Tuesday, February 28, 2012

34 साल बनाम 34 सप्ताह

शंकर जालान



कोलकाता, माकपा की अगुवाई वाली वाममोर्चा सरकार को मन से उतारने में राज्य की जनता को 34 साल लग गए थे और जिस चाव से जनता ने तृणमूल कांग्रेस को जीत दिला कर ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया था 34 सप्ताह जाते न जाते अब उसी जनता की आंखों में ममता बनर्जी की वह ममता नहीं देख रही है, जिसकी उन्हें उम्मीद थी। दूसरे शब्दों में कहे तो ममता बनर्जी की ममता राज्य की जनता से दूर होती जा रही है। महानगर के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का कहना है कि ममता को जीताने के पीछे उनकी जो मंशा थी वह सब लगभग धरी की धरी रह गई। लोगों के मुताबिक उन लोगों ने एक कहावत सुन रखी थी- दूर का ढोल सुहावना लगता है। ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद लोगों को यह कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है।
आम लोगों या साधारण जनता की तो विसात ही क्या। ममता इन 34 सप्ताह में उसकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस, जिसकी अगुवाई में केंद्र की सरकार चल रही है और तृणमूल कांग्रेस जिसमें शरीक है के साथ कई मुद्दों पर टकरा चुकी हैं। इनमें ज्यादातर मुद्दों पर केंद्र सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा है। राज्य में कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद ममता बनर्जी ने जब से मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली तब से उन्हें उम्मीद ही नहीं, पूरा भरोसा था कि केंद्र सरकार हर स्तर पर उन्हें राजकाज चलाने में मदद करेगी। पर, उनकी उम्मीद पूरी नहीं हुई। विशेष आर्थिक पैकेज को लेकर सर्वप्रथम केंद्र के साथ विवाद शुरू हुआ था जो धीरे-धीरे गहराता चला गया। अगस्त में जब पेट्रोल की कीमत बढ़ी तो अचानक ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और अल्टीमेटम दे डाला कि यदि बढ़ी हुई कीमत वापस नहीं ली गई तो तृणमूल कांग्रेस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) से बाहर निकल आएगी। इसे लेकर कई दिनों तक राजनीतिक सरगर्मी तेज रही। इस मसले को जैसे-तैसे केंद्र सरकार ने सुलझा लिया। इसके तुरंत बाद बांग्लादेश से तिस्ता जल बंटवारे पर ममता ने मोर्चा खोल दिया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ तय ढाका दौरे पर जाने से मना कर दिया। जिस कारण वर्षों से विवादित तिस्ता समझौता आज भी अधर में है। भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर भी ममता ने विरोध किया और तीन बार केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश को कोलकाता आना पड़ा। इसके बाद खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) को बनर्जी ने जनविरोधी करार देते हुए केंद्र सरकार की खिलाफत शुरू कर दी और विरोध की वजह से केंद्र को पीछे हटना पड़ा। लोकपाल बिल के मसले पर लोकसभा में साथ देने के बावजूद राज्यसभा में लोकायुक्त के प्रावधान के मुद्दे पर ऐन वक्त पर पलटी मार दी और राज्यसभा में लोकपाल बिल लटक गया। कोयले के दर में बढ़ोतरी के मामले में भी केंद्र को ममता के दबाव के आगे झुकना पड़ा। अब एनसीटीसी को ममता ने मुद्दा बनाकर केंद्र सरकार के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है। इस मसले पर केंद्र सरकार बनर्जी के आगे झुकती है या नहीं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
राजनीति के जानकारों की मानें तो राज्य में सत्तासीन होने के बाद तृणमूल कांग्रेस शासित सरकार ने ताबड़तोड़ कई ऐसे एलान किए, जिसे किसी भी मायने में सही नहीं ठहराया जा सकता। कहने को तो राज्य में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की सरकार है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के अलावा जब तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों व विधायकों को कुछ बोलने की आजादी नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के विधायकों और नेताओं की हैसियत की क्या है? जानकार मानते हैं कि लोकतंत्र के लिए इसे शुभ नहीं माना जा सकता।
ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बने लगभग 34 सप्ताह हो गए हैं और कहना गलत नहीं होगा कि जो गलती वाममोर्चा ने 34 सालों के शासन के बाद की थी, लगभग वहीं भूल ममता महज 34 सप्ताह के दौरान कर रही हैं। माओवादी समस्या हो या गोरखालैंड का मसला या फिर जमीन अधिग्रहण की बात हो या राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल। हर क्षेत्र में राज्य सरकार की किरकिरी हुई है।

