Friday, June 26, 2009

वंदेमातरम स्वतंत्रता सेनानियों का कंठहार

देश के आजादी आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों का कंठहार बनी बांग्ला रचनाकार बंकिमचंद चटर्जी की कालजई रचना 'वंदेमातरम' बेहद सामान्य परिस्थितियों में पहली बार प्रकाशित हुई थी और उस समय शायद इसके लेखक को भी यह अनुमान न होगा कि आने वाले दिनों में यह गीत एक मंत्र की तरह सारे देश में गूंजेगा। वंदेमातरम के प्रकाशन का एक दिलचस्प इतिहास है।

बंकिम एक पत्रिका 'बंगदर्शन' निकालते थे और इसकी अधिकतर रचनाएं वह स्वयं ही लिखते थे। एक बार पत्रिका छपने के समय कंपोजीटर बंकिम के पास आया और कहा कि उसे थोड़े से बचे स्थान के लिए कुछ सामग्री चाहिए। बंकिम ने अपनी दराज खोली और सामने पड़ा अपना गीत वंदेमातरम का एक अंश छपने को दे दिया। यह घटना 1875 की है। यह जानकारी अमलेश भट्टाचार्य की पुस्तक 'वंदेमातरम' में दी गई है। इस तरह पहली बार वंदेमातरम गीत छपा। जाहिर सी बात है लोगों की नजर में उस समय यह गीत नहीं चढ़ा। बाद में बंकिम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को जब शामिल किया तो लोगों ने इसे गौर से पढ़ा। आनंदमठ में छपने के बाद बंकिम को अपनी इस रचना की प्रभावोत्पादकता का कुछ-कुछ अनुमान तो होने लगा था, लेकिन उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं थी कि आने वाले दिनों में यह रचना जादुई असर करेगी और महान रचना के रूप में इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज होगी। वर्ष 1886 में कोलकाता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार वंदेमातरम गाया गया था।

बंकिम की मृत्यु के दो साल बाद 1896 में कोलकाता में ही आयोजित कांग्रेस के एक अन्य अधिवेशन में स्वयं गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया था। स्वतंत्रता प्रेमियों में उत्साह का संचार करने वाली इस रचना का वास्तविक उत्कर्ष 1905 के बंगाल विभाजन के दौरान हुआ। वंदेमातरम जब पूरे देश में आजादी का नारा फूंकने वाला मंत्र बना तो उस समय बंकिम जीवित नहीं थे।

आजादी के बाद भारत में इसे राष्ट्रगीत का गौरव हासिल हुआ। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के बांग्ला विभाग में रीडर पी के मैती के अनुसार वंदेमातरम बंकिम की सर्वाधिक लोकप्रिय कृति है जो विभिन्न कारणों से आजादी का नारा बन गई। मैती ने कहा कि बांग्ला में सिर्फ बंकिम और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएं हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती है। लोकप्रियता के मामले में बंकिम और शरद रविन्द्र नाथ टैगोर से भी आगे हैं। उन्होंने कहा कि बंकिम बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनाकार थे। उनके कथा साहित्य के अधिकतर पात्र शहरी मध्यम वर्ग के लोग हैं। इनके पात्र आधुनिक जीवन की त्रासदियों और प्राचीन काल की परंपराओं से जुड़ी दिक्कतों से साथ साथ जूझते हैं। यह समस्या भारत भर के किसी भी प्रांत के शहरी मध्यम वर्ग के समक्ष आती है। लिहाजा मध्यम वर्ग का पाठक बंकिम के उपन्यासों में अपनी छवि देखता है।

बंकिमचंद्र चटर्जी की पहचान बांग्ला कवि, उपन्यासकार, लेखक और पत्रकार के रूप में है। चटर्जी का जन्म 26 जून 1838 को एक रूढि़वादी परिवार में हुआ था। आठ अप्रैल 1894 को उनका निधन हो गया था। बंकिमचंद्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना राजमोहन्स वाइफ थी। इसकी रचना अंग्रेजी में की गई थी। बांग्ला में प्रकाशित उनकी प्रथम रचना दुर्गेश नंदिनी [1865] थी, जो एक रूमानी रचना है। उनकी अगली रचना का नाम कपालकुंडला [1866] है। इसे उनकी सबसे अधिक रूमानी रचनाओं में से एक माना जाता है। उन्होंने 1872 में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने विषवृक्ष [1873] उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया। कृष्णकांतेर विल में चटर्जी ने अंग्रेजी शासकों पर तीखा व्यंग्य किया है।

आनंदमठ राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के संन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। चटर्जी का अंतिम उपन्यास सीताराम [1886] है। इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया गया है। उनके अन्य उपन्यासों में दुर्गेशनंदिनी, मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर दफ्तर, देवी चौधरानी और मोचीराम गौरेर जीवनचरित शामिल है। उनकी कविताएं ललिता ओ मानस नामक संग्रह में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसामायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे।

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जूट उद्योग गुमनामी के कगार पर, बजट से आस

कोलकाता। जूट ईकोफ्रेंडली होने का साथ-साथ आजकल फैशन में भी है। फिर भी जूट इंडस्ट्री मंदी की आगोश में है। लोग जूट के बने ड्रेस, जूट के खिलौने, जूट का बैग, जूट के पर्दे और न जाने क्या-क्या इस्तेमाल करते हैं।दुनिया भर में मशहूर कोलकाता की जूट इंडस्ट्री आज बर्बादी की कगार पर है।


दुनिया भर में मशहूर कोलकाता की जूट इंडस्ट्री आज बर्बादी की कगार पर है। कभी चांदी काटने वाले यहां के जूट व्यापारियों और मजदूरों के सामने आज रोजी-रोटी के लाले हैं। ये इंडस्ट्री आज अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही है। पिछले तीन सालों में जूट की हर एक मिल को करीब 25 से 50 लाख का घाटा हो चुका है।


दरअसल कच्चे जूट की कीमत में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। जिसकी वजह से जूट से बने सामानों की लागत ज्यादा हो गई है और मांग में कमी आई है। जानकारों की मानें तो साल भर में कच्चे जूट की कीमत 60 फीसदी तक बढ़ गई है। बाकी का कसर सूखे और आर्थिक मंदी ने पूरी कर दी।


जूट इंडस्ट्री की दुर्दशा के लिए अकेले मंदी ही नहीं बल्कि लोगों की बदलती लाइफस्टाइल भी जिम्मेदार है। लोग जूट की जगह प्लास्टिक बैग को ज्यादा तरजीह देते हैं। एक तो प्लास्टिक के बैग जूट के मुकाबले सस्ते हैं और देश के हर कोने में आसानी से उपलब्ध हैं। यही वजह है कि सीमेंट और फर्टिलाइजर की तर्ज पर दूसरी इंडस्ट्रीज़ भी जूट की जगह प्लास्टिक बैग का धड़ल्ले से इस्तेमाल करती हैं। पिछले साल के मुकाबले इस साल जूट की गैर सरकारी खरीददारी करीब 30 फीसदी घटी है।


कोलकाता में जूट की कई फैक्ट्रियां बंद हो चुकी हैं। सालों पुराना कारोबार मंदी की भेंट चढ़ रहा है। लेकिन कारोबारियों की उम्मीद बरकरार है। वो चाहते हैं कि सरकार कुछ दिनों के लिए जूट की फॉर्वर्ड मार्केट में ट्रेडिंग करके उनके व्यापार को बचा ले। साथ ही जूट इंडस्ट्री की अब आने वाले बजट पर आस टिकी है।

