबा को दिल्ली के बजाए हरिद्वार जाना पड़ा। अनशन के दौरान वहां उनकी तबीयत बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया।
लेकिन अफसोस इस घटनाक्रम को जिस तरह से इलेक्ट्रिोनिक मीडिया ने दिखाया और प्रिंट मीडिया ने छापा उसने पत्रकारिता के पेशे पर सवालिया निशान लगा दिया, जिस बाबा को मीडिया ने ऊंचाई प्रदान की थी, टीआरपी के चक्कर में उसी मीडिया ने उन्हें नीचे गिरा दिया।
अब आते हैं कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्द्धन द्विवेदी की प्रेस कांफ्रेस में एक नामालूूम पत्रकार ने उन्हें जूता दिखा दिया, जिस पर उसकी जमकर पिटाई कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया। अगले दिन एक टीवी चैनल ने दिखाया कि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी उस पत्रकार को लात मारी और चैनलों को टीआरपी बढ़ाने का जुमला मिल गया।  दुखद यह है कि उस पत्रकार से यह पूछने की बजाए कि उसने ऐसा कदम क्यों उठाया, इससे उलट मीडिया ने खबर को मसालेदार बनाने की भरसक कोशिश की।
आइए, अब बात करते हैं मुंबई में मिड डे से जुड़े क्राइम रिपोर्टर और अंडरवर्ल्ड पर दो बेहतरीन किताबें लिखने वाले ज्योतिर्मय डे की। कुछ अज्ञात लोगों ने उन्हें गोलियों से भून डाला। हैरानी की बात ये है कि मायानगरी में पत्रकार खबर जुटाने की बजाए खुद खबर बन गया। बावजूद इसके किसी भी टीवी चैनल नें ज्योतिर्मय के परिवार के लोगों का इंटरव्यू नहीं लिया, सरकार पर तो दबाव डालना दूर की बात है। इन सभी घटनाओं को देख व महसूस कर यह बात साफ हो जाती है कि पत्रकारिता में आखिर खुदगर्जी कितनी हावी हो चुकी है, सही मायने में कहें तो पत्रकारों की संवेदना मर चुकी है। प्रिंट मीडिया जहां सबसे अधिक बिकने वाला अखबार बता कर पाठक की बजाए ग्राहक बनाने में जुटा है। वहीं इलेक्ट्रिोनिक मीडिया सबसे पहले आपको एक्सक्लूसिव बता कर खबरें दिखाने में, लेकिन उन्हें समझना चाहिए ये पब्लिक है सब जानती है।

