Friday, March 30, 2012

नंदीग्राम- बीते पांच साल, आज भी है ठगी का अहसास

शंकर जालान





पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनपुर जिला का नंदीग्राम इलाके पांच वर्ष पहले भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों द्वारा उठाई गई आवाज के बाद देश ह नहीं दुनिया भर में चर्चा में आया था। यहां पुलिस की गोली से मारे गए १ लोगों की मौत ने राज्य में ३४ सालों से सत्तासीन वाममोर्चा सरकार को अर्श से फर्श पर ला दिया था। राजनीति के पंडितों का कहना है कि नंदीग्राम की घटना के बाद से ही
वाममोर्चा के शासनकाल की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी।
भले ही नंदीग्राम की घटना के बाद राज्य में २०११ में हुए पहले विधानसभा चुनाव में सत्ता क चॉबी तृणमूल कांग्रेस को मिल गई। राज्य में सत्ता बदल गई हो, राजनीतिक पार्टियों के इंडे बदल गए हो, लेकिन राज्यभर के विभिन्न जिलों व गांवों की स्थिति जस क तस है। विशेषकर गोलीकांड की घटना के पांच साल नंदीग्राम की जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है.
भूमि अधिग्रहण आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत करने वालों के साथ-साथ इस घटना में अपने परिवार के सदस्यों को खोने वाले लोगों का कहना है कि उन्हें राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था। दरअसल, आंदोलन का पूरा फायदा तो ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को मिला।
नंदीग्राम के दुखी व गरीब लोगों का कहना है कि हमने अपनी पुस्तौनी जमीन के लिए लड़ाई लड़ी थी, जो जीती ली। इनलोगों ने सवाल उछाला जमीन की लड़ाई जीतने और तृणमूल कांग्रेस को जीताने के बाद भी उन्हें क्या मिला ? नंदीग्राम, सिंगूर व खेजुरी के हिस्से क्या आया ? इन लोगों ने आरोप लगाया कि माकपा समर्थकों ने हमारे घरों में आग लगाई और तृणमूस समर्थकों ने उसमें रोटियां सेंकी।
भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति (बीयूपीसी) के एक सदस्य ने नाम नहीं छापने की शर्त पर शुक्रवार को बताया कि २००७ में जनवरी के पहले सप्ताह में किसानों के हितों के ध्यान में रखते हुए समिति का गठन किया गया था। समिति का काम २००७ में नंदीग्राम व खेजुरी में विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए किसानों की भूमि के अधिग्रहण की अधिसूचना के खिलाफ आवाज बुलंद करना था।
जरा पीछे जाए तो याद आता है कि आंदोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन राज्य सरकार की सह पर पुलिस ने किसानों के खिलाफ बल प्रयोग किया, जिसके बाद यह आंदोलन और तीव्र हो गया. माकपा के खिलाफ लोगों में नाराजगी का लाभ सीधे तौर तृणमूल कांग्रेस को मिला और बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में वह १९७७ से सत्ता में रहे वाममोर्चा को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रही। तृणमूल को सत्ता संभाले नौ महीने से ज्यादा हो गए है, फिर भी नंदीग्रम की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। इस वजह से स्थानीय लोगों में निराशा है।
नंदीग्राम के एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा कि वाममोर्चा को परास्त करने के लिए तृणमूल ने हमारा इस्तेमाल किया। उन्होंने आरोप लगाया कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और क्षेत्र के विकास के लिए अन्य विकास कार्य आपसी मतभेद के कारण रुके हुए हैं.
समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने आरोप लगाते हुए कहा कि सत्ता में आने के बाद तृणमूल का कोई भी विधायक या मंत्री गोलीकांड पर जान गंवाने वाले लोगों के घर नहीं पहुंचे. क्षेत्र के बहुत से लोग अब भी लापता हैं. उस भयावह घटना को भले पांच साल बीत गए हों, लेकिन नंदीग्राम के लोगों को पांच साल पहले जो घाव वह अभी तक भरा नहीं है।
मालूम हो कि जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले किसानों पर २००७ में १४ मार्च को पुलिस ने गोलियां दागी थी, जिसमें १४ लोग कभी न खुलने वाली नींद में सो गए थे।
वैसे तो नंदीग्राम के लोग सामान्य जीवन-यापन कर रहे हैं, बस १४ मार्च की घटना का जिक्र करते ही लोगों की आंखें भींग जाती हैं। इन पांच सालों में सत्ता के गलियारों में बहुत कुछ बदला, लेकिन नंदीग्राम में कुछ नहीं बदला। मानो यहां वक्त थम सा गया हो। वहीं बदहाल सड़कें, परिवहन का पुख्ता इंतजाम नहीं इत्यादि कई समस्याएं यहां मुंह बाएं खड़ी हैं। यहां के लोगों का कहना है कि चाहे माकपा हो या तृणमूल। दोनों ने वायदे तो बहुत किए थे, लेकिन उन्हें पूरा करने को नहीं आ रहा है। इस दौरान अगर हमें कुछ समझ में आया है तो वह यह है कि कभी किसी का मोहरा नहीं बनना चाहि्ए।