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Saturday, June 20, 2009

कोलकाता का मशहूर काली मंदिर

कोलकाता। यहां दक्षिणेश्वर काली मंदिर है। इस मंदिर से नाता है विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस का।
इस मंदिर में देश के कोने-कोने से लोग आते हैं। लंबी-लंबी कतारों में घंटो खड़े होकर मां के दर्शन का इंतजार करते हैं।
इसी मंदिर में रामकृष्ण परमहंस को दक्षिणेश्वर काली ने दर्शन दिया था। आज पूरी दुनिया में रामकृष्ण मिशन के लोग शांति और सुख का संदेश देते हैं। लेकिन रामकृष्ण परमहंस की खुद की मौत कैंसर से हुई थी।
जिस गुरु की कृपा से विवेकानंद पूरी दुनिया में मशहूर हुए उस गुरु के आखिरी दिन इतने संकट से क्यों गुजरे।
जिन्होंने लाखों लोगों को अध्यात्मिक रास्ता दिखाया उनकी मौत कैंसर की वजह से क्यों हुई। कहानी बड़ी विचित्र है। लेकिन एक ऐसे सच के दायरे में है जिसे जानकर रुह तक कांप जाती है।
क्या है इस काली मंदिर का रहस्य
1847 की बात है। देश में अंग्रेजों का शासन था। पश्चिम बंगाल में रानी रासमनी नाम की एक बहुत ही अमीर विधवा थी।
उनकी जिंदगी में सबकुछ था लेकिन पति का सुख नहीं था। रानी रासमनी जब उम्र के चौथे पहर में आ गई तो उनके मन में सभी तीर्थों के दर्शन करने का खयाल आया। रानी रासमनी देवी माता की बहुत बड़ी उपासक थी।
उन्होंने सोचा कि वो अपनी तीर्थ यात्रा की शुरुआत वराणसी से करेंगी और वहीं रहकर देवी का कुछ दिनों तक ध्यान करेंगी। उन दिनों वाराणसी और कोलकाता के बीच कोई रेल लाइन नहीं थी।
कोलकाता से वाराणसी जाने के लिए अमीर लोग नाव का सहारा लेते थे। दोनों ही शहर से गंगा गुजरती हैं इसलिए लोग गंगा के रास्ते ही वाराणसी तक जाना चाहते थे।
रानी रासमनी ने भी यही फैसला किया। उनका काफिला वाराणसी जाने के लिए तैयार हुआ। लेकिन जाने के ठीक एक रात पहले रानी के साथ एक अजीब वाकया हुआ।
मन में देवी का ध्यान कर के वो सोई थी। रात में एक सपना आया। सपने में देवी काली प्रकट हुई और उनसे कहा कि वाराणसी जाने की कोई जरूरत नहीं है। आप गंगा के किनारे मेरी प्रतिमा को स्थापित करिए। एक खूबसूरत मंदिर बनाइए। मैं उस मंदिर की प्रतिमा में खुद प्रकट होकर श्रद्धालुओं की पूजा को स्वीकार करुंगी।
रानी की आंख खुली। सुबह होते ही वाराणसी जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया और गंगा के किनारे मां काली के मंदिर के लिए जगह की तलाश शुरू कर दी गई।
कहते हैं कि जब रानी इस घाट पर गंगा के किनारे जगह की तलाश करते करते आईं तो उनके अंदर से एक आवाज आई कि हां इसी जगह पर मंदिर का निर्माण होना चाहिए।
फिर ये जगह खरीद ली गई और मंदिर का काम तेजी से शुरु हो गया। ये बात 1847 की है और मंदिर का काम पूरा हुआ 1855 यानी कुल आठ सालों में।साभार)

Friday, June 19, 2009

बंदरगाहों पर कारोबार बढ़ने के संकेत

भारत के बड़े बंदरगाहों पर कंटेनर ट्रैफिक वाल्यूम में कुल मिलाकर गिरावट का दौर चल रहा है।
हालांकि अप्रैल महीने की तुलना में मई के दौरान कुल लदान में 3.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। उद्योग जगत के विश्लेषकों का कहना है कि अब कारोबार में गिरावट के संकेत मिलने बंद हो गए हैं।
इंडियन पोर्ट एसोसिएशन (आईपीए) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक देश के12 बड़े बंदरगाहों ने चालू वित्त वर्ष के पहले दो महीनों के दौरान कुल 10.5 लाख टीईयू माल की ढुलाई की।
केवल मई महीने में ही सभी बंदरगाहों ने मिलकर कुल 5.38 लाख टीईयू माल की ढुलाई की, जिसमें सालाना आधार पर 10.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है, लेकिन पिछले महीने- अप्रैल की तुलना में कारोबार में 3.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के निदेशक एसके मंडल ने कहा, 'सभी बंदरगाहों पर गिरावट की एक प्रमुख वजह यह है कि पिछले साल अप्रैल से सितंबर के बीच कारोबार बहुत ज्यादा हुआ है। जहां संपूर्ण कारगो में 7.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई वहीं इस अवधि के दौरान कंटेनर ट्रैफिक में 10.16 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई।'
देश के कुल कंटेनर वाल्यूम में जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से ज्यादा है। यहां सालाना आधार पर मात्रा के मुताबिक मई 2009 में 9.4 प्रतिशत की गिरावट रही और कुल कारोबार 3.29 लाख टीईयू का रहा। लेकिन यह पिछले महीने की तुलना में 4.4 प्रतिशत ज्यादा रहा।
भारत के कुल कंटेनर वाल्यूम में चेन्नई की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत है, जहां सालाना आधार पर 16.6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। यहां कुल कारोबार 88,000 टीईयू का रहा, जबकि मात्रा का स्तर समान ही बना रहा। सबसे ज्यादा गिरावट मुंबई पोर्ट पर रही।
मंडल ने कहा कि इस वित्त वर्ष में वहां से केवल 10,000 टीईयू का काम हुआ, जो पिछले साल की समान अवधि से 54 प्रतिशत कम है। उन्होंने स्पष्ट किया कि कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट ने तुलनात्मक रूप से बेहतर कारोबार किया। कोलकाता डॉक सिस्टम (केडीएस) के कंटेनर वाल्यूम में 11 प्रतिशत की उछाल आई और यह 57,000 टीईयू रहा।
हल्दिया डॉक सिस्टम (एचडीएस) पर बहरहाल 32 प्रतिशत की गिरावट रही और यहां कुल 18,000 टीईयू कारोबार हुआ। एंजेल ब्रोकिंग के एक विश्लेषक परम देसाई का कहना है कि पिछले साल की पहली छमाही में विकास दर बेहतर थी, जिसके चलते आधार मजबूत है और जब उसकी तुलना चालू वित्त वर्ष से करते हैं तो स्थिति खराब आती है।
लेकिन पिछले साल की दूसरी छमाही से तुलना करने पर स्थिति में सुधार नजर आता है। उन्होंने कहा कि जनवरी और फरवरी -09 बहुत खराब महीने थे। अप्रैल-मई के दौरान जो ट्रेंड मिले हैं वह जून तक जारी रहेगा। चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में मात्रा के हिसाब से कारोबार गति पकड़ लेगा। (साभार)