Monday, June 3, 2013

धूएं में उड़ा धूम्रपान विरोधी दिवस

शंकर जालान
विश्व धूम्रपान विरोधी दिवस (31 मई) को महानगर और आसपास के इलाकों में ऐसे कई नजारे देखने को मिले, जिसे देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि सिरगेरट-बीड़ी पीने के आदि लोग धूम्रपान विरोधी दिवस को नि:संकोच धुआं उड़ाते रहे। केंद्र व राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग के अलावा विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों की ओर से धूम्रपान के खिलाफ लोगों को आगाह करने के बावजूद लोग खुले आम धुआं उड़ाते देखे गए। शहर में धूम्रपान विरोधी दिवस के मद्देनजर कई कार्यक्रम आयोजित किए गए। कहीं संगोष्ठी, कहीं सभा तो कही रैली निकाली गई। इन कार्यक्रम में लोगों ने धूम्रपान को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताते हुए इसे जानलेवा कहा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट की ओर से धूम्रपान के खिलाफ जनजागरण अभियान चलाया गया। इस मौके पर कोलकाता के पुलिस आयुक्त आरके पचनंदा भी मौजूद थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन की सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में हर साल तंबाकू से 5.4 मिलियन लोगों की मौत होती है। वहीं, एएमआरआई अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक प्रसनजीत चटर्जी के मुताबिक धूम्रपान जानलेवा है। उन्होंने कहा कि 90 से 95 फीसद लोगों को सिगरेट की वजह कैंसर होता है। इस मौके पर डॉ. आशीष मुखर्जी ने कहा कि सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी प्रकाशित करने के बावजूद दिल्ली, मुंबई और चेन्नई के मुकाबले कोलकाता में सिगरेट पीने वालों की तादाद ज्यादा है। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में हर साल कैंसर के 75 हजार नए मरीज सामने आ रहे हैं।एक सर्वेक्षण के मुताबिक तमाम तरह की चेतावनी और सिगरेट के पैकेट पर छपी गंभीर फोटो के बाद भी सिगरेट पीने वालों की तादाद में गिरावट नहीं आ रही है और यह चिंता का विषय है। व्यस्क युवकों के अलावा इनदिनों महिलाओं व किशोर में भी सिगरेट पीने का चलन बढ़ा है। इस एक मात्र कारण खुलेआम सिगरेट-बीडी की बिक्री माना जा रहा है। कानूनत: दुकानदार 18 वर्ष से कम के आयु के किशोर को सिगरेट-बीड़ी नहीं बेच सकते, लेकिन न तो दुकानदार इस कानून को मान रहे हैं और न ही किशोर सिगरेट-बीड़ी खरीदने व पीने से बाज आ रहे हैं।विशेषज्ञों के मुताबिक शहरों में युवाओं में धूम्रपान की आदत में लगातार इजाफा हो रहा है। अब लड़कियां भी इसमें पीछे नहीं। धूम्रपान का यह शौक कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों का कारण भी बन रहा है। लगातार धूम्रपान करने वाली लड़कियों में गर्भावस्था में बच्चे में विकार पैदा होने की संभावना सबसे ज्यादा होती है। हुक्का पीना इन दिनों शहर के युवाओं का नया शगल बन गया है। चिकित्सकों के मुताबिक हुक्के के धुएं से सांस की बीमारी और दूसरी समस्या होना आम है। आधुनिक युग में रॉक म्यूजिक, रंग-बिरंगी रोशनी, गड़ाड़ाहट की आवाज के साथ उठता धुआं। ब्रेफिक बिंदास युवा पीढ़ी गम के साथ खुशियों को भी सिगरेट और हुक्के के धुएं में उड़ा रही है। अपने भविष्य से अनजान ये युवा हर कश के साथ अनचाही बीमारियों को न्यौता दे रहे हैं। दुखद यह है कि सिगरेट के धुएं को लड़कों के साथ लड़कियां भी बिंदास अंदाज में उड़ा रही है। विशेषज्ञों ने बताया कि छोटी उम्र में धूम्रपान की आदत गर्भावस्था के समय परेशानी का कारण बनती है। मां बनने के समय बच्चे में इस धूम्रपान का बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और बच्चे में कई विकार दिखते हैं।डॉक्टरों का कहना है कि धुआं किसी भी प्रकार से लिया जाए वह फेफड़ों के लिए नुकसानदायक होता है। इससे सांस की बीमारी, फेफड़े कमजोर होना, खांसी, दमा और इंफेक्शन का खतरा सबसे ज्यादा होता है। हुक्का में धुएं उड़ाने की आदत युवाओं को सिगरेट और दूसरे व्यसनों की ओर बढ़ाती है। सिगरेट और गुटखा से फेफड़ों का कैंसर और ओरल कैंसर होते हैं। धूम्रपान से हृदय गति और याददाश्त कमजोर होना जैसी समस्या भी हो रही है।

