Friday, January 27, 2012

खड़े होकर पढ़ाने का फरमान

शंकर जालान




क्लास रूम में कुर्सी पर बैठ कर नहीं, बल्कि खड़े होकर पढ़ाईए, क्योंकि कुर्सी पर बैठे-बैठे उंघना शुरू होता है फिर नींद आने लगती है'। कुछ इस तरह का अटपटा फरमान दक्षिण कोलकाता के भवानीपुर स्थित खालसा इंग्लिश हाईस्कूल की प्रबंधन समिति की ओर से शिक्षिकाओं के लिए जारी किया गया है। जबकि इस अटपटे फरमान को मानने से इनकार करते हुए शिक्षिकाओं ने कक्षाओं का बायकाट कर स्कूल परिसर में प्रदर्शन किया। वहीं, प्रबंधन समिति फरमान को सही ठहराते हुए इसे न बदलने पर अड़ा हुई है। इस बाबत समिति के एक पदाधिकारी ने बताया कि अनेक बार सीसीटीवी फुटेज में शिक्षिकाओं को क्लास रूम में कुर्सी पर ऊंघते और सोते हुए देखा गया, जिसके बाद सभी कक्षाओं से कुर्सियां हटा ली गईं। अब जारी फऱमान के तहत कक्षाओं में दोबारा कुर्सियां नहीं रखी जाएंगी।
कुर्सी हटाने के खिलाफ प्रदर्शन कर रही शिक्षिका शिखा मुखोपाध्याय के मुताबिक क्लास रूम में ऊंघने के दौरान संबंधित शिक्षिका के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन कुर्सी हटा लेना शिक्षिकाओं का अपमान है। इस फरमान ने विवाद का रूप लिया और देखते ही देखते विवाद प्रदर्शन में बदल गया। सूचना मिलने पर भवानीपुर थाने की पुलिस ने खालसा हाईस्कूल पहुंच कर शिक्षिकाओं और प्रबंधन समिति के लोगों के बीच सुलह कराने की कोशिश की, लेकिन दोनों पक्ष अपनी अपनी मांग को लेकर अड़े हैं। स्कूल बीते कई दिनों से बंद है। जिसे लेकर अभिभावक और बच्चे परेशान हैं। सुना जा रहा है कि इस मुद्दे पर शिक्षिकाएं अदालत का दरवाजा खटखटाने का मन बना रही है।