बुद्धदेव की काबिलियत पर उठने लगे सवाल

नंदीग्राम की तरह अब लालगढ़ को लेकर भी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की प्रशासनिक काबिलियत पर सवालिया निशान लगाया जाने लगा है। ऐसा करने वाले कोई और नहीं बल्कि वाममोर्चा में माकपा के ही सहयोगी दल हैं।
लालगढ़ में माओवादियों पर सख्त पुलिस कार्रवाई के लिए सहयोगी वामदलों ने बुद्धदेव को भले ही सहमति दे दी हो लेकिन उन्होंने वहां के हालात इस कदर बिगड़ने के लिए मुख्यमंत्री को कठघरे में भी खड़ा करना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि सूबे के मुखिया में कहीं न कहीं प्रशासनिक क्षमता की कमी जरूर है।
नंदीग्राम संग्राम को लेकर तो बुद्धदेव में यह कमी तो भाकपा नेता ए.बी. बर्धन समेत दूसरे कामरेड खुलकर बताते रहे हैं, लेकिन लालगढ़ कांड के आधार उनकी आलोचना फिलहाल बंद कमरे तक सीमित रखे हुए हैं। हां, अगर लालगढ़ भी नंदीग्राम का दूसरा पार्ट बन जाए तो बुद्धदेव की खिंचाई सार्वजनिक तौर पर करने से कोई नहीं चूकेगा। वहीं माकपा केंद्रीय समिति की यहां शुक्रवार से शुरू हो रही तीन दिन की बैठक में इस मसले पर भी विस्तृत चर्चा होगी।
तीसरा मोर्चा और परमाणु करार से समर्थन वापसी के अपने फैसले की समीक्षा तो माकपा नेतृत्व करेगा ही, लेकिन साथ ही बुद्धदेव को भी लालगढ़ पर जवाब देना होगा।
सूत्रों के मुताबिक कोलकाता में वाममोर्चा की बैठक के दौरान आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक के वरिष्ठ नेताओं ने लालगढ़ के हालात बेकाबू होने के पीछे बुद्धदेव की कमजोरी ही बताई। वाममोर्चा के संयोजक व माकपा सचिव बिमान बोस को अपनी भावना से अवगत कराते हुए कामरेडों ने कह दिया कि वक्त रहते ठोस कार्रवाई कर ली जाती तो माओवादी लालगढ़ को अपने कब्जे में नहीं कर पाते।
यानी सीधे-सीधे वाममोर्चा के घटक दलों ने मुख्यमंत्री की प्रशानिक काबिलियत पर निशाना साधा है। सूत्रों की माने तो कुछ कामरेड तो किसी भी मामले को संभाल पाने में उनकी नाकामी को भी रेखांकित करने सुने गए हैं।
जाहिर है भाकपा समेत सभी वामदलों को बुद्धदेव के कामकाज का तरीका कतई पसंद नहीं रहा है। लोकसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों की हार के बाद तो बुद्धदेव के खिलाफ उनका गुस्सा बढ़ा ही है। इस मोर्चे पर बर्धन ने तो भाकपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बाद माकपा महासचिव प्रकाश करात के साथ बुद्धदेव को भी लपेट लिया था। उनका कहना था कि इसे दोनों की तरफ से हुई लापरवाही का खामियाजा सभी वामदलों ने भुगता।
जाहिर है उस समय उन्होंने यह बात नंदीग्राम के संदर्भ में ही कही थी। अब लालगढ़ एक नई समस्या के रूप में सामने है। परिस्थितियां भी बदली हुई हैं। केंद्र में वामदलों का दबदबा समाप्त हो चुका है और उनके धुर विरोधी दल तृणमूल कांग्रेस का प्रभाव बढ़ गया है। ऐसे में सहयोगी वामदल कदम फूंक-फूंक कर उठाने की सलाह ही बुद्धदेव को दे रहे हैं। यही वजह है कि पुलिस कार्रवाई के लिए सहमत होते हुए उन्होंने चेतावनी दे दी है कि नंदीग्राम दोबारा न हो। वहीं बुद्धदेव भी इस बार सहयोगी घटक दलों को विश्वास में लेकर चल रहे हैं, ताकि उन पर एकतरफा फैसला करने की तोहमत फिर न मढ़ी जाए।(साभार)

ट्रैफिक मैनिजमंट में पैदल चलने वालों की अनदेखी

आजादी के बाद पैदल चलने वालों की जैसी दुर्गति हमारे देश में हुई ह ै, उसकी दूसरी मिसाल मिल पाना मुश्किल है। भारतीय नगर नियोजकों की नजर में पैदल चलने वाले और साइकल सवारों की हैसियत कीड़े-मकोड़े जैसी है, जबकि आज भी शहरों का बहुसंख्य वर्ग कहीं आने-जाने के लिए अपने पैरों पर ही निर्भर है।
दिल्ली आईआईटी की प्रफेसर गीतम तिवारी पैदल चलने वालों का आंकड़ा प्राप्त करने का असफल प्रयास कर चुकी हैं। उन्हें 1994 के पहले का ऐसा कोई आंकड़ा नहीं मिला, जबकि वाहनों के आंकड़े 1950 से ही उपलब्ध हैं। इससे पता चलता है कि शहर की योजनाओं और यातायात संरचना में पैदल चलना किसी प्राथमिकता में नहीं आता।
वर्ष 2008 में 30 शहरों के अध्ययन से पता चला कि 16 से 57 प्रतिशत तक यात्राओं में किसी भी वाहन का इस्तेमाल नहीं होता। छोटे शहरों और पर्वतीय स्थानों के लोग अधिक पैदल चलते हैं। बड़े शहरों में पैदल चलने की स्थितियों को लेकर भी एक अध्ययन हुआ है। सर्वेक्षण में बताया गया कि दिल्ली में 21 प्रतिशत यात्राएं पैदल ही की जाती हैं। रिट्स लिमिटेड नामक एक सरकारी सलाहकार कंपनी द्वारा 2008 के एक सर्वेक्षण के अनुसार यह 34 प्रतिशत है। मुंबई में और अधिक लोग पैदल चलते हैं। वर्ष 2005 में विश्व बैंक द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार वहां 43 प्रतिशत लोग पैदल चलते हैं जो कि निजी वाहनों द्वारा यात्रा करने वालों से चार गुना अधिक है। मुंबई महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकारी के सर्वेक्षण के अनुसार यह आंकड़ा 52 प्रतिशत है। अहमदाबाद में 2005 में हुए सर्वेक्षण के अनुसार यहां 54 प्रतिशत यात्राएं पैदल या साइकल से होती हैं। भारतीय शहरों में वाहनों से चलने की बजाय लोग पैदल ज्यादा चलते हैं।
अगर इन आंकड़ों में सार्वजनिक यातायात का प्रयोग करने वालों को शामिल करें तो वस्तुस्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। कोलकाता में पैदल चलने वालों का प्रतिशत वैसे तो 19 ही है, परंतु यहां सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करने वाले 54 प्रतिशत हैं। हमारे शहरों में सड़कें पहले से तो बेहतर हुई हैं, परंतु वे साइकल चालकों के लिए अधिक खतरनाक होती जा रही हैं। अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय और आईआईटी, दिल्ली के संयुक्त अध्ययन से पता चला है कि पिछले दशक में सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या में प्रतिवर्ष आठ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है। शहरी क्षेत्रों में इस दौरान दुर्घटना से हुई 80 हजार मौतों में से 60 प्रतिशत पैदल चलने वालों की हुई थी।
त्रुटिपूर्ण डिजाइन और शहरी भू-उपयोग नीतियां भारत में पैदल चलने के वातावरण को बर्बाद कर रही हैं। सड़कों को चौड़ा करने के दौरान फुटपाथों को समाप्त करने और फ्लाईओवर बनाने से पैदल चलने वालों के रास्ते में बाधा पड़ती है। समय बचाने की कोशिश में काबू से बाहर हुए वाहन हरेक छह मिनट में एक व्यक्ति को मार डालते हैं। इंडियन सड़क कांग्रेस के अनुसार फुटपाथ की चौड़ाई कम से कम 1.5 मीटर से चार मीटर के बीच होनी चाहिए, परंतु कोई भी शहरी इकाई इन मानकों को मानने के लिए बाध्य नहीं है। मुंबई में तो जेबरा क्रॉसिंग से भी सड़क पार करने पर तेज दौड़ लगानी पड़ती है। मुंबई के कई उपनगरों में सड़कों के किनारे फुटपाथ ही नहीं हैं। यहां विकास प्राधिकरण अरबों रुपये की लागत से मेट्रो, मोनो रेल, समुद्री लिंक, एक्सप्रेस व फ्लाईओवर बनाने में जुटा है, परंतु फुटपाथ निर्माण की ओर उसका ध्यान ही नहीं है।
एक यातायात विशेषज्ञ अशोक दातार का मानना है कि देश के कुल 55 प्रतिशत लोग प्रतिदिन पैदल चलते हैं, परंतु उनकी सुविधा के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है। अब तो लगने लगा है कि विकास प्राधिकरण चाहते हैं कि जनता सिर्फ कारों का ही प्रयोग करें। अगर ऐसा नहीं है, तो क्यों पैदल चलने वालों के लिए ऐसे 'स्काई वॉकर' या फुटओवर ब्रिज बनाए जा रहे हैं जिनका बहुत कम लोग इस्तेमाल करते हैं? अगर सड़कों पर सबका अधिकार है तो फिर पैदल चलने वालों को ही क्यों सताया जा रहा है? कारें समस्या का निराकरण इसलिए नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे ही समस्या का कारण हैं। सरकारों पर इस बात के लिए दबाव डालना चाहिए कि वे ऐसे ट्रैक बनाएं, जो सिर्फ साइकल व पैदल चलने वालों के लिए ही हों।
अमेरिका के उलट भारत अति सघन बसाहट वाला देश है। ऐसे में यहां पैदल चलना एक बेहतर विकल्प भी है। पर वर्ष 2008 के सर्वेक्षण से यह निराशाजनक तस्वीर उभरी कि दिल्ली में बसों में सफर करने वालों की संख्या में जबर्दस्त गिरावट आई है। यह 2001 में 60 प्रतिशत से घटकर 2008 में 41 प्रतिशत रह गई है, जबकि इसी अवधि में कार से सफर करने वाले तीन प्रतिशत से बढ़कर 13 प्रतिशत हो गए। नगर नियोजकों का मानना है कि मुंबई में मेट्रो रेल परियोजना व अन्य यातायात सुविधाओं पर 20 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की बजाय सड़कों को पैदल चलने के अनुकूल बनाना अधिक सस्ता व पर्यावरण के हित में होगा।
इस सुधार हेतु बहुत बड़ी योजनाओं या बड़े स्तर के प्रयासों की जरूरत नहीं है। जेब्रा क्रॉसिंग बनाने व ट्रैफिक सिग्नल की अवधि बढ़ाने से इस समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है। जबकि अभी तो पैदल चलने वालों को हतोत्साहित किया जा रहा है। असल में नीति नियंताओं की नजर सार्वजनिक यातायात में होने वाले निवेश पर रहती है, जबकि दिल्ली जैसे शहरों में सार्वजनिक यातायात की मांग में कमी आई है। पैदल चलने वालों के आंदोलन का उद्देश्य वाहनों पर निर्भरता कम करना है, इसलिए नगर नियोजकों को ऐसे वातावरण निर्माण में मदद करनी चाहिए। इसका एक उदाहरण हॉलैंड ने 'वुर्नेफ' के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है सड़कों का ऐसा समूह जहां पैदल चलने वालों एवं साइकल चालकों को प्राथमिकता दी जाएगी।
इस लिहाज से भारतीय शहरों में अभी भी संभावना बाकी है। नगर निकायों को चाहिए कि वे पैदल और साइकल चालकों की समस्याओं से निपटने के लिए एक पूर्णकालिक इकाई बनाएं, ताकि उनका सफर भी सुहाना हो सके। (साभार)