Saturday, February 25, 2012

घटक से दूरियां, विपक्ष से तनातनी

शंकर जालान


लोकप्रिय नेता होना अलग बात है और कुशल तरीके से शासन चलाना बिल्कुल अलग बात। इसमें कोई संदोह नहीं कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक लोकिप्रय नेता है, लेकिन यह कहना गलत होगा कि वे सफल शासक भी हैं। राज्य में ममता बनर्जी के आठ महीने के शासनकाल को देखते हुए कम से कम यही कहा जा सकता है। राजनीति में विरोधी दलों से तनातनी चलना तो लाजिमी हैं, लेकिन घटक दलों से दूरियां का ममता ने जो रिकार्ड कायम किया है वह बंगाल की क्या देश की राजनीति में अद्वितीय उदाहरण है।
ममता के अब तक के राज में कई ऐसे मौके हैं, जब विपक्ष तो विपक्ष तृणमूल की सहयोगी पार्टी कांग्रेस भी अजरच में पड़ गई। पर ममता है कि अपने आगे न किसी की सुनती है और न मानती हैं। ममता की यही नीति उसे कुशल शासक की उपाधि देने में बाधक सिद्ध हो रही है।
कहने को कहे या फिर फाइलों में राज्य में कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस की गठबंधन वाली सरकार है। इसी गठबंधन ने राज्य से ३४ सालों से सत्तासीन वाममोर्चा का हार का स्वाद चखाया था। कालक्रम में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के रिश्तों के बीच पैदा हुई तल्खी से दोनों दलों के बीच दूरी काफी बढ़ गई है। ममता कांग्रेस के साथ कुछ इस तरह दूरी बना कर चल रही है कि उन्हें रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के नेता दिनेश त्रिवेदी का कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी से मिलना तक नहीं पसंद नहीं आया। वहीं, कांग्रेस भी अब ममता बनर्जी के नखरे उठाने को कतई तैयार नहीं है। केंद्र में भले ही मजबूरन दोनों दल गठबंधन में हों और राज्य में कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के साथ सरकार में शामिल हो, लेकिन दोनों दलों के रिश्तों के बीच आई कटुता के चलते अब दोनों पार्टियां पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव अलग-अलग लडऩे का मन बना चुकी हैं।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि बात चाहे पश्चिम बंगाल की हो, या पेट्रोल की कीमतें बढऩे की हो या फिर खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मुद्दा हो या फिर लोकयुक्त की नियुक्ति का मामला, इन सभी मामलों में ममता ने कांग्रेस को परेशान किया है। कोलकता स्थित इंदिरा भवन का नाम बदलने को लेकर भी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच तनाव पैदा हुआ। कांग्रेस को अब यह तेजी से महसूस होने लगा है जहां-जहां कांग्रेस और सरकार की साख का सवाल पैदा हुआ ममता ने जानबूझ कर अपने तेवर कड़े किए। राहुल से दिनेश त्रिवेदी की मुलाकात को लेकर ममता बनर्जी की आपत्तियों पर भी कांग्रेस अनावश्यक मान रही है और पार्टी नेता मानते हैं कि इस मुलाकात को ममता को तूल नहीं देना चाहिए। नया बखेड़ा पश्चिम बंगाल के बजट को लेकर खड़ा हुआ है। बजट को लेकर राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी के बीच वाक्युद्ध शुरू हो गया। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी ने कहा है कि राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा गलत बयानबाजी कर रहे हैं। मई से लेकर फरवरी तक में राज्य को अब तक २३ हजार करोड़ रूपए दिए जा चुके हैं। मित्रा कह रहे हैं कि केंद्र सरकार ने अब तक राज्य सरकार को कोई सहायता नहीं दी है। तृणमूल व कांग्रेस के बीच बढ़ती दूरियां, दोनों दलों के नेताओं के एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन अधिक दिनों तक चलने वाला नहीं है। कांग्रेस केवल पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार कर रही हैं, ज्यों ही विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित होंगे, काग्रेस भी कम से कम एक बार तृणमूल को उसकी औकात और ताकत जरूर बताएंगी।