खाली तिजोरी का रखवाला

शंकर जालान



सुना था कि भरी तिजोरी की चॉबी कोई किसी को नहीं देता और खाली तिजोरी का रखवाला कोई बनना नहीं चाहता। यहां शीर्षक में लिखे खाली तिजोरी का अर्थ पश्चिम बंगाल का वित्त मंत्रालय है और रखवाला का संबंध वित्तीय सचिव से है। वैसे तो बंगाल अर्से से कर्ज के बोझ तले डूबा है, लेकिन जब से कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी है तब से कर्ज का बोझ बढ़ा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि फिलहाल अमित मित्रा राज्य के वित्त मंत्री हैं, जो कभी फिक्की के सचिव हुआ करते थे वे भी राज्य की माली हालत को सुधारने की दिशा में को उल्लेखनीय कार्य नहीं कर पाए। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कोई भी आईएएस अधिकारी राज्य का वित्तीय सचिव बनने को तैयार नहीं है।
गौरतलब है कि मुख्यमंत्री की भूमिका में आने के बाद ममता बनर्जी ने तेज आवाज में कहा - गुजरात, गुजरात है और बंगाल, बंगाल। बंगाल अपने विकास का अपना तरीका ढूंढेगा। करीब आठ महीने के बाद भी बंगाल में कुछ विशेष बदलाव नहीं नजर आ रहा है। नए निवेश को तो भूल जाएं, जो वर्तमान परियोजनाएं हैं, वह भी नहीं आगे बढ़ रही हैं।
राज्य के वित्तीय संकट को देखते हुए खाली तिजोरी (वित्त मंत्रालय) के रखवाले (सचिव) सी एम बच्छावत ने राज्य सरकार से अनुरोध किया है कि उन्हें किसी हल्के पद पर स्थानांतरित कर दिया जाएगा। हालांकि उन्होंने अपने अनुरोध में इसकी वजह निजी स्वास्थ्य बताया है, लेकिन जानकारों मानते हैं कि मामला कुछ और ही है। तभी को वर्तमान में आबकारी विभाग के सचिव एच के द्विवेदी भी यह पद नहीं लेना चाहते। इस सिलसिले में द्विवेदी ने राज्य के मुख्य सचिव समर घोष ने भेंट की और उनसे अनरोध किया कि उन्हें वित्त विभाग को सचिव नहीं बनाया जाए। सूत्रों के मुताबिक द्विवेदी ने घोष से कहा कि फिलहाल राज्य बदतर वित्तीय संकट से गुजर रहा है। उन्हें भरोसा नहीं है कि वे सही तरीके से वित्तीय सचिव की जिम्मेवारी निभा पाएँगे। जानकार मानते हैं कि इसकी वजह बनर्जी की ताबड़तोड़ नीति है।
द्विवेदी ही क्यों अधिकांश आईएएस अधिकारी वित्तीय सचिव का पद लेने से कतरा रहे हैं। वजह साफ है नई सरकार को पुरानी सरकार से विरासत में दो लाख करोड़ रुपए का कर्ज प्राप्त हुआ है। जिसकी भरपाई नई सरकार यानी तृणमूल कांग्रेस को करन है। सूत्रों ने बताया कि ममता ने दिल्ली में अपने राजनीतिक प्रभाव के कारण केंद्र सरकार से नौ हजार करोड़ रुपए का पैकेज हासिल कर लिया है। बावजूद इसके निकट भविष्य में सुधार के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। सरकार ने 30 फीसद विकास दर की जो परिकल्पना सोच रखी है। वह शायद ही पूरी हो। मौजूदा समय में विकास दर महज 14 फसीद है। ऐसी स्थिति में वित्त सचिव पर भारी दवाब रहेगा, खासकर तब जब ममता बिना सोचे-समझे दो लाख पदों क एलान कर दिया है।
भले बनर्जी खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सहित कैबिनेट के कुछ अहम फैसलों को पलटने में भी सफल रहीं लेकिन वह अपने राज्य के लिए कोई बड़ा वित्तीय पैकेज हासिल करने में अब तक कामयाब नहीं हो पाई हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि वित्तीय बदलाव लाने के निश्चय के साथ सत्ता संभालने वाली बनर्जी का राज्य गहरे कर्ज में डूबता जा रहा है। पूरे निवेशक समुदाय की यही मांग है, जो बनर्जी की राजनीति के साथ मेल नहीं खा रही है। ममता सरकार की योजना है कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों सहित औद्योगिक परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण के मामले में सरकार साफ सुथरी रहे। हाल ही में लार्सन ऐंड टूब्रो की एक टीम ममता बनर्जी से मिली, सिर्फ यह कहने के लिए कि अगर वे जमीन, पानी और कोल लिंकेज की सुविधा मुहैया करा दें तो कंपनी बिजली संयंत्र स्थापित करने को इच्छुक है, लेकिन न जाने क्यों ममता टीम को संतोषजनक उत्तर नहीं दिया।
गूंगे और बहरे वित्त मंत्री- कोलकाता राज्य परिवहन निगम (सीएसटीसी) के 6,000 सेवानिवृत्त कर्मचारियों के अचानक पेंशन रोक दिए जाने के सवाल पर पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा ने कहा- कृपया कोई सवाल न करें। वित्त मंत्री गूंगे और बहरे हैं। केंद्र से निकट भविष्य में सहायता न मिलता देख पश्चिम बंगाल सरकार को भारतीय रिजर्व बैंक के बॉन्ड ऑक्शन विंडों से 1,000 करोड़ रुपये जुटाने पर मजबूर होना पड़ा। राज्य सरकार ने 1,300 करोड़ रुपये बाजार से उधार लिए। इसके साथ ही राज्य की वर्तमान वित्त वर्ष में उधारी 18,723 करोड़ रुपये के करीब हो गई है। जबकि इस वित्त वर्ष राज्य की उधार लेने की सीमा 17,828 करोड़ रुपये है, लेकिन राज्य को वित्तीय संकट से उबारने के लिए केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने एफआरबीएम सीमा के अतिरिक्त 2,706 करोड़ रुपये जुटाने की अनुमति दी थी। बढ़ी हुई उधारी की सीमा 20,534 करोड़ रुपये किए जाने के बाद राज्य सरकार अब शेष 3 महीने में 1,811 करोड़ रुपये का कर्ज ले सकती है। इस मामले से जुड़े एक सूत्र ने कहा, 'वर्तमान उधारी सीमा में सरकार के लिए मार्च तक वादे के मुताबिक खर्च करना मुश्किल होगा, अगर कोई विशेष पैकेज नहीं दिया जाता।'
लोकलुभावन कदम - खाली खजाने के बावजूद बनर्जी के लोकलुभावन घोषणाओं में कोई कमी नहीं है। सरकार ने विधानसभा सदस्यों के डीए में प्रति कार्यदिवस 1000 रुपये की बढ़ोतरी की है। इसके बाद ही सरकार ने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी, जिससे राज्य के खजाने पर 250 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। बते दिनों हथियार त्यागने वाले नक्सलियों के लिए सरकार ने लुभावने पैकेज की घोषणा की। सरकार हथियार त्यागने वाले हर सदस्य को तीन साल के लिए 2,000 रुपये प्रतिमाह देगी। सरकार इनमें से प्रत्येक को एकमुश्त 1.5 लाख रुपये देगी, लेकिन यह राशि उनके नाम से बैंक में 3 साल के लिए सावधि जमा के अंतर्गत रहेगी।
राज्य में नई परियोजनाओं पर कोई निवेश नहीं हो रहा है, नई नौकरियों का सृजन नहीं हो रहा है, शायद ऐसे में बनर्जी के वादे बढ़ते असंतोष को टालने में मददगार हो रहे हैं। लेकिन ऐसा कब तक संभव हो सकेगा, ज्यादातर लोग यह सवाल उठाने लगे हैं। बहरहाल इतना तो तय है कि राज्य वित्त सचिव का पद खाली नहीं रहेगा। अब देखना यह है कि कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर इस पद की जिम्मेदारी कौन संभालता है।