आर्थिक मंदी से सबसे तेजी से उबरेंगे छोटे व मझोले उद्योग

आर्थिक मंदी से सबसे तेजी से छोटे व मझोले उद्योगों के उबरेंगे की संभावना जतायी गयी है। यूपीएस ने अपने पांचवें वार्षिक एशिया बिजनेस मानीटर (यूपीएस एबीएम 2009) सर्वेक्षण के निष्कर्षो में इसका जिक्र किया है। यह सर्वेक्षण एशिया के छोटे और मझोले उद्यमों की प्रतिस्पर्धी क्षमताओं के विषय पर आधारित है। सर्वेक्षण में कहा गया है कि अपने कारोबार पर पड़ते मंदी के कुप्रभाव के बावजूद क्षेत्र के अन्य देशों की तुलना में भारत में एसएमई आर्थिक पुनर्सुधार और अपनी बेहतर वृद्धि के लिए अपेक्षाकृत अधिक मजबूती के साथ डटे हुए हैं। भारत के एसएमई अपने क्षेत्रीय जोड़ीदारों की तुलना में अपने विकास और कारोबारी योजनाओं के बारे में अधिक सकारात्मक नजरिया रखते हैं। हालांकि भारत के एसएमई भी वित्तीय अस्थिरता और गिरावट के शिकार हुए हैं और कई तरह की बाधाओं व समस्याओं का सामना करना रहे हैं लेकिन वे तगड़ी वापसी करने के लिए आत्मविश्वास से भरपूर हैं।
2009 को लेकर भारतीय एसएमई आशावादी नजरिया अपनाए हुए हैं जबकि उनके एशियाई जोड़ीदारों में से बहुमत का रवैया ऐसा नहीं है। केवल 40 फीसदी ही भारत में किसी आर्थिक वृद्धि की संभावना को देखते हैं। वे अपने खुद के कारोबार के प्रति भी समान आशावादी नजरिया रखते हुए 42 फीसदी की संभावित वृद्धि की अपेक्षा रखते हैं। संपूर्ण रूप में भारतीय एसएमई का कारोबारी नजरिया, सर्वेक्षण में शामिल अन्य एशियाई बाजारों की तुलना में अधिक गिरावट दर्शाने वाला है। बहरहाल एशिया प्रशांत क्षेत्र में व्यापार पिछले साल के 69 फीसदी की तुलना में मजबूत 48 फीसदी बना रहेगा। हालांकि बाहरी व्यापार में गिरावट दर्ज हुई है लेकिन भारत का घरेलू बाजार लगातार बढ़ा है इसलिए अर्थव्यवस्था के प्रभाव ने अलग तरीके से उद्यमियों को प्रभावित किया है। यह प्रभाव इस पर निर्भर है कि उनके प्रमुख बाजार क्षेत्र कहां स्थित हैं। भारतीय उद्यमी टिके रहना और मजबूत बने रहना जानते हैं। अर्थव्यवस्था में सुधार होने पर हम इनसे तीव्र विकास की उम्मीद कर सकते हैं।(साभार)

सुंदरवन को हो रहे नुकसान का सर्वेक्षण

दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव जंगल सुंदरवन के पारिस्थतिकी तंत्र को हो रहे नुकसान के आकलन के लिये राज्य का वन विभाग सर्वेक्षण शुरू करेगा। केन्द्रीय संगठन जूलाजिकल व बोटेनिकल सर्वे आफ इंडिया को इस बारे में राज्य सरकार की तरफ से प्रस्ताव भेजा जायेगा। सर्वेक्षण कार्य दो साल तक जारी रहेंगे। वन विभाग के अधिकारी ने बताया कि सर्वेक्षण के तहत सुंदरबन की वनस्पतियों व वन्य जीवों पर हुए परिवर्तन के असर का आकलन किया जायेगा। लम्बे समय तक सुंदरवन के पारिस्थतकी तंत्र पर कोई वैज्ञानिक सर्वेक्षण नहीं किया गया है। केन्द्र सरकार की मदद के बिना सुंदरबन इलाके में प्रदूषण से हुए नुकसान तथा वनस्पतियों और वन्यजीवन पर इसके प्रभाव का सटीक आकलन नहीं किया जा सकता। उल्लेखनीय है कि अब तक इस विस्तृत मैंग्रोव जंगल में राज्य वन विभाग तथा कुछ गैरसरकारी संगठनों द्वारा अल्पकालीन सर्वेक्षण किया गया है। सर्वेक्षण में सुंदरवन के तटीय इलाकों के समुद्री जल के प्रदूषण के आकलन की भी योजना है। सुंदरवन बायोस्फेयर रिजर्व के संयुक्त निदेशक राजू दास ने बताया कि सर्वेक्षण के प्रस्ताव पर जल्द बैठक होगी जिसके बाद इसकी रिपोर्ट केन्द्र को भेजी जायेगी। उल्लेखनीय है कि कई पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा संगठनों ने भी सर्वेक्षण पर जोर दिया है। हाल में आये चक्रवाती तूफान आयला से सुंदरवन की वनस्पतियों और वन्यजीवों के काफी नुकसान पहुंचने की आशंका प्रकट की गयी है।(साभार)