Thursday, March 29, 2012

आम लोगों ने कहा- समझ से परे है ममता का यह फरमान

शंकर जालान



कोलकाता। सरकारी व सरकारी सहायताप्राप्त राज्य के विभिन्न पुस्तकालयों में रखे जाने वाले समाचारपत्रों को लेकर राज्य की मुख्यमंत्री व तृणणूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी सरकार के फरमान को विभिन्न पार्टियां जहां गलत बता रही हैं, वहीं आम लोग भी इस आदेश को सहज रूप से गले नहीं उतार पा रहे हैं। आम लोगों का कहना है कि संभवत: देशभर में ममता बनर्जी पहली ऐसी मुख्यमंत्री या किसी पार्टी की प्रमुख होंगी, जिन्होंने इस तरह का फरमान जारी किया है। लोगों का मत है कि समाचार पत्र को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और ममता ने अपने फैसले से इस स्तंभ को ध्वस्त करने की कोशिश की है।
इस बारे में वृहत्तर बड़ाबाजार के कई लोगों से पूछा गया तो लगभग सभी लोगों ने इस गैर जरूरी बताया। लोगों ने कहा- ममता बनर्जी की अपनी पसंद हो सकती है वे निजी तौर पर किसी अखबार को पंसद या नापसंद कर सकती हैं, लेकिन पुस्तकालय में रखे जाने वाले अखबारों के बारे में उनका आदेश सरासर गलत है।
सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट के रहने वाले साधुराम शर्मा ने बताया कि खर्च में कटौती करने के मसकद से मुख्यमंत्री या राज्य सरकार उन पुस्तकालयों को राय दे सकती है कि सरकार तीन या चार या फिर पांच अखबार का खर्च ही वहन करेगी। जहां तक अखबारों के चयन की बात थी यह अगर पुस्तकालय अध्यक्ष पर छोड़ा जाता तो ज्यादा बेहतर होता।
इसी तरह रवींद्र सरणी के रहने वाले आत्माराम तिवारी ने कहा कि संख्या और भाषा तक तो ममता बनर्जी की हां में हां मिलाई जा सकती है। लेकिन ममता बनर्जी ने हिंदी, बांग्ला और उर्दू के अखबारों के नाम का जिक्र कर लोगों को उनके खिलाफ बोलने का मौका दे दिया है। लोगों ने बताया कि मुख्यमंत्री ने अपने फरमान में हिंदी का एक, उर्दू का दो और बांग्लाभाषा के पांच अखबारों को जिक्र किया है। इससे उनकी मंशा साफ हो जाती है कि वे पुस्तकालय में आने वाले लोगों को वही पढ़ाना चाहती है, जो उनके या उनकी सरकार के पक्ष में हो।
वहीं, पेशे से वकील कुसुम अग्रवाल का कहना है कि आर्थिक तंगी तो एक बहाना है। बात दरअसल पैसे की होती तो ममता पुस्तकालयों में केवल अंग्रेजी अखबार रखने की वकालत करती। क्योंकि हिंदी, बांग्ला और उर्दू की तुलना में अंग्रेजी अखबार सस्ते हैं। मजे की बात यह है कि रद्दी में भी अंग्रेजी अखबार अन्य भाषाओं के अखबार की अपेक्षा अधिक कीमत पर बिकते हैं।
ध्यान रहे कि ममता ने जिन तीन भाषाओं के आठ अखबारों के नाम का उल्लेख किया है, वे कहीं ना कहीं तृणमूल कांग्रेस से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। ममता द्वारा सुझाव गए आठ अखबारों के नामों में से हिंदी, बांग्ला और उर्दू अखबार के प्रमुख को ममता ने ही में पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेजा है।