Saturday, January 14, 2012

गुरू ही हैं उसके माता-पिता

शंकर जालान



कोलकाता। गुरू बह्मा, गुरू विष्णु...का उच्चाऱण तो पूजा-पाठ के दौरान हर कोई करता है और कहने को लोग गुरू को माता-पिता का दर्जा भी देते हैं, लेकिन हकीकत में गुरू को माता-पिता मनाने वाले आठ वर्षीय नगा साधु भोलागिरि के कहने ही क्या। नंगे बदन, खुली जटा और शरीर पर विभूति (राख) लगाए वह बिंदास कहना है कि उसने संसार को त्याग दिया है, उसका काम अंतिम श्वांस तक प्रभु का नाम जपना है।
हैं ना अचरज की बात। जिस उम्र में बच्चे स्कूल में होना चाहिए। उसके हाथ में कॉपी-पेंसिल होनी चाहिए और जुबान पर किताब का पाठ। वह बच्चा स्कूल की बजाए खुले मैदान साधु-संतों के बीच, कॉपी-पेंसिल की जगह हाथों में चिमटा और किताबों के पाठ के बदले जुबान में राम-राम। लेकिन भोलागिरि को इसमें कोई अचरज नहीं। उसने बताया कि जब उसे मल-मूत्र के त्याग क समझ भी नहीं थी तभी उसकी मां ने उसे आश्रम में दान कर दिया था। आश्रम के प्रमुख महेशगिरि से उसकी देखरेख की और दो साल पहले औपचारिक संस्कार देकर साधु बनाया। उसने बताया कि गुरू यान महेशगिरि से दीक्षा लेते वक्त उसने उन्हें वचन दिया था कि उसका सारा जीवन अब आश्रम को समर्पित रहेगा।
आप को और बच्चों की तरह खोलना, पहनना, स्कूल जाना और धूमना-फिरना अच्छा नहीं लगता? इसके जवाब में भोलागिरि ने कहा कि वह पूरी तरह से सांसारिक मोह-माया से दूर हो चुका है। भौतिक जीवन से उसका कोई लेना-देना नहीं है। वह पूरी तरह आध्यामिक जीवन जीना चाहता है।
आउट्रमघाट में आठ वर्षीय नगा साधु भोलागिरि के दर्शन के लिए शुक्रवार को लोगों का तांता लगा रहा। लोगों का कहना है सर्दी के मौसम में आठ वर्षीय नगासाधु को देखना किस रोमांच से कम नहीं है।