दूसरी ओर, विधानसभा सत्र नहीं चलने के दौरान विधानसभा परिसर में संवाददाता सम्मेलन पर रोक लगाने के निर्णय सरकार और विपक्ष के बीच तनातनी बढ़ गई है। इस मुद्दे पर राज्य की राजनीति गरमाने लगी है। बीते दिनों को पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्रा विधानसभा अध्यक्ष विमान बंद्योपाध्याय को पत्र लिखकर इसका विरोध किया। उन्होंने पत्र में उल्लेख किया है कि विधानसभा अध्यक्ष अपने फैसले पर पुनर्विचार नहीं किया तो इस मुद्दे पर आगामी दिनों तक राजनीतिक गहमागहमी के आसार हैं। विपक्ष ने इसे सरकार के खिलाफ मुद्दा बनाकर आंदोलन पर उतरने के संकेत दिए हैं। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष ने कहा है कि विपक्ष के नेता का पत्र मिला है। जरूरत पड़ने पर सभी दलों के साथ इस मुद्दे पर बैठक करेंगे। विधानसभा अध्यक्ष ने यह भी दलील पेश की है कि सत्र नहीं चलने के दौरान सिर्फ विपक्ष के नेता के संवाददाता सम्मेलन करने पर रोक नहीं लगायी गयी है। कुछ अहम कारणों से सभी दलों पर इस मामले में एक समान नियम लागू करने का निर्णय किया गया है। विधानसभा सत्र चलने के दौरान सभी राजनीतिक दलों के नेता मीडिया सेंटर में संवाददाता सम्मेलन करने को स्वतंत्र हैं। विधानसभा अध्यक्ष ने कहा है कि इस संबंध में बातचीत का विकल्प खुला हुआ है लेकिन वह सबके लिए एक समान नियम लागू करना चाहते हैं।
वहीं, राज्य के खेल मंत्री मदन मित्रा ने शुक्रवार से बातचीत करते हुए विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को जायज ठहराते हुए कहा कि विधानसभा में विपक्ष के नेता जब भी संवाददाता सम्मेलन करते हैं, उसमें राजनीतिक मुद्दा ही प्रभावी रहता है। विस से जुड़े विषय पर वे कम ही बोलते हैं। मित्रा ने कहा कि शुद्ध राजनीतिक बयान जारी करना है तो विपक्ष के नेता को पार्टी कार्यालय में बैठकर संवाददाता सम्मेलन करना चाहिए। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हाशिम अब्दुल हलीम मित्रा के बयान से सहमत नहीं हैं। हलीम ने विधासभा स्थित मीडिया सेंटर में संवाददाता सम्मेलन पर रोक को अपराध की संज्ञा दी है। उन्होंने कहा कि विधानसभा राजनीतिक जगह है। सभी राजनीतिक दलों के नेता वहां निर्वाचित होकर पहुंचते हैं और राजनीतिक बहस में भाग लेते हैं। विधानसभा राजनीतिक बात कहने की ही जगह है, न कि गुल्ली-डंडा खेलने की।
कांग्रेस विधायक असित माल ने शुक्रवार से कहा कि विधानसभा के मीडिया सेंटर में संवाददाता सम्मेलन पर रोक लगाना उचित नहीं है। इस संबंध में कांग्रेस विधायक दल की बैठक में चर्चा होगी और जरूरत पड़ने पर स्पीकर से बातचीत की जाएगी।
मालूम हो कि विधानसभा अध्यक्ष विमान बंद्योपाध्याय ने सत्र नहीं चलने के दौरान मीडिया सेंटर में किसी भी राजनीतिक दल के नेता के संवाददाता सम्मेलन करने पर प्रतिबंध लगा दिया है और इस संबंध में सभी राजनीतिक पार्टियों के विधायक दल के नेता को सर्कुलर भेजा है।