Thursday, March 22, 2012

कभी नहीं भूलेंगे यह काली रात

शंकर जालान




उत्तर कोलकाता स्थित हाथीबागान बाजार में बुधवार रात लगी आग की लपटों से आर्थिक रूप से चौपट हुए दुकानदारों का कहना है कि बुधवार की यह काली रात वे जिदंगी में कभी नहीं भूलेंगे। यह वह रात है, जिसकी सुबह उनके जीवन में उजाले की बजाए अंधेरा लेकर आई थी। आग में अपनी-अपनी दुकानों में रखे सामान की राख में तब्दील होते देख ज्यादातर दुकानदारों की आंखू से आंसू निकल रहे थे। पीड़ित दुकानदारों ने कहा कि हाथीबागान इलाका बांग्लाभाषी क्षेत्र है और करीब २० दिन बाकी पोइसा बैशाख यानी बांग्ला नववर्ष। इसी के मद्देनजर इनदिनों कई दुकानों में चैत्र सेल चल रही थी और इन दुकानों भारी मात्रा में स्टॉक रखा था, जो बुधवार को लगी आग की भेंट चढ़ा गया। प्रभावित दुकानदारों ने जनसत्ता को बताया कि वैसे तो साल के बारह महीने इस बाजार में ग्राहक खरीदारी के लिए आते हैं, लेकिन में वर्ष में दो मौके ऐसे आते हैं, जब ग्राहकों का तांता लगा रहता है और हम जैसे दुकानदारों को फुसर्त नहीं मिलती। एक दुर्गापूजा और दूसरा पोइला बैशाख। उनलोगों ने इस बार का नया साल यानी पोइला बैशाख हम जैसे सैंकड़ों दुकानदारों को ऐसा उपहार दे गया, जिसे हम जीते जी नहीं भूल सकते। आग में सब कुछ गवां चुके लोगों ने बताया कि हम मध्य कोलकाता के नंदराम मार्केट में लगी आग भयावह आग की घटना को भूले नहीं। नंदराम मार्केट में लगी आग को लगभग चार साल हो गए हैं और आज भी वहां के दर्जनों दुकानदार अपने हक व अपनी रोजी-रोटी के लिए सरकारी कार्यालयों के चक्कर काट रहे हैं। ऐसे में उन्हें नहीं लगता महज तीन सप्ताह के भीतर यानी पोइला बैशाख से पहले वे लोग दुकानें खोल पाएंगे।
हाथीबागान बाजार के तीन नंबर गेट के पास अस्थाई दुकान लगाकर स्टील के बर्तन बेचे वाले अनुपम दास ने कहा कि सोमवार को ही उसने अपने कुछ कैटिरंग चलाने वाले ग्राहकों के कहने पर डढ़े लख रुपए के फैंस बर्तन मंगवाएं थे और शनिवार बर्तनों का आसनसोल के लिए ट्रांसपोर्ट में लगाना था। बीते दो दिनों से कार्टुनों में बर्तनों की पैकिंग की जा रही थी। इसके अलावा भी उनकी दुकान में करीब दो लाख का माल और रखा था, जो अब स्वाहा हो चुका है। अपनी तकदीर को कोसते हुए उन्होंने बताया कि हमारी कोई अस्थाई और पक्की दुकान नहीं है। इसलिए हमें बैंक से ऋण नहीं मिलता। हां, २०-२२ सालों से लगातार एक ही स्थान पर दुकान लगाने के कारण बाजार के कुछ ऐसे लोगों से पहचान हो गई है, जो व्याज में रुपए उधार देते हैं। उन्होंने कहा कि महाजन को आग से कोई मतलब नहीं है। मुझे यहीं चिंता सताएं जा रही है कि अगले महीने में उन्हें उधार के सवा लाख रुपए कैसे दे पाऊंगा।
कपड़ा की दुकान चलाने वाली चेताली राय ने बताया कि चैत्र सेल के मद्देनजर एक दिन पहले ही उन्होंने हावड़ा के मंगलाहाट के काफी खरीदारी की थी। करीब ७० हजार का माल बुधवार सुबह ही उनकी दुकान पर पहुंचा था और वृहस्पतिवार सुबह आते-आते सब खत्म हो गया। आंखों से टपकते आंशूं के बीच चेताली देवी ने कहा कि इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जिस कपड़ों को यह समझ कर खरीदा था कि इन्हें बेचकर रुपए में तब्दील करेंगे वे कपड़े राख में बदल गए।
लगभग इसी तरह का दुख प्रकट करते हुए मुंशीलाल (फल विक्रेता), सागर कुमार (सब्जी विक्रता), संजय जायसवाल (अंडा बेचने वाला), सुकुमारी माझी (मछली बेचने वाली), प्लास्टिक के सामानों के दुकान के मालिक (ओमप्रकाश साव), विद्युत चक्रवर्ती (तेल-घी की दुकान के मालिक), अनुपम दास (मिट्टी के बर्तन बेचने वाले) ने कहा कि चाहे दमकल विभाग हो या कोलकाता की पुलिस या फिर राज्य सरकार ही क्यों न हो। उनके नुकसान की भरपा करने वाला कोई नहीं है। इनलोगों ने कहा- हमने महानगर में हुई कई अग्निकांड की घटनाओं में उनलोगों ने देखा है कि पीड़ित लोगों के लिए ईमानदारी से कोई पहल नहीं होती। जब तक धुआं उठता है विभिन्न दलों के नेतागण बयानबाजी और बड़ी-बड़ी बातें करते रहते हैं। जैसे ही धुआं बंद हुआ और मलवा उठा, ये नेता और सरकारी अधिकारी मदद करने की बजाए हम पर ही अंगूली उठाने लगते हैं। मसलन बाजार का रख-रखाव ठीक नहीं था। बिजली के तार तरीके से नहीं लगे थे। फायर लाइसेंस में त्रुटियां थी। ट्रेड लाइसेंस का नवीनकरण नहीं होगा। इन्हीं सब कानूनी दांवपोंच में उलझा कर जले पर मरहम लगाने का नहीं, बल्कि नमक छिड़कने का काम करते हैं।

Thursday, March 15, 2012

भूमि कटान की गंभीर समस्या

शंकर जालान


राज्य के विभिन्न जिलों में भूमि कटान की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है। उत्तर बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में नदी के जल स्तर के भू-भाग पर अतिक्रमण के कारण हर वर्ष यहां के हजारों लोगों के अपनी जमीन और अपने आशियाना खोना पड़ा रहा है। वहीं दक्षिण चौबीस परगना जिले के सुंदरवन व मालदा जिले के कुछ गावों में नदियों का बढ़ता दायरा खतरे की दस्तक दे रहा है। इस बाबत मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु पर हो रहे बदलाव की वजह ऐसा हो रहा है। विशेषज्ञों की माने तो बीते दस साल में बंगाल के तटवर्ती क्षेत्रों में भूमि कटान की समस्या पनपी है, जो धीरे-धीरे गंभीर रूप धारण करती जा रही है। मौसम के जानकार का कहना है कि वायुमंडल का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसी के फलस्वरुप ग्लेशियर तेजी से पिघल रही है, जिससे नदियों की धारा तीव्रता से बढ़ गई है और वह अनियंत्रित होकर भू-भाग पर अतिक्रमण कर रही है। इस सिलसिले में विशेषज्ञ अरुण दास का कहना है कि भू-कटान की समस्या केवल बंगाल या भारत की नहीं, बल्कि विश्वभर के कई देश इससे जूझ रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि सभी देश इस रोकने के लिए एक जुट होकर प्रयास करे।
उन्होंने बताया कि उत्तर बंगाल में भू-कटान की सबसे ज्यादा प्रभाव महानंदा वन्य जीव अभयारण्य पर पड़ा है। इस अभयारण्य से आधा से ज्यादा हिस्से पहले ही पानी की चपेट में आ चुका है। दास के शब्दों में इस वजह से वनांचल सीमित हो रहे हैं, जिससे वहां रहने वाले वन्य जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ा गया है।
मालूम हो कि सैकड़ों किलोमीटर में फैले इस वन क्षेत्र में गैंड़ा, तेंदुआ. हिरण की कई दुर्लभ प्रजातियों का वास है। इसके अलावा यहां साल व सागौन के हजारों पेड़ भी हैं।