Friday, January 13, 2012

कोई सुन ना ले

शंकर जालान


सालों पुराना एक गाना है - धीरे-धीरे बोल कोई सुन ना ले, सुन ना ले कोई सुन ना ले। इस गाने को चरितार्थ करते हुए राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के राइटर्स बिल्डिंग स्थित कक्ष में अब साउंड प्रूफ दरवाजे लगा दिए गए हैं। सुना जा रहा था कि मुख्यमंत्री को इस बात का शक था कि जब वे मंत्रियों या अन्य लोगों से बातें करती हैं तो बाहर इंतजार में बैठे लोग सुन लेते हैं और उनकी बातें ‘लीक’ हो जाती हैं। लेकिन तृणमूल कांग्रेस के एक नेता व ममता बनर्जी के करीबी का कहना है कि बाहर इंतजार में बैठे लोग जोर- जोर से बोलते रहते हैं, इससे मुख्यमंत्री को डिस्टर्ब होता है, इसलिए साइंड प्रूफ दरवाजे लगाए गए हैं।
इस बात राइटर्स बिल्ंिडंग के एक अधिकारी का कहना है कि कुछ खुफिया किस्म के लोग मुख्यमंत्री की बातों पर कान लगाए रहते थे। मुख्यमंत्री के दरवाजे में फांक थी, इसलिए उनकी बातें बाहर बैठे लोगों को सहज ही सुन लेते थे। वे कुछ ज्यादा ही जोर से बोलती हैं। बीते दिनों साप्ताहिक अवकास के दिन उनके कक्ष में साउंड प्रूफ दरवाजा लगा। वे पार्टी नेताओं से जो भी बातें करती थीं, लीक हो जाती थी। गला, नाक और कान के एक विशेषज्ञ डाक्टर का कहना था कि महिलाओं की आवाज पुरुषों की तुलना में जोरदार होती है। उनकी सामान्य ढंग से की गई बातचीत दूर से ही साफ-साफ सुनी जा सकती है। ममता बनर्जी की आवाज सामान्य से तेज है।
मुख्यमंत्री सचिवालय के एक अधिकारी के मुताबिक ममता बनर्र्जी रविवार को राइटर्स बिल्डिंग नहीं आई थीं। उसी दिन साउंड प्रूफ दरवाजा लगा दिया गया। उन्होंने अपनी कुर्सी बदलने को भी कहा है। वे अब तक रिवाल्विंग चेयर पर बैठती थीं, लेकिन अब वे चाहती हैं कि उनके लिए काठ की कुर्सी लाई जाए, जिसका पीठ वाला हिस्सा ऊंचा हो। ऐसी कुर्सी का इंतजाम जल्दी ही हो जाएगा।
मालूम हो कि इसके पहले मुख्यमंत्री के कक्ष की दीवारें नए सिरे से पेंट की गईं। सारा फर्नीचर नया लगाया गया। दीवार पर रवींद्रनाथ टैगोर का एक पोर्ट्रेट लगाया गया। सादगी में विश्वास करने वाली मुख्यमंत्री के कमरे में काठ की 10 कुर्सियां रखी गई हैं। पुराने प्लाईवुड के कैबिनेट हटा दिए गए और प्रकाश व्यवस्था बेहतर कर दी गई। मुख्यमंत्री अपने कमरे के धीमे प्रकाश से संतुष्ट नहीं थीं।