Sunday, May 27, 2012

कवि गुरू : याद और विवाद






शंकर जालान








नि:संदेह इसी बार 8 मई को कवि गुरू रवींद्र नाथ टैगोर का जन्मदिन अन्य सालों की तुलना में अधिक जगह और अधिक धूमधाम से मनाया गया, लेकिन कई वजह से यह विवादों में भी रहा। इस वर्ष रवींद्र नाथ टैगोर को विवादों के साथ याद किया गया। तृणमूल कांग्रेस शासित राज्य सरकार ने
अतीत की परंपरा को तोड़ते हुए इस बार किसी को भी रवींद्र पुरस्कार नहीं दिया, जो कई लोगों का नागवार गुजरा। मालूम हो कि प्रतिवर्ष पचीसे वैशाख यानी रवींद्रनाथ टैगोर की जयंती पर यह पुरस्कार साहित्य क्षेत्र के किसी विशिष्ट लोगों को दिया जाता रहा है, लेकिन ममता बनर्जी की सरकार ने इस बार रवींद्र पुरस्कार नहीं दिया। रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर साहित्य के इस बड़े पुरस्कार को अचानक बंद कर देने से कला, साहित्य व संस्कृति जगत के लोग काफी नाराज हैं। इस बात पर हैरत जताते हुए लोगों ने कहा कि सत्ता में आने के करीब एक साल के बाद भी नई सरकार को क्या साहित्य क्षेत्र की एक भी ऐसी विशिष्ट प्रतिभा नहीं मिली, जिसे रवींद्र पुरस्कार से नवाजा जा सके? बीते 60 साल से राज्य सरकार की तरफ से रवींद्र पुरस्कार दिया जाता है। 1950 से प्रतिवर्ष यह पुरस्कार रवींद्र जयंती के मौके पर प्रदान किया जा रहा है।1950 में पहला रवींद्र पुरस्कार सतीनाथ भादुड़ी व निहाररंजन राय को प्रदान किया गया था। उसके बाद परशुराम, ताराशंकर बंद्योपाध्याय, प्रेमचंद मित्र, आशापूर्णा देवी, विमल मित्र, सुशोभन सरकार, लीला मजुमदार, शंख घोष आदि को इस रवींद्र पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। वर्ष 2011 में यह पुरस्कार नोबेल जयी व विशिष्ट अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को दिया गया था। वहीं, राज्य सरकार की ओर से रवींद्र जयंती समारोह का आयोजन पारंपरिक स्थल और समय में किया गया बदलाव भी लोगों को रास नहीं आया।  रवींद्र जयंती समारोह का आयोजन रवींद्र सदन परिसर में न कर इसे परिवर्तित स्थान पर आयोजित करने के कदम पर लोगों ने भारी नाराजगी जताई। राज्य सरकार ने सुबह छह बजे के बदले दोपहर दो बजे एकाडेमी आॅफ फाइन आर्ट्स के सामने खुली सड़क पर रवींद्र जयंती समारोह आयोजित किया, जिसमें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत कई नेता व मंत्री व कलाकार भी उपस्थित रहे।
रवींद्र जयंती पर आज महानगर में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए। स्कूल, कालेज आदि शिक्षण संस्थानों समेत विभिन्न इलाकों में भी रवींद्र जयंती का पालन किया गया। कई जगह बच्चों व छात्रों ने जुलूस निकाला। इसके अलावा रवींद्र जयंती के मौके पर विभिन्न तरह के आयोजन भी हुए, जिसमें संगीत, काव्य-पाठ, आवृत्ति, रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन पर नाटकों का मंचन, प्रभात फेरी आदि प्रमुख थे। इसमें महिलाओं व स्कूली बच्चों ने रंग-बिरंगी पोशाकों में हिस्सा लिया। 
विशिष्ट रवींद्र संगीत गायिका पुरबी मुखोपाध्याय ने राज्य सरकार के फैसले पर विरोध जताते हुए कहा-‘पचीसे वैशाख’ पर सुबह होने वाले कार्यक्रम की हम उत्सुकता से इंतजार करते हैं। ऐसे पारंपरिक व सम्मानजनक समारोह के समय में परिवर्तन कर इसे दोपहर कर देने का कोई अर्थ समझ में नहीं आ रहा है। मशहूर वाचिक कलाकार गौरी घोष ने कहा-हम सरकारी फैसले का कड़ा विरोध करते हैं। 
एसएफआई के प्रदेश सचिव सायंनदीप मित्र व डीवाईएफआई के प्रदेश सचिव आबास रायचौधरी ने कहा कि प्रतिवर्ष राज्य सरकार की तरफ से रवींद्र जयंती पर रवींद्र सदन परिसर में कार्यक्रम का आयोजन किया जाता रहा है। उन्होंने कहा कि यह परंपरा पिछले चार दशक से भी ज्यादा समय से चल रही है। लेकिन इस बार राज्य सरकार ने यह आयोजन सुबह के बदले दोपहर दो बजे करने का निर्णय लिया है जो पूरी तरह परंपरा का उल्लंघन है। 
इधर, कुछ हलकों में राज्य सरकार के इस फैसले के पीछे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की दिनचर्या को मुख्य कारण बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री सुबह देर से सोकर उठती हैं। बाद में व्यायाम, स्नान व पूजा-पाठ करने में उनको काफी वक्त लग जाता है। ऐसे में रवींद्र जयंती के मौके पर सुबह के कार्यक्रम में वे हिस्सा नहीं ले सकतीं, लिहाजा इस बार सरकार की तरफ से रवींद्र जयंती समारोह का स्थान व समय बदल दिया गया है।
मालूम हो कि यह साल कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर की 150वीं जयंती का समापन वर्ष था। एक साल पहले यानी 2011 से 2012 के दौरान कोलकाता समेत पूरे राज्य में टैगोर की याद में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए। केंद्र सरकार ने रवींद्रनाथ टैगोर की 150वीं जयंती के समापन के मौके पर बोलपुर स्थित विश्वभारती के विकास के लिए 150 करोड़ रुपए मंजूर किया है। बांग्लादेश की विदेश मंत्री दीपू मोनी की मौजूदगी में आयोजित एक समारोह में केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इसकी घोषणा की। इस मौके पर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी उपस्थित थे। इसी समारोह में प्रतिवर्ष ‘टैगोर इंटरनेशनल’ सम्मान प्रदान करने की भी घोषणा की गई। इस बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कला व संस्कृति जगत में विशिष्ट योगदान के लिए मशहूर सितारवादक पंडित रविशंकर को यह सम्मान देने की घोषणा की गई। इस साल के अंत में एक समारोह में राष्ट्रपति उनको यह सम्मान प्रदान करेंगे।