Sunday, June 14, 2009

हाईस्कूलों की चौखट से मायूस लौट रहे विद्यार्थी

बढ़ती विद्यार्थियों की संख्या व स्कूलों में सीमित सीटों के चलते प्रतिवर्ष डुवार्स के हजारों छात्र-छात्राओं को बीच में ही पढ़ाई छोड़ना पड़ रहा है। आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष दस हजार छात्र शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। नामांकन के लिए विद्यार्थी व अभिभावकों को उच्च विद्यालय का चक्कर काटना पड़ता है फिर भी निश्चितता नहीं। यह स्थिति है उदलाबाड़ी हाईस्कूल, मालबाजार हाईस्कूल, नागरकाटा हाईस्कूल, बानारहाट हाईस्कूल, भती पाठशाला न्यु-डुवार्स, महावीर हाईस्कूल वीरपाड़ा का। इन स्कूलों के साथ-साथ जुनियर हाईस्कूलों की स्थिति भी यही है। दिन व दिन बढ़ती छात्रों की संख्या व स्कूलों में सीमित सीटों के चलते बच्चों को जुनियर हाईस्कूल व उच्च विद्यालय में प्रवेश के लिए पहुंचते हैं तो उन्हें मायूस होकर लौटना पड़ता है। गौरतलब है कि बानारहाट थाने के अंतर्गत बिन्नागुड़ी जूनियर हाईस्कूल में पिछले वर्ष 2008 में बिन्नागुड़ी जुनियर हाईस्कूल के छात्रों का नामांकन बानारहाट आदर्श विद्या मंदिर में हुई और वहां छात्रों को बैठने का स्थान न मिलने पर इन्हें बिन्नागुड़ी जुनियर हाईस्कूल में पढ़ाई करनी पड़ी पर इसबार बानारहाट आदर्श विद्या मंदिर हाईस्कूल एवं बालका परिमल हिन्दी हाईस्कूल में सीटे खाली ही नहीं है जिससे इसबार बाहरी स्कूलों के छात्रों का नामांकन करना मुश्किल है। ज्ञात हो कि विद्यालय में तीन-तीन सेक्शन होने के बावजूद समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा है। वहीं बानारहाट बालका परिमल हिन्दी हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक चंद्रशेखर प्रसाद ने बताया कि यदि बानारहाट में हिन्दी ग‌र्ल्स हाईस्कूल बन जाने पर बानारहाट स्थित आदर्श विद्या मंदिर हाईस्कूल व बालका परिमल हाईस्कूल पर विद्यार्थियों का बोझ कम हो जायेगा। दूसरी तरफ डुवार्स इलाके में चाय बागानों में केवल प्राथमिक विद्यालय ही है। पंचायरत स्तर पर केवल एक ही जुनियर हाईस्कूल है, कहीं कहीं तो वो भी नहीं है। इस वजह से चाय बागानों में रहने ावाले बच्चों के लिए उच्च शिक्षा मिलना मुश्किल हो रहा है। दैनिक मजदूरी करने वाले लोग अपने बच्चों की पढ़ाई के भलिए दर-दर की ठोकरें खा रहे है। कहां अपनी गरीबी से जूझते ये लोग अपने बच्चों को शिक्षा देकर बेहतर भविष्य का सापना देख रहे हैं वहीं इनके बच्चों को सरकार की ओर से मदद न मिलने से पढ़ाई छोड़ना पड़ रहा है।(साभार)

Thursday, June 4, 2009

मेट्रो शहरों पर फिर फिदा हो रहे रिटेलर

व्यावसायिक परिसरों के किराए में गिरावट को देखते हुए रिटेल कंपनियां-आदित्य बिडला रिटेल, रिलायंस रिटेल और शॉपर्स स्टॉप के अलावा, फूड चेन कंपनियां मेट्रो और मिनी मेट्रो में विस्तार की योजना बना रही है।
रिटेलरों और सलाहकार संस्थाओं का कहना है कि पिछले 6 माह के दौरान रिटेल किराए में करीब 40 फीसदी की कमी आई है। इससे रिटेल कंपनियों को विस्तार योजनाएं पूरा करने में आसानी होगी।
किराए में इजाफा होने से जहां रिटेल कंपनियां मेट्रो को छोड़कर मैसूर, इंदौर, विजयवाड़ा आदि शहरों का रुख कर रही थीं, वह अब दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और कोलकाता में आक्रामक विस्तार की योजना बना रही है।
आदित्य बिड़ला रिटेल चालू वित्त वर्ष में 60 सुपरमार्केट और वर्ष 2011 तक 12 हाइपरमार्केट खोलने की योजना बना है। कंपनी इसके लिए दिल्ली, बेंगलुरु और मुंबई में जगह तलाश रही है। आदित्य बिड़ला रिटेल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि 25 रुपये प्रति वर्गफीट मासिक किराया होने पर ही हमें फायदा हो सकता है, लेकिन दो साल से मेट्रो में किराया इतना ज्यादा बढ़ गया था कि रिटेल कंपनियों को बहुत फायदा नहीं हो रहा था।
हालांकि बदले हालात में सभी मॉल मालिक अपने मॉल में हाइपमार्केट खोलना चाहते हैं, जिसके लिए वे मार्केट रेट से भी कम किराया लेने को राजी हैं। उन्होंने बताया कि कंपनी वित्त्त वर्ष 2011 में फिर 2 टीयर शहरों का रुख करेगी। मुकेश अंबानी की रिलायंस रिटेल भी मेट्रो शहरों में रिलायंस फ्रेश और रिलायंस मार्ट खोलने की तैयारी कर रही है।
स्पेंसर रिटेल बेंगलुरु में दो हाइपरमार्केट, जबकि चेन्नई और कोलकाता में एक-एक हाइपरमार्केट खोलने की तैयारी कर रही है। कंपनी पुणे और हैदराबाद में भी दो हाइपरमार्केट खोलने की योजना बना रही है। स्पेंसर के उपाध्यक्ष, मार्केटिंग समर शेखावत का कहना है कि अर्थव्यवस्था में सुधार आने से हमारे स्टोरों की मांग में इजाफा हो रहा है। कंपनी प्रतिमाह विकास कर रही है।
रहेजा ग्रुप का शॉपर्स स्टॉप भी बेंगलुरु, अहमादाबाद और हैदराबाद में चार स्टोर खोलने की तैयारी कर रही है। कंपनी का कहना है कि रेंटल में आई गिरावट से कंपनी के स्टोर को खोलने में सुविधा होगी। फूड चेन मैकडॉनल्ड भी चालू वित्त वर्ष में 40 नए आउटलेट खोलने की तैयारी कर रही है, जिन पर करीब 120 करोड़ रुपये का निवेश किया जाएगा।(साभार)