मनमर्जी यानी ममता बनर्जी

शंकर जालान



मनमानी, मिजाजी, महत्वाकांक्षी, मतलबी, मौकापरस्त और मनमर्जी ये छह ऐसे शब्द हैं, जो ममता बनर्जी पर बिल्कुल फिट बैठते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये छह शब्द मानो ममता बनर्जी के लिए ही बने हैं। वैसे तो हर नेता अपने लाभ या अपनी पार्टी के फायदे के लिए कभी ना कभी इन छहों शब्दों में से किसी ना किसी शब्द का सहारा जरूर नेता हैं, लेकिन जो नेता एक साथ इन सभी शब्दों का अनुशरण करें उसे ममता बनर्जी कहते हैं।
जी हां, पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी और कांग्रेस के बीच जारी गठबंधन पर अब संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इंदिरा भवन का नाम बदलने के मुद्दे पर ममता ने कांग्रेस से साफ-साफ और चुनौती भरे शब्दों में कह दिया है कि वे गठभंधन धर्म की मर्यादा को न मानते हुए अपने हिसाब और अपने मिजाज से खुद चलेगी व राज्य चलाएंगी। उनके मुताबिक चाहे तो कांग्रेस गठबंधन तोड़ सकती है।
राजनीतिक के जानकारों के मुताबिक ममता इसलिए अभी नौ-नौ ताल नाच रही है और कांग्रेस को बौना समझ कर ही क्योंकि पश्चिम बंगाल की सत्ता में बने रहने के लिए उसे कांग्रेस की जरूरत नहीं है।
जानकारों का कहना है कि ममता को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि तिनका को उतना ही मोड़ना चाहिए की वह टूटे नहीं। यानी ममता यह क्यों नहीं समझती कि जैसे बंगाल में उसे कांग्रेस की दरकार नहीं है ठीक वैसे ही केंद्र सरकार को भी तृणमूल कांग्रेस की बैशाखी नहीं चाहिए। यह कांग्रेस आलाकमान की उदारता है कि वह चाहे-अनचाहे ममता की मांगें मान लेती है। अगर ममता कांग्रेस की उदारता को उसकी कमजोरी मान रही है तो कहना गलत नहीं होगा कि ममता को राजनीति में बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। कहने को भले ही तृणमूल कांग्रेस केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में कांग्रेस के बाद संख्या के हिसाब से दूसरी सबसे बड़ी पार्टी हो, लेकिन इस सच को नहीं झुठलाया जा सकता कि दोनों पार्टियों की सांसदों की संख्या में जमीन-आसमान से फर्क है।
एक किस्सा याद आ रहा है कि एक बच्चे ने अपनी पिता से खुशी-खुशी कहा- पिताजी-पिताजी में दौड़ (रेस) में दूसरे स्थान पर (सेकेंड) रहा। पिताजी पूछा- बेटा दौड़ में कितने बच्चों ने हिस्सा लिया था उसके मुंह झुकाकर कहा दो। अब ममता को कौन समझाएं जिस दौड़ प्रतियोगिता में केवल दो लोग भाग ले रहे हो उसमें दूसरे स्थान पर रहना कोई उपलब्धि नहीं है।
कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस की खींचतान पर रहिम का एक दोहा याद आ रहा है।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय।।
कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के रिश्ते कुछ ऐसी ही कगार पर जा पहुंचे हैं। इन दोनों दलों के बीच हालांकि प्रेम कभी न था, सत्तारूढ़ होने के स्वार्थ ने गठबंधन का मार्ग प्रशस्त किया। कहते हैं राजनीति में स्थाई दोस्ती या फिर स्थाई दुश्मनी की उम्मीद रखने की बात कुछ हजम नहीं होती, लेकिन इतनी जल्दी दोस्ती (गंठबंधन) दुश्मनी (टूटने) की कगार पर पहुंच जाएंगी। यह भी किसी को मामूम नहीं था। सही समझा आपने ने हम यहां जिक्र कर रहे हैं पश्चिम बंगाल में सत्तासीन कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के गठबंधन का। जिस गठबंधन ने ३४ सालों तक राज करने वाले और लगातार सात पर चुनाव में अजेय रहने वाली वाममोर्चा को परास्त किया। वहीं गठबंधन सात महीने के भीतर ही बिखर सा गया है। इन सात महीनों में कई बार ऐसे मौके आए जब कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेता एक-दूसरे की खिचाई करते दिखे।
सीटों के बंटवारे के मुद्दों पर हो, कृषकों की समस्या पर हो, केंद्र सरकार पर दवाब की बात हो या फिर राज्य की शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग की बात। इन सभी मुद्दों पर कभी में कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेताओं की एक राय नहीं बन सकी। तभी तो राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री व वर्तमान में विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र ने चुटकी लेते हुए कह दिया- कांग्रेस व तृणमूल नेताओं को गंठबंधन धर्म की समझ नहीं है।