हिलेरी-ममता वार्ता






शंकर जालान






अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिटंन ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात कर भले ही ममता बनर्जी का राजनीतिक कद बढ़ा दिया हो, लेकिन संविधान विशेषज्ञ इसे परंपरा का उल्लंघन मान रहे हैं। जहां संविधान विशेषज्ञ इसकी वैधता पर सवाल उठाने लगे हैं। इस पर बहस तेज हो गई है कि कोई राज्य कैसे किसी दूसरे देश की विदेश मंत्री से सीधी बात कर सकता है? वहीं, माकपा के दो शीर्ष नेताओं ने कड़ी आपत्ति जताई। इनमें राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट््टाचार्य व माकपा के राज्य सचिव विमान बसु प्रमुख हैं। दोनों नेताओं ने एक स्वर से हिलेरी क्लिंटन के साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुलाकात को लेकर आशंका जताई। माकपा नेताओं ने कहा कि  पश्चिम बंगाल में इसी विदेशी मेहमान की पसंद की सरकार सत्ता में आई है, इसीलिए वे (हिलेरी क्ंिलटन) यहां आई हैं। मालूम हो कि पिछले साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के समय अमेरिकी संस्था विकीलिक्स ने अपने एक खुलासे में भारत में अमेरिकी राजदूत के हवाले कहा था कि अमेरिका पश्चिम बंगाल में अपनी पसंद की सरकार स्थापित करना चाहता है। विकीलिक्स पर यह खुलासा 20 अप्रैल 2011 को हुआ था। साथ ही इसी खुलासे में यह भी कहा गया था कि 20 अक्तूबर 2009 को कोलकाता स्थित अमेरिकी कांसुल जनरल द्वारा भेजे एक संदेश में कहा गया था कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को भावी मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित करना होगा। माकपा नेताओं ने कड़े शब्दों में कहा कि भारत के अंदरुनी मामलों में अमेरिकी विदेश मंत्री के हस्तक्षेप को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जरूरी मुद्दों पर हिलेरी क्लिंटन को अगर कुछ कहना हो तो वे सीधे भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहनी चाहिए।  
माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने यह मामला ससंद में भी  उठाया। हिलेरी-ममता की मुलाकात के ठीक बाद येचुरी ने राज्यसभा में शून्यकाल के दौरान कहा कि केंद्र सरकार को इस पर तत्काल टिप्पणी करनी चाहिए। आखिर, ममता बनर्जी को किसी दूसरे देश की विदेश की मंत्री से सीधी वार्ता की इजाजत किसने दी। आमतौर पर भारतीय संविधान में ऐसी वार्ता की परंपरा नहीं है। यह पहला मौका है जब अमेरिका ने भारत के किसी राज्य सरकार से सीधी वार्ता की हो। संविधान के जानकार इसे भारत के आंतरिक मामलों में दखल करार दे रहे हैं। 
अमेरिकी विदेश मंत्री के दौरे पर एक पक्ष का यह भी कहना है कि आर्थिक तंगी से जूझ रहे पश्चिम बंगाल में अमेरिकी निवेश की संभावनाएं भी काफी बढ़ गई हैं।  लंबे अरसे बाद पहला मौका है जब किसी अमेरिकी विदेश मंत्री ने अपनी तीन दिवसीय भारत यात्रा के दो दिन कोलकाता में गुजारे हों और मुख्यमंत्री से मुलाकात की हो। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इससे साफ है कि अमेरिका ममता बनर्जी और उनकी सरकार को जरूरत से ज्यादा महत्व दे रहा है। तभी तो हिलेरी ने भारत की राजधानी नई दिल्ली से पहले कोलकाता का दौरा किया। अपने दो दिवसीय दौरे में हिलेरी ने भारतीय संस्कृति परिषद की ओर से आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिस्सा लिया। विक्टोरिया मेमोरियल देखने पहुंचीं।