भूमि अधिग्रहण मामले में पड़ सकता है उलटा दांव

कोलकाता. रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी द्वारा पश्चिम बंगाल में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चलाया गया आंदोलन अब उनके मंत्रालय की आगामी योजनाओं पर ही भारी पड़ सकता है। बर्दवान जिले में ब्रॉड गैज रेललाइन के विस्तार के लिए हाल में एक विज्ञापन दिया गया है।
केंद्रीय रेल विभाग ने इस विस्तार के लिए राज्य के भूमि एवं भूमि सुधार विभाग को विभिन्न चरणों में 55 एकड़ भूमि अधिगृहीत करने की अनुमति दी है। लेकिन जिन जमीनों को अधिगृहीत करने का प्रस्ताव है, वे एक से अधिक फसल देने वाली उपजाऊ जमीनें हैं। जबकि ममता की मांग रही है कि केवल सूखी और एक फसल देने वाली जमीनों को ही अधिगृहीत किया जाना चाहिए।
संविधान के तहत राज्य सरकार किसी भी केंद्रीय परियोजना को लागू करवाने के लिए बाध्य है, इसलिए भूमि एवं भूमि सुधार विभाग के यह विस्तृत विज्ञापन जारी करना जरूरी था। लेकिन विभाग ने भी परियोजना की पूरी जिम्मेदारी रेल विभाग डाल दी है। विज्ञापन में कहा गया, ‘भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 के तहत राज्य सरकार को केंद्र सरकार के लिए जमीन अधिगृहीत करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है..।’
रोचक बात यह है कि पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने सिंगूर में नैनो परियोजना के लिए इसी कानून के तहत भूमि अधिगृहीत की थी। ममता ने इस परियोजना का जमकर विरोध किया था।
विज्ञापन में विभाग ने यह भी स्पष्ट किया है कि भूमि अधिग्रहण के लिए जबरदस्ती के बजाय लोगों की राय को तवज्जो दी जाएगी। विभाग ने अधिग्रहण के बारे में लोगों की आपत्तियां मंगाई हैं।(साभार)

कोलकाता के बच्चों की सहायता करेगा रोटरी इंटरनेशनल

कोलकाता अंतर्राष्ट्रीय संगठन रोटरी इंटरनेशनल ने कोलकाता में फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की सहायता के लिए विश्व भर में श्रृंखलाबद्ध तरीके से संगीत कार्यक्रम आयोजित करने की योजना बनाई है।श्रृंखला का पहला कार्यक्रम छह जून को जर्मनी की ऐतिहासिक सेंट जॉन चर्च में आयोजित किया जाएगा। यह जानकारी संतूर वादक तरुण भट्टाचार्य ने दी। वह रोटरी के संगीत कार्यक्रम में शामिल हैं।भट्टाचार्य ने कहा कि बेघर बच्चों की सहायता करने की उनकी हमेशा इच्छा रही है। उन्होंने कहा कि रोटरी संगीत दौरे का हिस्सा बनकर उन्हें खुशी है। संगीत कार्यक्रमों से मिलने वाली राशि बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था 'फोरम' को दी जाएगी।(साभार)

Wednesday, June 3, 2009

कोलकाता से ही देश भर में रेल चलाएंगी ममता

कोलकाता। नई रेलमंत्री ममता बनर्जी के लिए रेल मंत्रालय से ज्यादा अहम बंगाल की राजनीति है। इसलिए उन्होंने रेल मंत्रालय को कोलकाता से ही चलाने का फैसला कर लिया है। रेल विभाग उनकी मंशा को समझते हुए कोलकाता में एक अत्याधुनिक ऑफिस तैयार कर रहा है ताकि ममता ज्यादा से ज्यादा वक्त बंगाल को दे सकें।कोलकाता के मान्झेर हाट रेलवे स्टेशन के ठीक सामने वर्षों से उपेक्षित पड़ी जर्जर इमारत की किस्मत बदलने वाली है। सियालदह सब डिविजन के तहत आने वाली रेल विभाग की इस इमारत की तरफ कल तक कोई झांकता भी नहीं था, लेकिन अब रेलवे के तमाम आला अफसर यहां हो रहे काम की पल-पल की जानकारी ले रहे हैं। उनके लिए इससे महत्वपूर्ण काम कोई दूसरा हो भी नहीं सकता क्योंकि ममता बनर्जी यहीं बैठकर रेल की कमान संभालेंगी।हालांकि यह सबको पता है कि इतने युद्ध स्तर पर चल रहा काम ममता के ऑफिस के लिए ही है लेकिन अधिकारी कुछ भी बोलने से कतरा रहे हैं। उन्हें डर है कि कहीं लेने के देने न पड़ जायें।पता चला है कि इस ऑफिस को तैयार होने में लगभग एक हफ्ते का वक़्त लगेगा। यहां ममता के चैम्बर के अलावा कांफ्रेंस रूम भी बनाया जा रहा है जहां से वीडियो कांफ्रेंसिंग भी हो सकेगी। ऐसे तमाम उपकरण लगाए जा रहे हैं जिससे रेलवे की सभी गतिविधियों पर नजर रखी जा सके। कोशिश ये है कि ममता बनर्जी कोलकाता में रहते हुए ही रेल मंत्रालय का कामकाज देख सकें। विशेष परिस्थितियों में ही उन्हें दिल्ली जाना पड़े।वैसे कभी लालू ने भी रेल को पटना से चलाने की कोशिश की थी। लेकिन वो बिहार के ऑफिस को समय नहीं दे पाए और दिल्ली से ही रेल चलाते रहे। अब बिहार से दूरी का दंड वो भुगत रहे हैं। ममता वो गलती नहीं दोहराना चाहती हैं। उन्हें पता है कि दिल्ली में उनका जलवा तभी तक है जब तक बंगाल उनके साथ है। डेढ़ साल बाद वहां चुनाव होने हैं। कहीं ऐसा न हो कि दिल्ली की हवा उनसे बंगाल की जमीन छीन ले। और ममता इस बार चूकना नहीं चाहतीं।(साभार