जानकार मानते हैं कि इस समझौते के रिश्ते में सहनशीलता जवाब देने लगी है और संदेह का दायरा बढ़ता जा रहा है, ऐसा लग रहा है कि गठबंधन टूट जाएगा और अगर बचा रहा तब भी गांठ पड़ेगी। ममता बनर्जी और कांग्रेस के बीच खटास बढ़ते देख राजग ने मौके का फायदा उठाते हुए संकेत दे दिए कि वह ममता बनर्जी को शामिल करने तैयार है। इधर सुश्री बनर्जी ने एकला चलो का नारा बुलंद करते हुए ऐलान कर ही दिया है कि चाहे सिंगूर हो या नंदीग्राम वे अकेले ही लड़ते आयी हैं और आगे भी अकेले लड़ने का दम रखती है। आमतौर पर द्वार स्वागत के लिए खोले जाते हैं, लेकिन ममता बनर्जी ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए द्वार खोलने की घोषणा कर दी है। उनकी इस राजनीति का केंद्र में कांग्रेस ने सीधा जवाब नहीं दिया, बल्कि संकेतों में प्रणव मुखर्जी ने स्पष्ट कर दिया कि सवा सौ वर्षों पुरानी कांग्रेस कभी किसी राजनीतिक चुनौती से नहीं डरी है और न डरेगी। जबकि प.बंगाल में कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप भट्टाचार्य ने साफ कह दिया है कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस दोनों को सत्ता में आने का जनादेश प्राप्त हुआ है और जब तक जनता नहीं चाहेगी, तब तक वे वापस नहीं होंगे। भट्टाचार्य कहते हैं कि बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को ४८ फीसद वोट मिले थे, जिसमें तृणमूल का हिस्सा ३७ व कांग्रेस का ११ फसीद था और वाममोर्चा को ३८ फीसद वोट मिले थे। यानी तृणमूल से एक फीसद अधिक। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने गणित बताते हुए यह कह दिया कि बगैर कांग्रेस वाममोर्चा को परास्त करना तृणमूल के वश में नहीं था।
ममता बनर्जी बीते समय में कई बार संप्रग सरकार की नीतियों पर नाराजगी, असंतोष और बाहर निकलने की मंशा प्रकट कर चुकी हैं। सितम्बर 2011 में प्रधानमंत्री की बांग्लादेश यात्रा के दौरान तीस्ता जल समझौते पर उनके हठ के कारण सरकार को असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़ा। पेट्रोल व कोयले की कीमतों में वृध्दि पर उन्होंने सरकार के खिलाफ जाने की धमकी दी। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर असहमति जतलाई। लोकपाल विधेयक को समर्थन देना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि लोकायुक्त पर उनकी मर्जी के मुताबिक नियम नहीं बने। पेंशन विधेयक ममता बनर्जी के विरोध के कारण किनारे कर दिया गया। संप्रग में रहते हुए कांग्रेस का इतना विरोध मानो पर्याप्त नहीं था कि इसी लिए उन्होंने इंदिरा भवन का नाम बदल कर काजी नजरूल इस्लाम भवन करने का एलान कर कांग्रेस के नेताओं को तृणमूल के खिलाफ एक बार फिर मुखर होने का मौका दे दिया है। राज्य के शहरी विकास मंत्री व ममता के करीबी माने जाने वाले फिरहाद हाकिम ने तो चुनौती भरे शब्दों में कह दिया है कि तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने फिल्मी ड़ायलॉक लहजे में कहा- हम उनसे नहीं, वे हमसे हैं।
कहना गलत नहीं होगा कि इससे पहले भी कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेता एक-दूसरे के खिलाफ न केवल बयानबाजी कर चुके है, बल्कि जुलूस की शक्ल में सडकों पर भी उतर चुके हैं। ऐसी स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह गठबंधन अधिक दिनों तक चलने वाला नहीं है। वैसे भी ममता बनर्जी गठबंधन से अलग होने में माहिर हैं। ध्यान रहे कि भाजपा की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने ताबूत मुद्दे पर ममता ने बेवजह खुद को अलग कर लिया था। जानकारों का कहना है कि अगर इंदिरा भवन के नाम परिवर्तन के मसले पर ममता को बाहर का रास्ता देखा दे तो भी कोई बड़ी बात नहीं होगी।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि भले ही ममता जनता के बीच लोकप्रिय हो। लोग उन्हें जुझारू नेता के रूप में जानते हो, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जयललिता व मायावती की तुलना में ममता की राजनीति में वह पकड़ नहीं है। तभी तो जयललिता तमिलनाडू की और मायावती उत्तर प्रदेश की कई बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। ममता बनर्जी के नाम के आगे पहली बार मुख्यमंत्री शब्द लगा है इसी में ममता के नाक से धुआं निकल रहा है।
भारतीय राजनीति पर गौर करें तो अपने-अपने लाभ के लिए कोई भी राजनीति दल आपस मतभेद भुलाकर एक-दूसरे के साथ आ सकता है। लेकिन भाजपा और कांग्रेस कभी एक मंच पर एक साथ नहीं आ सकती। क्यों दोनों ही दल अपने-अपने को राष्ट्रीय स्तर का मानते हैं और दोनों की विचारधारा बिल्कुल भिन्न है।
राजनीति के जानकार लोग इस बात पर अचरज करते हैं कि जिस ममता बनर्जी को लोग लालच विहीन व साफ-सुथरी छवि का मानते हैं। उनकी कोई राजनीति सोच है ह नहीं। वे सत्ता अथवा कुर्सी के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। अगर पीछे की और नजर दौड़ाए तो यह दिखाई देगा कि केंद्र में भजापा की अगुवाई वाली राजग सरकार में भी ममता रेल मंत्री थी और कांग्रेस की अगुवाई सप्रंग सरकार में भी रेल मत्री रही है। इसी बात से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि ममता कैसी राजनीति करती हैं और उनकी सोच क्या है।
ध्यान रहे कि ममता बनर्जी को पहले बार सांसद बनने का मौका १९८४ में मिला था। इंदिरा गांधी की हत्या के हुए लोक सभा चुनाव में इंदिरा लहर के सहारे ही ममता कोलकाता के कालीघाट से दिल्ली के संसद भवन तक पहुंची थी और सत्ता में आते ही इंदिरा भवन को लेकर कांग्रेसी नेताओं की भावनाओं से खेल रही हैं।