एक साल की तृणमूल सरकार







शंकर जालान




कोलकाता। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार को बीते 20 मई को एक साल हो गया। एक साल यानी 365 दिनों के भीतर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कार्य पद्धति ज्यादातर लोगों को नागवार लगने लगी। मौटे तौर पर देखा जाए तो एक साल में ममता ने बातें ज्यादा की और उस तुलना में काम कम किया। ममता का बतौर मुख्यमंत्री पहला साल घोषनाओं का साल रहा। मुख्य विपक्षी दल माकपा तो क्या तृणमूल की सहयोगी कांग्रेस पार्टी भी ममता के अड़ियल रवैए से तंग आती दिखी। राज्य की जनता से जिस उम्मीद से ममता को राज सिंहासन (मुख्यमंत्री की गद्दी) पर बैठाया था, करीब-करीब वह काफूर होती दिखी। बीते साल 20 मई को राज भवन में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ममता वहां से पैदल अपने सरकारी कार्यालय (राइटर्स बिल्ंिडग) पहुंची थी। रास्ते भर उन्होंने लोगों का अभिवादन स्वीकार किया था और लोगों का लगा था कि सचमुच ममता कुछ करेगी, लेकिन एक साल में ही दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। ऐसा नहीं है कि इन 365 दिनों में ममता ने कुछ नहीं किया, लेकिन जनता को जो उम्मीद थी उस लिहाज से ममता द्वारा किया गया काम ऊंट के मुंह में जीरा की कहावत को चरितार्थ करता है। इन सब बातों के बीच ममता बनर्जी की कुछ उपलब्धियों को नदरअंदाज नहीं किया जा सकता। जैसे टाइम पत्रिका द्वारा ममता को दुनिया की सौ जानी-मानी हस्तियों में शुमार करना, अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की ममता से मुलाकात और प्रेस कौंसिल आॅफ इंडिया के चेयरमैन मार्कडेय काटजू का कोलकाता में ममता बनर्जी की तारीफों का पुल बांधने की घटना प्रमुख है। इन घटनाओं ने नि: संदेह ममता के राजनीति कद में इजाफा किया है, लेकिन ममता ने इन 12 महीनों के दौरान अपनी मनमर्जी से बगैर सोचे-विचारे जो फैसले लिए उनमें से कई फैसलों के लिए उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़ा। वैसे तो ममता के कई निर्णय राज्य की साधारण जनता के साथ-साथ बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों, पत्रकारों को गैर जरूरी लगे, लेकिन सरकारी अनुदानप्राप्त पुस्तकालयों में रखे जाने वाले समाचार-पत्रों पर सरकार का हस्तक्षेप और इमामों के लिए मासिक भत्ते की घोषणा ने न केवल ममता की मानसिकता को उजागर किया, बल्कि बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों को उनके (ममता) खिलाफ बोलने का मौका भी दे दिया।
कहना गलत न होगा कि वाममोर्चा को मन से उतारने में राज्य की जनता को 34 साल लग गए थे और जिस मन से राज्य की जनता ने तृणमूल कांग्रेस को जीत दिला कर ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया था। एक साल में ही ममता की आंखों में जनता के लिए वह ‘ममता’ नहीं दिख रही है, जिसकी उसे उम्मीद और आशा थी। दूसरे शब्दों में कहे तो ममता की ‘ममता’ राज्य की जनता से दूर होती जा रही है। राज्य के नाराज लोगों का कहना है कि ममता को जीतने के पीछे उनकी जो मंशा थी वह लगभग धरी की धरी रह गई। ममता के एक साल के कार्यकाल पर लोगों ने कहा- एक कहावत सुन रखी थी दूर का ढोल सुहावना लगता है। ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के एक साल के भीतर ही यह कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है।