Thursday, February 2, 2012

धार्मिक होने के मतलब किसी धर्म से पक्षपात कतई नहीं : स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती

वर्तमान समय में देश कई समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं का समाधान तभी संभव है, जब धर्म को ध्यान अथवा जेहन में रख कर राज यानी राजनीति की जाए। यह कथन है द्वारका पीठ के जगद्गुरू स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती महाराज का। स्वामीजी ने अपने कोलकाता प्रवास के दौरान शंकर जालान से लंबी बातचीत करते हुए कहा कि धार्मिक होने का मतलब किसी धर्म से पक्षपात करना कतई नहीं है। सही अर्थों में धर्म निरपेक्षता ही धर्म है। पेश ही महाराजश्री से हुई बातचीत के चुनिंदा अंश



-- महाराज जी, आप धर्म गुरू है, इसीलिए पहला प्रश्न धर्म से संबंधित कर रहा हूं, धर्म की सटीक परिभाषा क्या है?
00 धर्म की सटीक परिभाषा है वह कर्म जिससे किसी को नुकसान न हो, कोई आहात न हो। सही मायने में धर्म उसे ही कहा जा सकता है, जो खुद को शांति और दूसरे को सुख प्रदान करे।

-- संत और संन्यासी में क्या फर्क है?
00 मूल रूप से तो कोई फर्क नहीं है। दोनों को त्यागी और परोपकारी होना चाहिए। यहां यह कह सकते हैं कि संन्यासी बनने के लिए संन्यास आश्रम का आश्रय लेना जरूरी है, जबकि व्यक्ति गृहस्थ होते हुए भी संत हो सकता है।

--संत, महात्मा और संन्यासियों का मुख्य कार्य क्या होना चाहिए?
00 इन सभी का काम और पहला कर्तव्य है मानव मात्र की रक्षा। इसके अलावा लोगों को अपनी धर्म-संस्कृति से अवगत कराना, देश प्रेम की भावना जागृति करना जैसे कामों को दूसरे और तीसरे क्रम में रखा जा सकता है।

-- क्या साधु समाज के लोग अपनी जिम्मेवारी ठीक तरह से निभा रहे हैं या दूसरे शब्दों में कहे तो समाज को उचित अथवा धर्म की राह दिखा रहे हैं?
00 यह बहुत जटिल सवाल कर लिया आपने। आपको बता दें कि साधुओं का कोई समाज नहीं है। जो व्यक्ति घर-द्वार, माता-पिता, भाई-बहन और रिश्ते-नाते को छोड़कर साधु बनता है वह फिर से समाज के घेरे में क्यों बंधना चाहेगा। साधु का व्यवहार ही लोगों को धर्म की राह दिखा देता है, इसके लिए उन्हें अलग से विशेष कुछ करने की जरूरत नहीं होती। जो साधु आडंबर की आड़ में धर्म को बढ़ावा देने की वकालत करते हैं, वे लोगों को धोखा देने के साथ-साथ कहीं न कहीं अपनी जिम्मेवारी से भटक गए हैं।

-- धर्म में दिखावा बढ़ गया है इसका कारण क्या है और इसे कैसे रोका जा सकता है?
00 धर्म में दिखावा नहीं होना चाहिए और ऐसा मंजर तभी देखने को मिलता है जब व्यक्ति धर्मिक आयोजन को स्वार्थसिद्धि के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है। इसे तभी रोका जा सकता है, जब जनता आडंबर वाले धार्मिक आयोजनों में जाने से परहेज करे।

-- सुना जाता है कि संन्यासी होना सहज है, लेकिन वैरागी होना बेहद कठिन ऐसा क्यों?
00 बिल्कुल सही सुना है आपने। संन्यास आश्रम में रहने वाले को संन्यासी कहा जा सकता है। वैरागी होना सहज नहीं है। मोह-माया, मान-सम्मान, स्वाद-बेस्वाद, लाभ-हानि पर विचलित न होना ही वैरागी होने के लक्षण हैं।

-- धर्म और राजनीति का क्या संबंध है?
00 बहुत गहरा संबंध है। व्यक्ति धर्म के मुताबिक जीवन-यापन करे और इसे ही ध्यान में रखकर राजनीति। राजनीति का अर्थ है राज की नीति। यदि राजा धर्म से नियंत्रित होगा तो राजनीति स्वत: धर्म से नियंत्रित हो जाएगी। कुछ लोग धर्म को राजनीति से अलग करने का स्वार्थपूर्ण अभियान चला रहे हैं, ताकि धर्म उनकी राह में बाधक न बने।
-- क्या धार्मिक रहते हुए धर्म निरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता?
00 बिल्कुल हुआ जा सता है। धार्मिक होने का अर्थ किसी धर्म से पक्षपात करना नहीं है। धर्म निरपेक्षता ही धर्म है। जहां तक हिंदू धर्म की बात है वह अत्यंत वैज्ञानिक है, इसमें किसी से विरोध नहीं है।