लोकसभा में भाई भतीजावाद की झालाक

नयी दिल्ली। लोकसभा में आज परिवारवाद की झलक देखने को मिली जब कई बेटे बेटियों और नाते रिश्तेदारों ने सदन की सदस्यता की शपथ ली। कांग्रेस और भाजपा के दो युवा गांधी राहुल और वरूण ने भी आज ही शपथ ग्रहण की।जहां विपक्षी सदस्यों की मेजों की थपथपाहट के बीच वरूण और उनकी मां मेनका गांधी ने शपथ ली वहीं सत्ता पक्ष की ओर से उससे जोरदार मेजों की थपथपाहट के बीच राहुल गांधी ने भी शपथ ली। उनकी मां सोनिया गांधी कल शपथ ले चुकी हैं। राहुल को शपथ लेते देखने बहन प्रियंका पति राबर्ट वाडेरा के साथ सदन की विशिष्ट दीर्घा में मौजूद थीं।रालोद प्रमुख अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी ने भी आज ही शपथ ली। जयंत पहली बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए हैं। वह मथुरा से चुनाव लडे थे।पिता पुत्र की कड़ी में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव ने भी शपथ ली। मुलायम मैनपुरी से तो अखिलेश कन्नौज से जीते हैं। अखिलेश फिरोजाबाद सीट पर भी चुनाव जीते थे लेकिन उन्होंने 21 मई को वहां से इस्तीफा दे दिया। मुलायम के भतीजे धर्मेन्द्र यादव ने भी शपथ ली जो बदायूं से सांसद चुने गये हैं।पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर ने सदन की सदस्यता की शपथ ली। वह अपने पिता की परंपरागत सीट बलिया से जीतकर आये हैं।अन्य जिन मंत्रियों ने आज शपथ ली उनमें प्रतीक पाटिल श्रीप्रकाश जायसवाल ,हरीश रावत और रेल मंत्री ममता बनर्जी प्रमुख रहीं। कल ममता कोलकाता में थी। क्रिकेटर से नेता बने अजहरूददीन के शपथ ग्रहण के समय उनकी पत्नी संगीता बिजलानी दर्शक दीर्घा में मौजूद थीं। सदस्यों के शपथ लेने की प्रक्रिया आज लगभग पूरी हो गयी। 543 सदस्यीय लोकसभा के 335 सदस्यों ने कल शपथ ली थी। शेष में से अधिकांश ने आज शपथ ली। जिन सदस्यों की शपथ अभी नहीं हो सकी है वे आने वाले दिनों में सदस्यता की शपथ लेंगे।वरूण आज जब शपथ ले रहे थे उनकी ताई सोनिया और चचेरी बहन प्रियंका मुस्कुराते देखी गयीं। उन्होंने सोनिया को नमस्कार भी किया जबकि उनकी मां मेनका ने सत्ता पक्ष की ओर नहीं देखा।पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की परंपरागत सीट लखनऊ से जीतकर आये लालजी टंडन का उनके पार्टी सहयोगियों ने शपथ लेते समय जबर्दस्त स्वागत किया। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत कुमार ने भी आज शपथ ली। अन्नाद्रमुक के सभी नौ सांसदों ने ईश्वर के नाम पर शपथ ली जबकि द्रमुक सांसदों ने सत्यनिष्ठा के नाम पर शपथ ली। तमिलनाडु के सभी सांसदों में हालांकि एक समानता रही कि उन्होंने तमिल में शपथ ली।भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और सपा के समर्थन से निर्दलीय चुनाव जीते कल्याण सिंह ने भी आज ही शपथ ग्रहण की।शपथ लेने वालों में कई बालीवुड, टालीवुड और कालीवुड सितारे शामिल थे। इनमें सपा की जयाप्रदा, बिहारी बाबू के नाम से मशहूर भाजपा के शत्रुघन सिन्हा, दक्षिण भारतीय फिल्मों की लेडी अमिताभ के नाम से मशहूर विजया शांति, बांग्ला फिल्मों की अभिनेत्री शताब्दी राय और अभिनेता तापस पाल तमिल फिल्म स्टार शिवकुमार प्रमुख थे।