ममता बनर्जी ने एक साल पहले 20 मई 2011 को पश्चिम बंगाल में 34 साल से सत्तासीन वाममोर्चा को हराने के बाद बतौर मुख्यमंत्री राइटर्स बिल्डिंग (राज्य सचिवालय) में कदम रखा था। उनकी इस जीत में बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों व कवियों द्वारा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के खिलाफ चलाए गए अभियान ‘परिवर्तन चाई’ (बदलाव चाहिए) का अहम योगदान रहा था। इन लोगों को सौ फीसद उम्मीद थी कि अग्निकन्या के नाम से चर्चित ममता बनर्जी राज्य की बदतर हालात को बदलेंगी और जड़ता की स्थिति को समाप्त कर राज्य की स्थिति में सुधार लाएंगी। वाममोर्चा के 34 सालों की तुलना में एक साल में ही इन लोगों की उम्मीदें धूमिल होती नजर आ रही हैं। मजे की बात तो यह है कि जिन बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट देने अपील की थी, उनमें से कुछ बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार को ‘फासीवादी’ तक कह दिया है।
बताते चले कि बनर्जी के खिलाफ आवाज उठाने वालों में लेखिका महाश्वेता देवी, शिक्षाविद् सुनंदा सान्याल, तरुण सान्याल, नाटककार कौशिक सेन, दक्षिणपंथी सुजात भद्रा हैं, जो कभी परिवर्तन चाई अभियान चलाने वालों की पहली कतार में खड़े थे। इस क्रम तृणमूल कांग्रेस के बागी सांसद और गायक कबीर सुमन के नाम को भी नहीं भूलाया जा सकता है।
परिवर्तन चाई अभियान की अगुवाई करने वाली लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी ममता के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली पहली शख्सियत थीं। बुद्धिजीवी कहते हैं कि कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। कानून-व्यवस्था और बिगड़ी है। बनर्जी आम आदमी की मुख्यमंत्री बनने के लिए क्षुद्र राजनीति से ऊपर नहीं उठ सकी हैं। यह निरंकुशता है, जो तानाशाही से एक कदम पीछे की स्थिति है।
एक कहावत है- बंगाल जो आज सोचता है, वह भारत कल सोचता है। सच है हर जगह यह कहावत सही नहीं हो सकती है, लेकिन यह कहना सही होगा कि बंगाल के बुद्धिजीवी जो आज सोचते हैं, बंगाल की बाकी जनता उसे अगले दिन सोचती है। बनर्जी के साथ जो लोग खड़े हैं वे भी   इस बात को अच्छी तरह समझते हैं और चिंतित हैं।
पार्क स्ट्रीट बलात्कार जिसे मुख्यमंत्री ने झूठा कहा था, कटवा बलात्कार कांड जिसे माकपा की साजिश करार दिया गया था, बनर्जी का मजाकिया चित्र भेजने के लिए यादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र की गिरफ्तारी और एक मामले में पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक पार्थ सारथि राय की गिरफ्तारी जैसी घटनाओं ने बुद्धिजीवियों और ममता बनर्जी के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है।
ममता को उनकी गलतियों का आइना दिखाने की जिम्मेदारी लेते हुए जब कुछ समाचार पत्रों ने उनके खिलाफ आलोचनात्मक नजरिया अपनाना शुरू किया, तो सरकार ने राज्य से सहायता प्राप्त पुस्तकालयों पर ऐसे समाचार पत्र खरीदने पर पाबंदी लगाने वाले विज्ञप्ति जारी कर दी।
सत्ता में आने के बाद सरकारी अस्पतालों के आपातकालीन वार्डों का औचक दौरा हो या ममता का राइटर्स बिल्डिंग से निकलने का समय हो। शुरू-शुरू में वे हमेशा रयल्टी शो की तरह कुछ निजी टीवी चैनलों पर छाई रहती थीं। यह वह दौर था जब बनर्जी सफलता के शिखर पर थीं और उनके लिए सब कुछ नया था। एक साल (2011 से 2012) के भीतर ही जनता को अचानक नई हकीकत का सामना करना पड़ रहा है।
ममता बनर्जी के संवाददाता सम्मलेन की कवरेज करने वाले पत्रकार जानते हैं कि वहां सवाल के लिए कोई जगह नहीं होती है और असहज करने वाले सवालों पर मुख्यमंत्री की कड़ी प्रतिक्रिया होती- आप माकपा के एजेंट हैं।
एक-डेढ़ साल पहले सामान्य से दो शब्द (1) बदलाव (2) चाहिए। जंगल की आग की तरह हर किसी तक पहुंच गए थे। जिसकी शुरुआत नंदीग्राम और सिंगुर से हुई थी। सिंगुर एक बार फिर सुर्खियों में है। सात साल पहले जमीन खोने वालों को विश्वास था कि उन्हें जमीन वापस मिलेगी। बनर्जी ने उन्हें यह भरोसा भी दिया था, लेकिन इस मामले का अभी तक हल नहीं निकल सका है।
ममता बनर्जी के अपनी ऐतिहासिक जीत के एक साल बाद अब भी किसी मुख्यमंत्री की बजाए सड़क पर जूझती, विपक्षी नेता की तरह ज्यादा व्यवहार कर रही हैं। ममता अब बावलेपन की मलिका या मनमौजी ममता हो गई हैं।