Monday, March 12, 2012

जहां, दुकान आती है ग्राहकों के पास

शंकर जालान



कोलकाता। पापी पेट के लिए मेहनतकश और घूम-घूमकर फेरी करने वाले लोग क्या-क्या नहीं करते। वृहत्तर बड़ाबाजार के विभिन्न गलियों में इसकी अनोखी मिसाल देखने को मिलती है। कहीं माथे पर तो कहीं कंधों पर जिंदगी की दुकान चलती है। मजे की बात यह है कि लोग दुकानों के पास चलकर नहीं जाते, बल्कि दुकानें या दुकानदार खुद ग्राहकों के पास आते हैं। बड़ाबाजार के लगभग हर गली-कूचे में ऐसा नजारा देखने को मिल जाएगा। जहां रोजाना कंधे पर तराजूनुमा डाला या माथे पर पानीपुड़ी की टोकरी वाले समेत सैकड़ों लोगों को खाने-पीने की चीजें बेचते देखा जा सकता है। इनमें पानीपुड़ी, झालमुड़ी, समोसा, खस्ता कचौड़ी, पापड़, सुआली, दही बड़ा से लेकर पावरोटी, सैंडविच व टोस्ट तक शामिल हैं। धूम-धूमकर तराजूनुमा दुकान समोसा, कचौड़ी बेचने वाले सुशील कुमार ने बताया कि इन्हें तैयार करने से लेकर बेचने तक का सारा काम कंधों पर होता है। एक डाला में स्टोव पर गर्म कड़ाही चढ़ी रहती है, जिसमें दिनभर नमकीनें तली जाती हैं, तो दूसरे पर बड़ी सी परात रहती है जिसमें रखकर समोसा-कचौड़ी को बेचा जाता है।
उन्होंने बताया कि हम डोला लिए (दोपहर बारह बजे से रात दस बजे तक) घूमते रहते हैं। हमें अकेले ही पकाने से लेकर बेचने तक का सारा काम करना पड़ता है। उनके मुताबिक, कुछ फेरीवाले अपने साथ सहायक रखते हैं। उन्होंने बताया कि सुबह से घर पर पत्नी और दोनों बच्चियां तैयारी में जुट जाती है। कचौड़ी में बेसन भरना हो या समोसे में आलू परिवार के लोगों का पूरा साथ मिलता है।
किसी तरह के ग्राहक आपके बनाए समोसे व कचौड़ी खाते हैं? इसके जवाब में उन्होंने बताया कि ग्राहकों की कमी नहीं है। दुकानदार, माल ढोने वाले मजदूर से लेकर विभिन्न वर्ग के लोग उनके ग्राहक हैं। उन्होंने बताया कि कई ग्राहक उनके समोसे व कचौड़ी के मुरीद हैं। कई दुकानदार तो रोज के ग्राहक बन गए हैं।
राजाकटरा, पोस्ता, बड़तल्ला स्ट्रीट, दिगंबर जैन टेंपल रोड, सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट, कलाकार स्ट्रीट, चाइना मार्केट, कैनिंग स्ट्रीट, बागड़ी मार्केट, पगिया पट््टी, सत्यनारायण पार्क, कॉटन स्ट्रीट समेत आसपास के विभिन्न इलाके में इस तरह के फेरीवाले को देखा जा सकता है। इससे जुड़े अमरकांत ने बताया कि वह ओडीशा के कटक के रहने वाला है और पिछले पांच वर्षों से यहां के गली-कूचे में घूम-घूमकर समोसा-कचौड़ी बेच रहे हैं। इससे रोजाना कितने की कमाई हो जाती है? इसके जवाब में अमरकांत ने बताया कि औसतन रोज 250 से 300 रुपए तक की कमाई हो जाती है।
इसी तरह एक अन्य फेरीवाले ने बताया कि उनकी दुकानदारी दोपहर बारह बजे से शुरू होती हैं, क्योंकि उस समय तक बाजार पूरी तरह खुल जाते हैं और इन बाजार से खरीदारी करने ग्राहक अच्छी-खासी संख्या में आते हैं, लिहाजा उनके द्वारा बनाए गए समोसा व कचौड़ी के लिए ग्राहकों की कमी नहीं है। रात आठ-नौ बजे तक सारी चीजें बिक जाती हैं। कंधा जब थक जाता है तो वे डाला को उतारकर स्टैंड के सहारे खड़ा कर देते हैं। उन्होंने बताया कि बरसात के दिनों में परेशानी होती है, क्योंकि सिर पर छत नहीं होती। ज्यादा बारिश होने पर दुकानदारी बंद भी करनी पड़ती है।
स्थानीय एक ग्राहक ने कहा कि ये फेरी वाले बहुत उनके जैसे बहुत से से लोगों के लिए नाश्ते की दुकान है। इन फेरीवालों के पास सभी चीजें हमेशा गर्म मिलती हैं, जो खाने में स्वादिष्ट लगती हैं। उन्होंने बताया कि समोसा व कचौड़ी इनके पास तीन रुपए में मिल जाती हैं, जिसकी कीमत दुकानों में पांच से छह रुपए के बीच है।