-- स्वामीजी पाप क्या है और पुण्य क्या है?
00 जब मनुष्य कोई कर्म करता है तो उसका फल कुछ समय बाद प्राप्त होता है। यदि फल के रूप में संस्कार मिले तो वह पुण्य है और दुराचार मिले तो वह पाप है।

-- सनातन धर्म में धर्म गुरूओं की भरमार है, बावजूद इसके समाज में असंतोष बढ़ता जा रहा है इसका क्या कारण है?
00 इसका मूल कारण है कुछ धर्म गुरू अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति से जुड़े हैं। वे जो कहते हैं उसे प्रवचन नहीं, भाषण कहा जाना चाहिए। जब तक प्रवचन की जगह भाषण पिलाया जाएगा, समाज में असंतोष बढ़ता है रहेगा।

--ईसाई धर्म के सर्वोच्च गुरू पोप की बात विश्व का समस्त ईसाई समुदाय और हमारे हिंदू धर्मावलंबी भी न केवल ध्यान से सुनते है, बल्कि अमल भी करते देखे गए हैं। पर हमारे धर्मगुरूओं की बात पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, इसका क्या कारण है ?
00 पोप की बात पर भी अमल नहीं होता। समय-समय पर उन्होंने युद्ध विरोधी बयान दिए हैं, क्या युद्ध रुका। जो हमें दिखता है वह पश्चिमी प्रचार तंत्र पर हमारी निर्भरता है और उनके प्रचार का सही तरीका।

-- पश्चिमी देशों में और अपने देश के पश्चिमपंथियों में आजकल दक्षिणपंथी कट््टरवाद की बहस छिड़ी हुई है। यह प्रकारांतर से हिंदू धर्म पर हमला है। आप क्या कहेंगे?
00 पहली बात तो यह है कि दक्षिणपंथी का जो कट््टरवाद है वह हिंदुत्व से परे है। जो हिंदू धर्म को इससे जोड़ते हैं वे इसे खत्म करना चाहते हैं। कहने का अर्थ है कि हिंदू कभी कट््टरपंथी नहीं हो सकता।

-- एक दिवसीय धार्मिक आयोजनों में लाखों रुपए खर्च करना क्या तर्कसंगत है?
00 मोटे तौर पर तो इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी लोग भाव से ऐसा करते हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन दिखावा या प्रभाव जमाने के लिए ऐसा करना बिल्कुल गलत है।

-- बाबा रामदेव प्रकरण पर आपकी क्या राय है?
00 बाबा रामदेव का तरीका बिल्कुल गलत है। मुझे कहीं न कहीं इसमें भाजपा और आरएसएस के हाथ होने की बू आ रही है। रामलीला मैदान में जो हुआ वह साधुओं के लिए शर्म की बात है। इसके लिए सीधे तौर पर रामदेव दोषी हैं। लोगों को यह समझ में आ गया है कि राष्ट्र के लिए नहीं निजी महत्वकांक्षा के लिए रामदेव यह सब कर रहे हैं। देखिए, रामदेव विदेशों में जमा काला धन स्वदेश लाने की बात कर रहे हैं और उसे सरकारी संपत्ति घोषित करने की मांग भी। साथ ही वे यह आरोप भी की सरकार भ्रष्ट है। वे देश की समृद्धि की वकालत कर रहे हैं तो उन्हें पता होना चाहिए कि धन वापस लाने से देश समृद्धि नहीं होगा। देश तभी समृद्धि होगा जब लोग कठोर परिश्रमी, अनुशासनशील और ईमानदार होगें।

-- क्या आप अण्णा हजारे की मांग से सहमत हैं?
00 जहां तक अन्ना की बात है उनका तरीका और उनकी मांग रामदेव से कुछ भिन्न है। उनकी मांग पर भले ही असहमति जताई जा सकती है, लेकिन तरीके को गलत नहीं कहा जा सकता। रही बात भ्रष्टाचार की तो अन्ना की टीम में कई लोग हैं जो घेरे में हैं। अन्ना को देश को ठीक करने से पहले अपने घर यानी टीम में सुधार करना चाहिए।