आसन पर नहीं, झूले पर बैठे हैं बाबा

शंकर जालान




कोलकाता । वैसे तो मकर संक्रांति के मौके गंगासागर जाने के लिए सैंकड़ों की संख्या में साधु-संत, बाबा व महात्मा इनदिनों आउट्रमघाट में डेरा डाले हुए हैं। लेकिन कुछ साधु ऐसे हैं, जो अपने अजीबो-गरीब हरकत से श्रद्धालुओं का ध्यान अपनी ओर खींच रहे हैं। उन्हीं में से एक है उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा से आए विजेंद्र बाबा। बाबा यहां आसन पर नहीं, बल्कि झूले पर बैठकर ध्यान लगा रहे हैं और इसी मुद्रा में भक्तों को आशीर्वाद दे रहे हैं। तीन दिन पहले यहां पहुंचे बाबा ने बताया कि अपने गुरू विश्वदेवानंदजी हमारे से आज्ञा लेकर मैंने झूले का आसन माना और इसी पर बैठकर भगवान का ध्यान लगाता हूं। बाबा ने बताया कि केवस सफर के दौरान में झूले का इस्तेमाल नहीं करता। इसके अलावा किसी भी मेले या तीर्थयात्रा पर मैं झूले पर ही बैठता हूं। इस सवाल के जवाब में बाबा ने कहा कि नोएडा स्थित आश्रम में भी मैं न केवल दिनभर झूला पर बैठा रहता हूं, बल्कि रात की नींद भी झूले पर पूरी करता है। यात्रा के दौरान में झूले में नहीं सोता। उन्होंने बताया कि साधु का काम ही भिक्षा मांग कर खाना और भगवान को याद करना। मेरे दो चेले हैं। रामू और श्यामू। दोनों सदैव मेरे साथ रहते हैं और भिखा में मिली खाद्य सामग्री से भोजन पका खुद खाते हैं और मुझे भी खिलाते हैं। उन्होंने बताया कि यहां मिलने वाले चढ़ावे के रुपए उनके किराए के काम आते हैं। बाबा यहां चालीस से अधिक शिविर चल रहे हैं उनके भोजन क्यों नहीं करते? इसके जवाब में बाबा ने कहा कि उनके गुरू की आज्ञा है कि भोजन कभी किसी शिविर में नहीं करता। चेलों द्वारा लाई गई खाद्य सामग्री से बने भोजन से ही पेट की ज्वाला शांत करना। उन्होेंने बताया कि वे दूसरी ओर यहां आए हैं और उनके दर्शन करने भारी संख्या में भक्त आ रहे हैं और अपनी श्रद्धा व शक्ति के मुताबिक भेंट में चढ़ा रहे हैं।

Thursday, January 12, 2012

शरीर की लंबाई पांच फीट और जटा की सात फीट

शंकर जालान




कोलकाता। उत्तराखंड के बद्रीनाथ से आए 82 वर्षीय बद्री विशाल बाबा अपनी लंबी और भारी जटा के लिए जाने जाते हैं। बाबा की भारी भरकम जटा के बाल भले ही नकली हो, लेकिन उसका असली है। बाबा ने बताया कि वे हर साल मकर संक्रांति के मौके पर गंगासागर जाने से पहले आउट्रमघाट पर दो-तीन दिन डेरा अवश्य डालते हैं। इसके अलावा वर्षों से कुंभ और अर्द्ध कुंभ में भी जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि उनका वजन 58 किलो है और उनकी जटा का वजन आठ किलो। इसी तरह उनकी लंबाई है पांच फीट तीन इंच है और उनके केश की लंबाई सात फीट। इतनी लंबी और भारी जटा के कारण आपको परेशानी नहीं होती? इसके जवाब में उन्होंने कहा- बिल्कुल नहीं, क्योंकि दिक्तत तो तब होती जब एकाएक इतना वजन माथे पर रखा जाता है, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि जब से मैंने होश संभाला है, तब से केश नहीं कटाए। यह वजन धीरे-धीरे बढ़ा है और मेरी आदत में शुमार हो गया है। इतने लंबे व भारी केश की साफ-सफाई और कंघी कैसे करते हैं? इस सवाल के जवाब देने से पहल बाबा खिलखिला कर हंसे और कहा- मैं खुद ही दो-चार दिन में एक बार स्नान करता हूं। रही बात केश सफाई की तो साल-छह महीने में करता हूं। हां कंघी एक-दो दिन बाद कर लेता हूं ताकि केश उलझे नहीं। उन्होंने बताया कि वे रविवार को यहां आएं है और वृहस्पतिवार सुबह सागरद्वीप के लिए रवाना होंगे। बाबा ने कहा- लोग उन्हें बद्री विशाल के नाम से कम और जटाधारी बाबा के नाम से अधिक जानते हैं।