Saturday, March 10, 2012

आधुनिकता ने छीना कईयों का निवाला

शंकर जालान



कोलकाता। आधुनिकता ने जहां मनोरंजन के नए-नए साधन उपलब्ध कराए हैं। वहीं, बहुत से लोगों के मुंह से निवाला छीनने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। टेलीविजन के अलावा कई तरह के मनोरंजन के साधन आ जाने से मदारी, सपेरे, बहुरुपिए समेत खिलौना बेच कर रोटी-रोटी कमाने वाले लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं। रही-सही कसर वन विभाग के कानून ने पूरी कर दी है। वन्य जीव कानून के तहत सांप, बंदर व भालू पकड़ने और उसका खेल दिखाने पर रोक लगने का बाद असंख्य सपेरे, मदारी व भालू का खेल दिखाने वाले लोग इन दिनों गर्दिश के दौर से गुजरते हुए भुखमरी की कगार पर हैं। दो-तीन दशक पहले जब सपेरे कंधे पर बांक और बांक के दोनों छोर पर रस्सी से बंधी टोकरी के साथ बीन बजाते हुए या डमरू बचाते हुए बंदर-भालू का खेल दिखाने वाला मदारी किसी गली मुहल्ले में प्रवेश करता था तो अनगिनत बच्चे एकत्रित हो जाते थे। बीन की तान पर सपेरे सांप का खेल हो या डमरू की डमडम पर बंदर अथवा भालू का खेल दिखाकर ये मदारी कुछ कमाई कर लेते थे और उसी पैसे से अपने व अपने परिवार के लोगों को पालन-पोषण करते थे। भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद टेलीविजन ने घर-घर में कब्जा जमा लिया है। कार्टून व चटपटे कार्यक्रम देखने में व्यस्त बच्चे सांप, बंदर या भालू का खेल देखने में अब दिलचस्पी नहीं लेते। इसी कारण अब न तो पहले की तुलना में सपेरे और मदारी दिखाई देते हैं न बीन की तान या डमरू की आवाज ही सुनाई देती है और न सांप, बंदर या भालू का खेल कहीं दिखने को मिलता है।
मूल रूप से गुजरात के रहने वाले 48 साल के रसिक दास (सपेरे) ने बताया कि वे बीते 25 साल से महानगर कोलकाता में बीन बजा कर सांप का खेल दिखाते आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि पहले दिन भर में 8-10 स्थानों पर खेल दिखा कर एक-डेढ़ सौ रुपए कमा लेते थे, उसमें 15-20रुपए सांप को दूध पीलाने में खर्च करने के बाद पत्नी समेत तीन बच्चों का गुजरा हो जाता था, लेकिन इन दिनों टेलीविजन और वन विभाग के नए कानून ने इनके लिए न सिर्फ मुसीबत खड़ी कर दी है, बल्कि मुंह से निवाला भी छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दास ने बताया कि उनके पिता रौनक दास ने उन्हें बीन बजाना और सांप का खेल दिखाना सिखाया था, लेकिन अब वह स्थिति नहीं कि मैं अपने बच्चों के हाथ में बीन पकड़वाने की सोचूं। उन्होंने बताया कि करीब दस साल पहले हम जैसे सपेरे ने मिलकर सांप और सपेरा एकता मंच का गठन किया था, लेकिन यह मंच हमारी आवाज को बुलंद करने में नाकामयाब रहा। इसके कारण का खुलासा करते हुए उन्होंने कहा-मंच के अधिकारी शिक्षा के अभाव में हमारी समस्याओं को सही तरीके से नहीं उठा पाते। लिहाजा हमारा खेल चौपट होता जा रहा है और हमारी हालत बदतर होती जा रही है।
32 वर्षीय चमनलाल (बंदर का खेल दिखाने वाले) ने बताया कि उनके पास प्रशिक्षित बंदर और बंदरी के तीन जोडों हैं। बावजूद इसके उन्हें सप्ताह में तीन दिन आधा पेट खाना खाकर सोना पड़ता है। उन्होंने बताया कि 16 वर्ष की उम्र से वे महानगर कोलकाता के वृहत्तर बड़ाबाजार में डमरू बजाकर बंदर-बंदरी का करतब दिखाते आ रहे हैं, लेकिन बीते पांच-छह सालों से ऐसा लगने लगा है कि अब तक मैंनं डमरू बजाकर बंदर को नचाया और दशर्कों ने ताली बजाई, लेकिन अब हालात मुझे नचा रहा है और समाज ताली बजा रहा है।
यही हाल भालू का खेल दिखाने वाले अशोक कुमार का है। 58 साल के अशोक कुमार भी कमोवेश बंदर का खेल दिखाने वाले चमनलाल सपेरे रसिक लाल की भाषा में ही बात करते हैं। यह पूछने पर कि पहली जैसी आमदनी न होने पर भी आप भालू लेकर गली-गली क्यों घूमते हैं? कोई दूसरा कारोबार क्यों नहीं करते? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि जब से होश संभाला है तब से भालू नचाकर बच्चों को खुशी प्रदान करते आ रहा है, अब जीवन के अंतिम पड़ाव में क्या धंधा बदलू।
वहीं, तरह-तरह का रूप धारण करने वाले बहुरुपिए और धूम-धूम कर बच्चे के खिलौना बेचने वाले लोग की रोजी-रोटी भी इन दिनों खतरे में है। स्वांग रचने वाले बहुरुपिए और खिलौना बेच परिवार का भरण-पोषण करने वाले लोग भी पुराने दिनों को याद करते हुए आंसू बहाते हुए नजर आते हैं। आधुनिक युग में बैलून, चरखी, बांसुरी, मुखौटे समेत विभिन्न तरह के बाजे व गुड़िया (पुतुल) जैसे पारंपरिक खिलौना की बिक्री लगभग बंद हो गई है।
शिव ठाकुर गली के रहने वाले 54 साल के रामप्रसाद दुबे ने बताया कि 30-32 सालों से बड़ाबाजार की गलियों में धूम-धूम कर खिलौना बेच रहे हैं। उन्होंने बताया कि 5-6 साल पहले तक दिनभर में 80-90 रुपए कमा लेते थे। अतीत के दिनों को याद करते हुए उन्होंने बताया कि वे जब बांसुरी बजाते हुए एक गली या मकान में प्रवेश करते थे तो अपनी-अपनी पसंद के खिलौना लेने के लिए बच्चों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। कोई 50 पैसे की सीटी से खुश होता था तो कोई पांच रुपए की बांसुरी से । कोई बच्ची अपने अभिभावक से गुड़िया खरीदकर देने की जिद करती थी तो कोई बच्चा बैलून खरीदने को कहता था। कुल मिलाकर दिनभर में परिवार का पेट भरने लायक कमाई हो जाती थी। उन्होंने बताया कि बैटरी चालित खिलौने के अलावा टेलीविजन पर आने वाले कार्टून शो ने बच्चों का ध्यान हमारी तरफ से लगभग हटा दिया है। और तो और बड़ी-बड़ी मल्टीस्टोरेज बिल्डिंगों में खड़े गार्ड उन्हें मकानों में प्रवेश नहीं करने देते, इसलिए उन्हें ग्राहकों के इंतजार में सकड़ के किनारे खड़ा रहना पड़ता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आधुनिक युग ने जहां हमें सुख-सुविधा मुहैया कराई है वहीं, समाज के एक वर्ग को दाने-दाने के लिए मोहताज कर दिया है।

Friday, March 9, 2012

होली के दिन जब दिल खिल जाते हैं..