Sunday, May 13, 2012

फिर तृणमूल के सामने याचक की मुद्रा में कांग्रेस








शंकर जालान






कोलकाता। यह सही है कि 2009 से कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार में तृणमूल उसके (कांग्रेस) साथ है और 2011 में पश्चिम बंगाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भारी जीत अर्जित कर सत्तासीन होने वाली तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस है। कहने को तो कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में गठबंधन है, लेकिन व्यवहार में देखा जाए तो दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने या दबाने से कभी नहीं चूकते। लगभग हर मुद्दे पर कांग्रेस को ही तृणमूल कांग्रेस के सामने झुकना पड़ा है। ममता बनर्जी भले ही इसे अपनी जीत मानती हो, लेकिन राजनीति के पंडितों का कहना है कि ममता ने गठबंधन धर्म को ताक पर रख दिया है और अपनी मनमानी कर रही है। यह बात राजनीति के जानकारों के समझ में नहीं आ रही है कि आखिर कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व ममता की हर बात मान क्यों रहा है?
करीब तीन साल केंद्र में और बीते साढ़े ग्यारह महीनों ने पश्चिम बंगाल में ममता ने कांग्रेस से जो चाहा वहीं करवाया तो है ही मजे की बात यह है कि कई मुद्दों पर कांग्रेस को आड़े हाथों भी लिया है। अबकी बार भी दो बातों को लेकर कांग्रेस ममता के दरवाजे पर याचिका की मुद्रा में खड़ी दिख रही है। पहली बात राष्ट्रपति चुनाव की और दूसरी तिस्ता जल बंटवारे की।
कांग्रेस ने तिस्ता जल बंटवारे पर भारत-बांग्लादेश के बीच संधि में ऐन वक्त पर रोड़ा लगाने वालीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी को मनाने की कवायद नए सिरे से शुरू कर दी है। सूत्रों के मुताबिक आगामी कुछ दिनों में प्रधानमंत्री कार्यालय के कुछ अधिकारी तीस्ता जल के बंटवारे के फार्मूले में कुछ बदलाव की पेशकश के साथ ममता से मुलाकात कर सकते हैं। तीस्ता पर गतिरोध को तोड़ने के लिए बांग्लादेश और भारत के विदेश मंत्रियों की एक समिति भी बनाई है, जिसकी पहली बैठक नई दिल्ली में होने वाली है। तीस्ता पर किसी समझौते पर पहुंचने की ढाका की बेसब्री इसी बात से समझी जा सकती है कि निजी दौरे पर कोलकाता आईं बांग्लादेश की विदेश मंत्री दीपू मोनी इस मामले पर राय जाहिर करने से खुद को रोक न सकीं। उन्होंने अपने कोलकाता दौरे के दौरान पत्रकारों से कहा कि तीस्ता जल समझौते का महत्व सामरिक न होकर सामाजिक है। उनके शब्दों में दोंनों मुल्कों के लोग भावनात्मक तौर पर इससे जुड़े हैं, लिहाजा भारत सरकार को समय रहते इस पर निर्णय ले लेना चाहिए। हालांकि इस सिलसिले में उनकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात नहीं हो पाई थी।
दरअसल, भारत और बांग्लादेश के प्रधानमंत्रियों का मानना है कि दोनों देशों को तीस्ता का पानी आधा-आधा बांट लेना चाहिए। दस्तखत के लिए पेंडिंग पड़े संधि के ड्राफ्ट में भी यही बात है, लेकिन ममता तीस्ता के पानी का सिर्फ 25 फीसद बांग्लादेश को देना चाहती हैं।
उन्हें (ममता को) मनाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फरवरी में विदेश सचिव रंजन मथाई को कोलकाता भेजा था। दोनों की मुलाकात भी हुई, लेकिन ममता नहीं मानी। सूत्रोंं ने बताया कि प्रधानमंत्री कार्यालय के कुछ वरिष्ठ अधिकारी के मई के अंतिम सप्ताह में फिर से ममता बनर्जी से बात करेंगे। ताकि उन्हें तीस्ता जल बंटवारे में 60-40 के अनुपात पर मनाया जा सके। अगर ऐसा हुआ तो भारत तीस्ता का 40 फीसद पानी बांग्लादेश को देगा। हालांकि, ममता इस पर मानेंगी, इसको लेकर संशय है। पश्चिम बंगाल सचिवालय सूत्रों का कहना है कि ममता 70-30 का अनुपात चाहती हैं, लेकिन बांग्लादेश को यह मंजूर नहीं है। दोनों के बीच किसी समझौते पर पहुंचना केंद्र के लिए टेढ़ी खीर है।
दूसरी ओर देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा? यह अकेले कांग्रेस नहीं तय कर सकती, क्योंकि आंकड़ों के लिहाज से उसे घटक दलों के साथ-साथ कुछ अन्य दलों की रजामंदी भी चाहिए। इसलिए तीस्ता मुद्दे पर फिलहाल कांग्रेस ममता से पंगा लेने की स्थिति में नहीं दिखती, क्योंकि अपनी पसंद के व्यक्ति को राष्ट्रपति भवन भेजना कांग्रेस की पहली प्राथमिकता होगी और इस बात का पूरा-पूरा लाभ उठाने से ममता बनर्जी चूकने वाली नहीं दिखती।