Tuesday, June 2, 2009

नजारे कंचनजंघा के

सिक्किम प्रकृति प्रेमियों का पसंदीदा स्थान तो है ही, ट्रेकिंग के लिए रोमांच भरे अनेक क्षेत्रों के कारण ट्रेकर्स को भी विशेष रूप से आकर्षित करता है। विश्व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा भी यहीं है जिसकी सूर्योदय की सुनहरी आभा दिल-दिमाग पर गहरी छाप छोड जाती है। जाहिर है ऐसे पर्वत के साये में साधारण से लेकर ऊंचाई वाली ट्रेकिंग के लिए अनेक क्षेत्र मौजूद है जिनमें पैदल सैलानियों के दमखम का जोरदार इम्तिहान होता है। यूं तो प्रकृति का अपना बगीचा और फूल का प्रदेश कहलाने वाले सिक्किम में अन्य साहसिक गतिविधियों के लिए चारों दिशाओं में अनेक स्थान नदियां और बर्फीले इलाके मौजूद हैं परंतु पश्चिम सिक्किम में ऊंचाई वाली ट्रेकिंग का रोमांच अलग ही है। युकसम सिक्किम की पहली राजधानी रही है, जिसकी समुद्रतल से ऊंचाई 5600 फुट है। जोगरी जेमाथांग जैसे ट्रेक और कंचनजंघा पर चढाई के लिए आधार शिविर यहीं लगाए जाते हैं जिससे पश्चिम सिक्किम के इस क्षेत्र का महत्व और बढ जाता है। कई अन्य ट्रेक भी यहां से प्रारंभ होते हैं। थोडी संजीदा ट्रेकिंग के लिए यहां से एक सरकुलर ट्रैक आयोजित किया जाता है जिसके मुख्य पडाव हैं- युकसम-सोका जोंगरी-थानजिंग- सुमिति झील (मिनी मानसरोवर) जेमाथांग-गोछा ला-थानजिंग- लामपोखरी-कस्तूरी ओराल-युकसम। कुछ समय पहले सिक्किम सरकार के पर्यटन विभाग ने नेशनल हाई एल्टीट्यूड ट्रेकिंग प्रोग्राम का आयोजन किया था जिसमें देश के अनेक भागों से आए ट्रेकिंग दलों ने भाग लिया। दिल्ली से हमारा दल जब चला तो दो दिन दार्जीलिंग में रुका जहां इंटरनेशनल हिमालयन माउंटेनियरिंग मीट आयोजित की गई थी। हम उसमें सम्मिलित हुए। सर एडमंड हिलेरी व उनकी धर्मपत्नी, उनके पर्वतारोही पुत्र पीटर हिलेरी, तेनजिंग नोर्गे, नवागं गोम्बू, उनकी बेटी रीटा गोम्बू, फू दौरजी जैसे महान पर्वतारोहियों के अतिरिक्त इटली और स्पेन के कुछ पर्वतारोहियों से यहां हमारी भेंट हुई। दार्जीलिंग से हम सिक्किम की ओर बढे। हमारी बस ने रंगित नदी को पार किया जो पश्चिमी बंगाल और सिक्किम की सीमा निर्धारित करती है। पेलिंग में हम एक रात रुके। रक्षित नामक स्थानीय मादक पेय का अधिकतर साथियों ने सेवन कर आनंद लिया। अगले दिन हम युकसम में थे। जैसा कि आम तौर पर किसी भी ऊंचाई वाले इलाके (13-14 हजार फुट से ऊपर) में जाने के लिए जरूरी होता है, अपने शरीर को यहां के मौसम के हिसाब से ढालने (एक्लीमेटाइजेशन) के लिए हमें यहां दो दिन रुकना था। सीलन और नमी भरे इस क्षेत्र में जोंकों का जबरदस्त बोलबाला है। खुली जगह से लेकर आपके बिस्तर तक में भी वे आपको मिल सकती हैं। इनसे बचने के लिए हमें जूतों में नमक डालने के लिए दिया गया। फिर भी इनके आक्रमण से शायद ही कोई अछूता बचता हो। पास ही में ऊंचे स्थान पर एक प्राचीन बौद्ध मठ (मोनेस्ट्री) है। दूसरे दिन हम वहां गए और लौटकर अगले दिन ट्रेकिंग पर जाने की तैयारी में जुट गए।सोका (10 हजार फुट) : जूतों में नमक डालकर हम अपने पहले पडाव सोका के लिए चल पडे। कुछ साथियों को जोंको ने काटने से नहीं छोडा। बुरांश (रोडोडेंड्रोन) के सुंदर पौधों पर कई जगह फूल थे जिनके बीच से हम आगे बढते रहे। कहीं जंगल और कहीं पानी के बहाव देखकर हम कुछ क्षण के लिए अपनी थकान भूल जाते थे। रास्ते में याक भी मिले। शाम होने से पहले हम सोका पहुंच चुके थे। जोंगरी (12800 फुट) : अगले पडाव जोंगरी के लिए हम चले तो कुछ देर बाद वर्षा ने आ घेरा। काफी तेज बारिश ने हमारी समस्याएं बढा दी। ज्यों-ज्यों हम आगे बढ रहे थे वनस्पति कम होती जा रही थी। केवल बुरांश के फूल अधिक दिखाई दे रहे थे। दोपहर बाद हम जोंगरी पहुंच चुके थे। वहां हिमपात हुआ था। चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी और ठंड भी अधिक थी। चाय और भोजन का प्रबंध तो हर स्थान पर सरकारी था और हमको भोजन बनाने की आवश्यकता नहीं थी परंतु ऊंचाई के प्रभाव के कारण कुछ भी खाने को मन नहीं कर रहा था। सिर दर्द और मितली इसके असल की निशानी हैं। रात को सोना भी मुश्किल हो जाता है। अगली सुबह कुछ सदस्य आगे बढने से कतरा रहे थे। लेकिन हिम्मत करके सब साथ चल पडे।थानजिंग (12400 फुट) : ऊंचाई वाले ट्रैक का अभ्यास न होने के कारण ऑक्सीजन की कमी कैसे पूरी की जाए, इस बात का ज्ञान मुझे नहीं था। थानजिंग की ओर बढते हुए हमें नरसिंह पर्वत और पंडिम शिखर के भव्य दर्शन हुए। खिली धूप में दोनों पर्वतों पर पडी बर्फ की चमक ज्यादा देर अपनी ओर निहारने नहीं दे रही थी। गंतव्य स्थान तक पहुंचने में हमें ज्यादा समय नहीं लगा क्योंकि जोंगरी की ऊंचाई से हम कुछ नीचे की ओर जा रहे थे और दूरी भी अधिक नहीं थी। सुमति झील (14130 फुट) और जेमाथांग : सुमिति झील को सिक्किम में मिनी मानसरोवर भी कहते हैं। समय-समय पर यहां काले हंस भी दिखाई देते हैं। जेमाथांग भी झील के साथ ही है। अद्भुत नजारा था। प्रकृति ने मानो हम पर कृपा करके मौसम खुशगवार रखा परंतु दोपहर से पहले ही मौसम खराब होने लगा। हमने झील के किनारे अच्छा खासा समय बिताया। 16200 फुट की ऊंचाई पर स्थित गोछा शिखर का प्रतिबिंब झील में पड रहा था। गोछा ला तक शायद ही कोई गया था। दोपहर को हम थानजिंग वापिस लौट आए। युकसम की ओर वापसी शुरू हो चुकी थी। हालांकि झील की खूबसूरती को छोडकर लौटने का किसी का मन नहीं कर रहा था। थानजिंग से सुमति झील के सफर में ही ओंगलाथांग से कंचनजंघा का शानदार नजारा देखा जा सकता है।लामपोखरी (13890 फुट) : अगली सुबह हमने नाश्ता किया तथा फिर कुछ आराम करके ट्रेकिंग शुरू की। दुर्भाग्य से मुझे ऊंचाई का असर महसूस होने लगा था। मुझसे एक कदम भी आगे चला नहीं जा रहा था। कुछ साथियों ने सहारा देने की कोशिश तो की लेकिन मुझसे चला नहीं जा रहा था। मैं बैठा रहा और पहले दल के सदस्य और फिर दल के उपनेता और नेता भी चुपचाप आगे निकल गए। अंत में सबसे धीमे चलने वाले दो सदस्य डाक्टर यादव और प्रोफेसर शेखर मेरे पास आए। मेरी हालत को गंभीरता से लेते हुए वे दोनों वहीं रुक गए। उनके साथ एक पोर्टर भी था। पहले तो डाक्टर यादव ने मुझे मीठा पेयजल खूब पिलाया ताकि पानी से मेरे अंदर आक्सीजन की मात्रा बढाई जाय। फिर मुझे सुला दिया। लगभग डेढ घंटा मैं सोया रहा और वे तीनों भी मेरे समीप बैठे रहे। अंत में उन्होंने निर्णय लिया कि मुझे थानजिंग वापिस ले जाया जाए। डाक्टर यादव और पोर्टर ने कष्ट उठाते हुए सहारा दे देकर कैंप तक पहुंचाया। प्रोफेसर शेखर धीरे-धीरे आगे बढते रहे ताकि डाक्टर यादव उनसे वापिस आ मिलें। रात हो चुकी थी। डाक्टर और पोर्टर मुझे कैंप में पहुंचाकर लामपोखरी की तरफ चल पडे। कैंप लीडर ने वायरलेस सेट से इधर-उधर सूचना देकर पांच पोर्टरों का प्रबंध किया और अगले दिन मुझे वे पोर्टर बारी-बारी से पीठ पर उठाकर किसी छोटे रास्ते से सोका कैंप पर ले गए। यहां पर कम ऊंचाई के चलते मेरी स्थिति सुधरने लगी। मैं उन पोर्टरों का आभारी था जिन्होंने ऐसी स्थिति में मेरी सहायता की। पहाड के लोग ऐसे ही मददगार स्वभाव के लिए जाने भी जाते हैं।कस्तूरी ओराल (9880 फुट) : लामपोखरी में रात बिताकर मेरे साथी कस्तूरी ओराल आए और मैं सोका से युकसम पहुंच गया। अगले दिन सभी साथी भी आ मिले। सबने अपनी-अपनी कथा-व्यथा सुनाई और ट्रेकिंग अभियान पूरा होने की खुशी मनाई।ट्रेकिंग शुरू करने से पहले हमने मुंबई से आए दल की एक महिला सदस्य को बीमार होते देखा था। वह आगे नहीं जा सकी थी। उसकी एक साथी लडकी ने उसे अकेला नहीं छोडा और बिना ट्रेकिंग किए अपनी सहेली को लेकर मुंबई लौट गई थी। आयोजकों ने उस लडकी की सराहना तो की ही साथ ही डाक्टर यादव और प्रोफेसर शेखर की भी भूरी-भूरी प्रशंसा की। अगले दिन हमें सिक्किम सरकार के पर्यटन विभाग की ओर से प्रमाणपत्र देकर विदा किया गया। हम गंगटोक होते हुए दिल्ली लौट चले।सिक्किम एक नजर में कैसे : सिक्किम में न तो कोई रेलवे स्टेशन है और न ही हवाई अड्डा। लेकिन बावजूद इसके वहां पहुंचने में कोई मुश्किल नहीं। पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में बागडोगरा हवाई अड्डा सिक्किम के लिए सबसे समीप है। गुवाहाटी, कोलकाता और दिल्ली से रोजाना बागडोगरा के लिए उडानें हैं। हवाई अड्डे से सिक्किम की राजधानी गंगटोक 124 किमी दूर है। यह रास्ता आप सडक मार्ग से भी तय कर सकते हैं और चाहें तो सिक्किम पर्यटन विभाग की बागडोगरा और गंगटोक के बीच हेलीकॉप्टर सेवा का भी फायदा उठा सकते हैं। सिक्किम के लिए सबसे समीप के दो स्टेशन सिलीगुडी और न्यू जलपाईगुडी हैं। गंगटोक से इनकी दूरी क्रमश: 114 व 125 किलोमीटर है। सिक्किम में सडकें अच्छी हैं और दूर-दराज के भी ज्यादातर हिस्से अच्छी सडक से जुडे हैं।परमिट : सीमांत प्रांत होने के कारण विदेशी नागरिकों को यहां आने के लिए इनर लाइन परमिट (आईएलपी) लेना होता है जो उन्हें वीजा के आधार पर मिल जाता है। परमिट सिक्किम पहुंच कर भी मिल जाता है जिसकी अवधि 15 दिन होती है। यह अवधि बढवाई जा सकती है।ठहरने के लिए स्थान: सिक्किम में होटलों और लॉज की कमी नहीं है। प्रत्येक आय वर्ग के अनुकूल रहने के लिए उचित स्थान मिल जाता है। चाहे सरकारी क्षेत्र में या फिर निजी क्षेत्र में।मौसम एवं तापमान : हिमालय की तलहटी में होने के कारण यहां का मौसम अन्य हिमालयी राज्यों जैसा ही है। सर्दियां काफी ठंडी और गरमियां सुहानी। बस बारिश से बचें क्योंकि बारिश में पहाड घूमने का मजा किरकिरा हो जाता है। मार्च से जून और फिर अक्टूबर से दिसंबर तक का समय यहां जाने के लिए सबसे दुरुस्त है।(साभार)