शंकर जालान




होली के दिन जब दिल खिल जाते हैं.., रंग बरसे भीगे चुनर वाली.., होली आई रे कन्हाई.., जग होली ब्रज होला...आदि गीतों की ऐसी पंक्तियां हैं, जिसे सुनते ही होली के त्योहार की कल्पना से मन झूम उठता है। अब जब मार्च महीना शुरू हो गया है और होली में दो दिन ही बाकी बचे हैं। इस लिहाज से बाजारों में होली के सामान की दुकानें सज गई हैं। इस बार बाजार में चाइना से आयातित होली के सामान की बहुत सी किस्म मौजूद है और वो भी देखने में आकर्षक व सस्ती। होली पर शहर का माहौल रंगीन होने लगा है। क्या बच्चे, क्या युवा और क्या महिलाएं सभी होली की तैयारियों में जुट गए हैं। बाजार भी होली के रंगों और पिचकारियों से सज चुके हैं।
इन दिनों महानगर समेत आसपास के जिलों के बाजार होली से संबंधित सामग्री से पटे पड़े हैं। इन बाजारों में चाइना में बनी पिचकारियों का ही दबदबा है। छोटे बच्चे से लेकर बड़े और हर वर्ग के लिए पिचकारी उपलब्ध है। छोटे बच्चों के लिए म्यूजिकल पिचकारी, मिक्की माउस, स्पाईडर मैन, फिश, ऐनक व डायनासोर की आकृति में बनी पिचकारियां बिक रही हैं। वहीं, बड़ों के लिए बड़े-बड़े टैंकर जैसी पिचकारियों से बाजार पटा पड़ा है। खास बात यह है कि इस बार स्टील व पीतल से बनी पिचकारी न के बराबर ही है। बाजार में प्लास्टिक से बनी पिचकारी ही अत्याधिक देखने को मिल रही है, जिनकी कीमत 20 रुपए से लेकर पांच सौ रुपए तक है।
बड़ाबाजार में होली की सामग्री बेच रहे एक दुकानदान ने बताया कि होली में गुब्बारे तो हर बार ही देखने को मिलते हैं, पर इस बार रंग-बिरंगे गुब्बारों की पैकिंग के साथ एक टैप भी मिल रही है, जिसे नल पर चढ़ा कर गुब्बारों में आसानी से पानी भरा जा सकता है। इन गुब्बारों के पैकेट की कीमत 30 रुपए से शुरू होती है। उन्होंने बताया कि एक पैकेट पर 50 गुब्बारें होते हैं।
नूतन बाजार स्थित पिचकारी दुकान के मालिक का कहना है कि होली के सामान में इस बार अत्याधिक चाइना में बना सामान ही आया है, जिसकी खासियत सस्ता होना व कलरफुल लुक होना है। उन्होंने बताया कि होली में अब दो दिन ही बचे हैं, इसीलिए ग्राहकों की भीड़ बढ़ गई है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि बच्चों में फिश व ऐनक स्टाइल की पिचकारी खरीदने का रूझान देखने को मिल रहा है।
व्यापारियों के मुताबिक संगठित क्षेत्र नहीं होने के कारण होली के बाजारों का सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं होता है, लेकिन एकअनुमान के तौर पर होली के उत्पादों का बाजार देश भर में पांच हजार करोड़ रुपए का है। जबकि कारोबारियोंका अंदाजा है कि इस साल होली के दौरान देश भर में दो हजार करोड़ रुपए के रंगों को घोल दिया जाएगा। पिछले चार-पांच सालों में लोगों की पिचकारियों में हर्बल कलर ने भी अपनी खास जगह बनाई है। हालांकि इस बाजार में चाइना की हिस्सेदारी भी बढ़ती जा रही है। व्यापारियों का कहना है कि कम कीमत होने के कारण ग्रामीण इलाकों में चाइना से आयातित सामग्री की मांग बढ़ती जा रही है। रसायन व्यापार संघ के मुताबिक सिर्फ कोलकाता में पांच से छह करोड़ रुपए के रंगों की बिक्री होने का अनुमान है।