Monday, May 7, 2012

जीपीओ में लगा खतों का अंबार






शंकर जालान





कोलकाता। भेजा गया खत गंतव्य स्थान तक नहीं पहुंचा या फिर मनी आर्डर से लगाया गया रुपया उनके घरवालों को नहीं मिला। लोग शिकायत करते रहते हैं कि भारतीय डाक के मार्फत पोस्ट किया गया पत्र या तो पहुंचा ही नहीं और अगर पहुंचा तो काफी विलंब से, जब उसका कोई मतलब नहीं रह गया। ठीक इसी तरह मनीआर्डर भी जरूरत के वक्त नहीं पहुंचता। इसे डाक विभाग की लापरवाही कहे या फिर पत्र और मनीआर्डर पाने वाले का दुर्भाग्य कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर यहीं कहा जा सकता है कि डाक विभाग के गैर जिम्मेदाराना रवैए के कारण ही निजी कुरियर कंपनियां फल-फूल रही हंै। लेकिन इससे भारतीय डाक विभाग के अधिकारियों व कमर्चारियों को कई फर्क नहीं पड़ता। पत्र, मनीआर्डर और पार्सल के बारे में पूछने पर वे टाल-मटोल सा उत्तर देते हैं। इन दिनों शॉटिंग मशीन की गड़बड़ी के कारण महानगर के मुख्य डाकघर (जीपीओ) में शहर से बाहर जाने वाली और बाहर से आईं खतों का अंबार लगा है, लेकिन अधिकारी कुछ बोलने को तैयार नहीं।
खत हो, मनीआर्डर हो या फिर पार्सल नहीं मिलने पर लोग डाकिए के खिलाफ शिकायत करते हैं। लोगों का मानना रहता है कि डाकिए ने उन्हें पत्र, मनीआर्डर या पार्सल देने में गफलत की है। लोगों की शिकायत लाजिमी भी है और स्वभाविक भी। लेकिन अगर डाकिए को आपका पत्र, मनीआर्डर या पार्सल मिले ही नहीं तो वह आपतक उसे कैसे पहुंचाएगा। इस बारे में उनका कहना है कि हमें डाकघर से जितने खत, मनीआर्डर और पार्सल मिलते हैं वे उसे समय पर सही लोगों के हाथों में पहुंचा देते हैं, बावजूद इसके कई बार उन्हें लोगों के कोप-भाजन का शिकार होना पड़ता है।
एक डाकिए न नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि ज्यादातर मामलों में डाकघर की गड़बड़ी के कारण खत गुम होते हैं, या फिर देर से पहुंचते हैं। इसके कारण का खुलासा करते हुए उन्हें कहा कि शॉटिंग मशीन की गड़बड़ी इसकी मुख्य वजह है। उन्होंने कहा कि बीते तीन-चार सप्ताह से जीपीओ में खतों का अंबार लगा है, क्योंकि वहां की स्पीड शॉटिंग मशीन ठीक से काम नहीं कर रही है। उन्होंने बताया कि बहुत कम लोग इस बारे में जानते हैं खतों को पोस्ट करने और उसे गंतव्य स्थान तक पहुंचाने में शॉटिंग मशीन की अहम भूमिका होती है। हमारा (डाकिए) काम तो बस स्थानीय डाकघर से मिले खतों को घर-घर पहुंचाना है। उनके मुताबिक जीपीओ में लाखों खतों का ढेर लगा है और इसी अनुपात में मनीआर्डर और पार्सल लंबित पड़े हैं।
इस बारे में जीपीओ के संबंधित विभाग के अधिकारियों का कहना है कि करीब दो महीने पहले खतों को इलाका (स्थानीय डाकघर) स्तर पर छांटने के लिए विदेश से स्पीड शॉटिंग नामक मशीन मंगवाई गई थी और लगभग एक महीने से वह काम नहीं कर रही है, लिहाजा यहां खतों का पहाड़ लग गया है। उन्होंने कहा कि कर्मचारियों के अभाव में हम यह काम मेन्यूवल भी नहीं करा पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि मशीन आने से पहले यहां खतों को छांटने का काम कर्मचारी ही करते थे, लेकिन मशीन आने के बाद मेन्यूवल छंटाई का काम बिल्कुल बंद हो गया और अब मशीन काम नहीं कर रही है, इसलिए यह समस्या खड़ी हो गई है। हालांकि इस बारे में जीपीओ के पोस्ट मास्टर ने कुछ भी बोलने से इंकार किया।
मालूम हो कि एक सौ करोड़ की लागत वाली इस विदेशी स्पीड शॉटिंग मशीन को जीपीओ में करीब दो महीने पहले लगाया गया था और बताया गया था कि इस मशीन के व्यवहार में आते ही खतों की छंटनी बहुत कम समय में हो जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, अलबत्ता जीपीओ में खतों का अंबार लग गया।