-- कहते हैं जब-जब अधर्म बढ़ता है परमात्मा अवतार लेते हैं, भारत में भ्रष्टाचार रूपी अधर्म बढ़ रहा है क्या निकट भविष्य पर किसी चमत्कार की उम्मीद है?
00 धर्म विरोधी लोग हर युग में रहे हैं और अधर्म भी करते रहे हैं। बावजूद इसके धर्म सदियों से जीतता आया है। रावण (अधर्म) को राम (धर्म) ने मारा। इसी तरह कंश (अधर्म) का वध कृष्ण (धर्म) ने किया। निश्चित तौर पर रावण और कंश जैसे अधर्मी लोगों की तादाद बढ़ेगी, तो कोई ना कोई राम या कृष्ण के रूप में अवश्य इस धरती पर आएगा।

-- करीब छह साल बाद भाजपा में लौटी उमा भारती ने गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने का अभियान छेड़ रखा है, क्या उन्हें सफलता मिलेगी?
00 कुछ पाने की तमन्ना से किए जा रहे काम को जनहितकारी नहीं कहा जा सकता। उमा भारती ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जो अभियान छेड़ा है। वह राजनीति लाभ के लिए है। आपको बता दूं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की मांग सर्वप्रथम मैंने की थी। मैं तहे दिल से चाहता हूं कि गंगा प्रदूषण मुक्त हो। उमा भारती मेरे मुद्दे को राजनीति लाभ के लिए इस्तेमाल कर रही है।

-- सुना है मिशन पूरा न होने तक उन्होंने (उमा) मालपुआ न खाने का प्रण लिया है, क्या यह ठीक है?
00 कौन देखने जाता है। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता।

-- यह सच्चाई है कि पढ़ी अधिक रामायण जाती है, लेकिन समाज में अधिक प्रभाव महाभाारत का दिख रहा है, ऐसा क्यों?
00 क्योंकि लोग रामायण केवल पढ़ते हैं, उसका मनन नहीं करते।

राज्यपाल व मुख्यमंत्री में टकराव

शंकर जालान



राज्य में राज्यपाल एमके नारायणन और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच टकराव के संकेत मिल रहे हैं। बीते दिनों किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को लेकर मुख्यमंत्री बनर्जी और राज्यपाल नारायणन के बीच मतैक्य सामने आया है। अब तक कमोबेश हर मुद्दे पर ममता बनर्जी के साथ खड़े नजर आए नारायणन ने इस मुद्दे पर टकराव के अंदाज में कहा- कर्ज के भार से दबे हुए किसान आत्महत्या कर रहे हैं। राज्य सरकार को चाहिए कि वह केन्द्र के साथ मिलकर हल तलाशे। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एकाधिक बार किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को अनदेखा करते हुए कह चुकी हैं, आत्महत्या करने वाले या तो किसान नहीं थे या फिर पारिवारिक कारणों से उन लोगों ने जान दी। इससे पहले कॉलेजों में छात्र संगठनों के कार्यकर्ताओं के बीच संघर्ष और अस्पतालों में शिशुओं की मौतों को लेकर राज्यपाल चिंता जता चुके हैं, लेकिन कोई मतैक्य सामने नहीं आया था। दोनों ही दफा राज्यपाल ने दुख जताते हुए प्रशासन को जरूरी उपाय करने का सुझाव दिया था। लेकिन किसानों की मौतों को लेकर उन्होंने सीधे तौर पर केन्द्रीय हस्तक्षेप की जरूरत मानी है। उन्होंने प्रधानमंत्री को राज्य में किसानों की मौतों को लेकर एक रिपोर्ट भी भेजी है। राज्यपाल का मानना है कि आत्महत्या करने वाले किसान कर्ज में डूबे हुए थे और फसल की बिक्री न होने से परेशान थे। उनके परिवार जन अनाहार को मजबूर थे। पिछले दो महीनों में दो दर्जन से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। इनमें 17 किसान बर्दवान जिले के हैं। मालूम बो कि बर्दवान जिले को बंगाल का चावल भंडार कहा जाता है। मालदा, बांकुड़ा, हुगली और जलपाईगुड़ी में भी आत्महत्या की घटनाएं हुई हैं। जलपाईगुड़ी में चाय बागानों के बंद होने के चलते बेरोजगारी की स्थिति है। हालांकि, सभी मौतों की वजह निजी और पारिवारिक बताकर मुख्यमंत्री ने पल्ला झाडऩे की कोशिश की है। ऐसे में राज्यपाल के ताजा कदम से कांग्रेस और वामपंथी दलों के ममता बनर्जी विरोधी अभियान को बल मिला है। कांग्रेस भी वामपंथी दलों की तर्ज पर राज्य में सड़कों पर उतर चुकी है।