आखिर कब सार्थक होगा महिला दिवस

शंकर जालान



विश्व महिला दिवस यानी आठ मार्च। फिर आ गया वह एक दिन जो महिलाओं के सम्मान और आत्म रक्षा व आत्म निर्भरता के लिए मनाया जाता है। प्रश्न यह है कि क्या दिवस मना लेने भर से महिलाओं को वह अधिकार व सम्मान मिल जाएगा, जिसकी वे हकदार हैं। आखिर क्या औचित्य है महिला दिवस का। आठ मार्च केवल महिलाओं के लिए और सिर्फ महिलाओं के नाम क्यों? इसलिए कि इस दिन हम महिलाओं का सम्मान कर सकें, उनकी महिमा का बखान कर सकें, उन्हें यह एहसास दिला सकें कि कितनी अमूल्य हैं, जो वंश को बढ़ाती हैं, एक ममतामयी मां, एक प्यारी बेटी, बहन, सच्ची जीवनसाथी और दो परिवारों के बीच एक सेतु की तरह। नहीं वर्ष में एक दिन ऐसा कर लेने और कह देने भर से महिलाओं को समुचित अधिकार कतई नहीं मिल सकता।
महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अपराधों ने उनकी सुरक्षा पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। फरवरी महीने में ही राज्य के विभिन्न जिलों में हुई बलात्कार की नौ घटनाओं ने (जो प्रकाश में आईं) महिलाओं पर सोचने को मजबूर कर दिया है। इस बाबत कई महिलाओं का कहना है कि जब सूबे की मुख्यमंत्री एक महिला हो ऐसे में महिला की अस्मत पर खतरा मंडराता रहे, इसे ठीक नहीं कहा जा सकता।
गोलाघाटा इलाके की वंदना देवी ने बताया कि अब कहीं अकेले जाने से पहले हमें दस बार सोचना पड़ता है। हरदम डर बना रहता है कि कब, कहां, कौन-सा भेड़िया ताक लगाए बैठा है कि शिकार मिलते ही उस पर टूट पड़े और दुखद यह है कि जब रक्षक भी भक्षक भूमिक में आ जाए तब हम किससे मदद की गुहार लगाएं? वंदना देवी ने कहा- मैं मानती हूं कि सारे पुरुष और समाज के सभी लोग ऐसी सोच वाले नहीं होते और वे नारियों को वह सम्मान देते हैं जिनकी वे हकदार हैं, पर जिस तरह एक सड़ी हुई मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है उसी तरह ऐसा कृत्य करने वाले पुरुष सारे सभ्य वर्ग के लिए एक कलंक हैं।
दक्षिण कोलकाता की रहने वाली दीपा कुमारी ने कहा कि सिर्फ नाम के लिए महिला दिवस मना लेना ही काफी नहीं है। सही मायने में महिला दिवस तब सार्थक होगा जब असलियत में महिलाओं को वह सम्मान मिलेगा जिसकी वे हकदार हैं। उन्होंने कहा- सभी महिलाओं को निश्चित तौर पर दो कानूनों को अवश्य जानना चाहिए। इनमें पहला है सूचना के अधिकार का कानून और दूसरा घरेलू हिंसा रोकथाम कानून। ये दोनों कानून सामाजिक तौर पर महिलाओं को अधिकार देते हैं। सभी महिलाओं के लिए जरूरी है कि वे इन कानूनों के बारे में जानें। कहने का अर्थ है कानून की सीधी सरल जानकारी और इसके लिए किसी समीक्षा की जरूरत नहीं है। इससे उन्हें कानूनों के बुनियादी प्रावधानों को जानने में मदद मिलेगी और वे इस जानकारी के भरोसे आत्मनिर्भर बनेंगी।

Saturday, March 3, 2012

कलर कोड कोलकाता

शंकर जालान


पढ़ा है कि रंगों का जीवन में बड़ा महत्व होता है, लेकिन किसी शहर के लिए सत्ताधारी राजनीति दल की ओर से कलर कोड का फरमान जारी करने की घटना देश की पहली घटना है, जिसे पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस शासित सरकार ने जारी किया है। पश्चिम बंगाल की नई सरकार के नए फरमान में कोलकाता शहर को नीला शहर (ब्लू सिटी) बनाने की बात कही गई है।
जानकारों का कहना है कि माक्र्सवादियों की पिछली सरकार को जहां लाल रंग पसंद था। अब वहीं पश्चिमी बंगाल की नई मुख्यमंत्री ममता बनर्जी गुलाबी नगरी (पिंक सिटी) जयपुर की तर्ज पर कोलकाता को नीले रूप में देखना चाहती हैं। इसके लिए ममता बनर्जी सभी सरकारी भवनों, फ्लाईओवर्स, सड़क किनारों की रेलिंग तथा टैक्सियों को हल्के नीले रंग में रंगा हुआ देखना चाहती हैं।
राज्य के शहरी विकास मंत्री फरिहाद हाकिम ने शुक्रवार को बताया कि उनकी नेता ममता बनर्जी ने निश्चय किया है कि रंगों के विषय-वस्तु के रूप में कोलकाता शहर का रंग नीला होना चाहिए क्योंकि नई सरकार की थीम ‘आकाश की सीमा’ है। उन्होंने कहा कि वह निजी भवन मालिकों से भी अनुरोध करेंगे कि वे भी नीले कलर के ‘पैटर्न’ का पालन करें। उन्होंने कहा कि इस संबंधी जरूरी सरकारी आदेश जल्द जारी किए जाएंगे।
कोलकाता के मेयर और ममता बनर्जी के करीबी शोभन चटर्जी ने शुक्रवार से बातचीत में कहा कि अब शहर के फुटपाथ से लेकर फ्लाईओवर, जीर्ण-क्षीर्ण पार्क और पटरियां को सफेद और नीले रंग के नपे तुले इस्तेमाल से शहर को नया रूप दिया जाएगा।
चटर्जी ने बताया कि राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस पार्टी अपनी राजधानी के लिए एकसमान रंग संयोजन को आवश्यक समझती है। उनके मुताबिक सफेद और नीले का चयन ध्यानपूर्वक उनकी गैर-विवादास्पद विशेषताओं को देखते हुए किया गया है।
उनका दावा हैं कि इस कदम का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि राज्य सरकार के फैसले पर कदाचित क्षेत्रीय राजनीति का प्रभाव है।
लाल रंग का से कोलकाता के बीते वक्त से संबद्ध रहा है। जिसका सटीक उदाहरण वाममोर्चा का ३४ सालों का राज है। जिसने राज्य पर लगातार तीन दशकों से ज्यादा लंबे समय तक शासन किया। जानकार मानते हैं कि ममता बनर्जी का यह कदम बंगाल को उसकी लाल विरासत से छुटकारा दिलाने का प्रयास है।
जानकारों की माने तो तृणमूल कांग्रेस का चिन्ह तिरंगा है। सफेद के अलावा इन दोनों रंगों (भगवा और हरा) के अपने-अपने राजनीतिक नुकसान हैं। भगवा को भाजपा से जोड़कर देखा जाता है और हरे को इस्लाम के साथ। इसी लिए ममता ने चतुराई के साथ कोलकाता को नीला शहर बनाने का एलान किया है।
राज्य सरकार ने शहर में रंग-संयोजन के लिए आठ सौ मिलियन डालर आवंटित किए हैं। तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने अनुमानित लागत पर टिप्पणी करने से इन्कार कर दिया।
पश्चिम बंगाल का पर्यटन मंत्रालय बेशक सरकार के इस कदम से प्रसन्न हो, लेकिन हर कोई नीले और सफेद के रूपांतरण को खुले दिल से नहीं ले रहा। शहर को नीले रंग में रंगने की मुहिम में सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर शहर की पीली टैक्सियों को सफेद और नीले रंग में बदलने का फरमान सुना दिया है।
यह हमारी पहचान को बदल देगा- यह कहना है टैक्सी चालक करतार सिंह का। उन्होंने कहा कि पीली टैक्सियां पिछले पांच दशकों से ज्यादा लंबे समय से शहर में दौड़ रही हैं। पेंट के लिए पैसा आवंटन करने की बजाय, सरकार राज्य परिवहन में पैसा खर्च कर सकती थी।
विपक्ष ने सरकार की इस सौंद्रीयकरण योजना की खंचाई करते हुए इसे धन की बर्बादी करार दिया है। राज्य के परिवहन मंत्री मदन मित्र की दलील है कि टैक्सियों और बसों को एक ही रंग में रंगने पर कलर थीम में समानता आएगी और महानगर का सौंदर्य कई गुना बढ़ जाएगा. लेकिन बंगाल टैक्सी एसोसिएशन ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया है. एसोसिएशन के सचिव विमल गुहा कहते हैं- टैक्सी का रंग बदलने में लगभग सात हजार रुपए खर्च होंगे. टैक्सी मालिक यह खर्च उठाने की स्थिति में नहीं हैं।
जहां तक आम लोगों का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया मिलीजुली है. एक निजी दफ्तर में काम करने वाले कर्मचारी का कहना है कि नया रंग अच्छा ही लग रहा है. इससे शहर की सुंदरता निखर गई है। वहीं एक बुजुर्ग हैं कि सरकार यह रकम सड़कों और बसों की दशा सुधारने पर खर्च करती तो बेहतर होता। आम लोग या विरोधी चाहे कुछ भी कहें, सरकार महानगर को ब्लू सिटी में बदलने की अपनी योजना पर दिल खोल कर खर्च कर रही है।
दिलचस्प बात यह है कि कोलकाता नगर निगम ने ममता के इस पसंदीदा रंग यानी सफेद और नीले रंग से अपना मकान रंगवाने वाले तमाम मकान मालिकों को संपत्ति कर में भी छूट देने का फैसला किया है।

अफीम है इनकी जिंदगी

शंकर जालान


कहने को तो आजादी के बाद से ही देश में अफीम का उत्पादन व कारोबार प्रतिबंधित है, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी उत्तर दिनाजपुर जिले के १२ लाइसेंसशुदा नशेड़ियों को सरकार अफीम की आपूर्ति करती है। यह नियम अंग्रेजों के जमाने से ही चला आ रहा है। इन सबों को चिकित्सकों के परामर्श से शारीरिक बाध्यता के चलते अफीम दी जाती है। पहले अफीम की बिक्री के लिए लाइसेंस दिए जाते थे, लेकिन वह नियम अब बंद है। इसीलिए सरकार सीधे ट्रेजरी के जरिए अफीम की आपूर्ति नशेड़ियों को करती है। मालूम हो कि कानूनन अफीम का सेवन, संग्रह या इसकी खेती करना दंडनीय अपराध है। आरोप साबित होने पर दस साल की जेल के अलावा कई लाख रुपए का जुर्माना लग सकता है। हालांकि इन १२ लाइसेंसी अफीमचियों पर यह कानून लागू नहीं होता। अफीम की खेती को हतोत्साहित करने के लिए ही यह कानून बनाया गया है। अंग्रेजों के जमाने में अफीम के कारोबार से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रचुर लाभ अर्जित किया था। उस समय अफीम सेवन के लिए सरकारी लाइसेंस दिए जाते थे। उनमें से ही अब केवल एक दर्जन अफीमची रह गए हैं। इनमें एक महिला भी हैं। नए सिरे से किसी को लाइसेंस नहीं दिए जाते। इन लोगों के पास अफीम हासिल करने के लिए सरकारी राशन कार्ड है। उल्लेखनीय है कि पूरे देश में अफीम या पोस्तो की खेती पर प्रतिबंध है। कानूनी तौर पर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक सरकारी फार्म में अफीम की खेती होती है, जिसका वैज्ञानिक उपयोग भी है। वहीं से इन अफीमचियों के लिए अफीम मंगाई जाती है। इसके अलावा अफगानिस्तान से भी अफीम मंगाई जाती है। अफीम की खेती नहीं की जा सके, इसके लिए इसे पानी में उबाल कर उसे बाजार में पोस्तो के नाम से बिक्री की जाती है। पोस्तो का उपयोग मसाले के बतौर किया जाता है। चूंकि अफीम का सेवन करने वाले इसे छोड़ नहीं सकते इसलिए अंग्रेज सरकार ने यह नियम बनाया था जिसका आज भी अनुपालन करना पड़ रहा है। अफीम मंगाकर सरकारी कार्यालय से इसे कड़ी सुरक्षा के बीच ट्रेजरी भेजा जाता है। वहां से इसे डीलरों के जरिए अफीमचियों तक पहुंचाया जाता है। इन अफीमचियों को प्रत्येक सप्ताह १२ ग्राम अफीम सेवन के लिए दी जाती है। रायगंज के एक अफीमची ने बताया कि अफीम नहीं मिलने पर मृत्यु जैसी यंत्रणा भोग करनी पड़ती है। उन्होंने बताया कि बचपन में इसकी आदत लग गई। अब तो यह इनके लिए जिंदगी बन गई है। सरकार यह अफीम इन्हें मात्र ६० रुपए में उपलब्ध कराती है।