Wednesday, January 11, 2012

पांच रुपए, पांच मिनट और पांच बातें

शंकर जालान




कोलकाता। झारखंड़ के बासुकीनाथ धाम से आईं ३५ वर्षीय शारदा देवी इनिदनों आउट्रामघाट में अपनी कुटिया में बैठी पांच रुपए के एवज में पांच मिनट का समय लेकर श्रद्धालुओं के जीवन से जुड़ी पांच बातें बताने के दावा कर रही हैं। शारदा देवी ने बताया कि वे पहली बार गंगासागर आईं है। इससे पहले श्रावण महीने के दौरान देवघर (बैधनाथ मंदिर) और अश्विन नवरात्र के मौके पर मिर्जापुर (विध्यांचल मंदिर) के समीप पांच. पांच मिनट में भक्तों की पांच बातें बता चुकी है। उनका दावा है कि उनकी बताई बातें बिल्कुल सच होती हैं। उन्होंने बताया कि वे मंगलवार शाम यहां पहुंची और बुधवार सुबह स्नान और पूजा-पाठ करने के बाद भक्तों के जीवन से जुड़ी बाते बताने में जुट गईं। शारदा देवी ने बताया कि करीब ७० लोगों को आज मैंने उनके जीवन के बारे में बताया और इसके बदले भेंट स्वरूप मुझे साढ़े तीन सौ रुपए मिले। उन्होंने बताया कि कुछ भक्त खुशी-खुशी अधिक भेंट भी चढ़ा जाते हैं। उन्होंने बताया कि वे शनिवार सुबह गंगासागर के लिए रवाना होंगी और रविवार सुबह तक वापस आउट्रामघाट पहुंच जाएंगी। इसके बाद एक सप्ताह तक यहां कुटिया में रहकर इच्छुक लोगों के भविष्य की बातें बताती रहेंगी।
दूसरी ओर, आउराम घाट में विभिन्न वेश-भूषा वाले साधु-संत पहुंचे हुए हैं। यहां उनकी हरकत भी अजब-गजब देखने को मिल रही है। कोई निरंतर खड़ा रह कर तप में लीन है तो कोई झूले पर झूल कर तपस्या करते दिखा रहा है। यहां दो नागा साधु ऐसे भी हैं जिनके अजीबो-गरीब करतब को देखने के लिए लोगों की भीड़ जुट रही है। ये दोनों साधु डंडे के सहारे लोगों को खेल दिखा रहे हैं। यहां लोग साधुओं को देखने व उनसे आशीर्वाद लेने पहुंच रहे हैं। साधु के वेश में कुछ ताबीज बेचने और झाड़-फूंक करने भी आए हैं। इनके बीच कुछ साधु-संत हवन व ध्यान में लगे रहे हैं।

Monday, January 9, 2012

कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन पर संकट के बादल

शंकर जालान





कोलकाता। राजनीति में स्थाई दोस्ती या फिर स्थाई दुश्मनी की उम्मीद रखने की बात कुछ हजम नहीं होती, लेकिन इतनी जल्दी दोस्ती (गठबंधन) दुश्मनी (टूटने) की कगार पर पहुंच जाएंगी, यह भी किसी को मालूम नहीं था। जी हां, हम बात कर रहे हैं राज्य में सत्तासीन कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के गठबंधन की। जिस गठबंधन ने 34 सालों तक राज करने वाले और लगातार सात पर चुनाव में अजेय रहने वाली वाममोर्चा को परास्त किया। वहीं, गठबंधन पर सात महीने के भीतर ही सवाल खड़ा होने लगा है। इन सात महीनों में कई बार ऐसे मौके आए जब कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेता एक-दूसरे की खिचाई करते दिखे। अन्य नेताओं की तो बात ही क्या खुद तृणमूल कांग्रेस प्रमुख तृणमूल कांग्रेस ने शनिवार को कह दिया कि कांग्रेस चाहे तो गठबंधन से अलग हो सकती है।
सीटों के बंटवारे के मुद्दों पर हो, कृषकों की समस्या पर हो, केंद्र सरकार पर दवाब की बात हो या फिर राज्य की शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग की बात। इन सभी मुद्दों पर कभी भी कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेताओं की एक राय नहीं बन सकी। तभी तो राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री व वतर्मान में विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र ने चुटकी लेते हुए कह दिया कि कांग्रेस व तृणमूल नेताओं को गठबंधन धर्म की समझ नहीं है।
ताजा मामला इंदिरा भवन के नाम को लेकर चल रहा है। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इंदिरा भवन का नाम बदल कर काजी नजरूल इस्लाम भवन करने का एलान कर कांग्रेस के नेताओं को तृणमूल के खिलाफ एक बार फिर मुखर होने का मौका दे दिया है। राज्य के शहरी विकास मंत्री व ममता के करीबी माने जाने वाले फिरहाद हाकिम ने तो चुनौती भरे शब्दों में कह दिया है कि तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने फिल्मी लहजे में कहा- हम उनसे नहीं, वे हमसे हैं।
कहना गलत नहीं होगा कि इससे पहले भी कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेता एक-दूसरे के खिलाफ न केवल बयानबाजी कर चुके हैं, बल्कि जुलूस की शक्ल में सड़कों पर भी उतर चुके हैं। वैसे भी ममता बनर्जी गठबंधन से अलग होने में माहिर हैं। ध्यान रहे कि भाजपा की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार से ताबूत मुद्दे पर ममता ने बेवजह खुद को अलग कर लिया था।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि भले ही ममता जनता के बीच लोकप्रिय हो। लोग उन्हें जुझारू नेता के रूप में जानते हो, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जयललिता व मायावती की तुलना में ममता की राजनीति में वह पकड़ नहीं है। तभी तो जयललिता तमिलनाडु की और मायावती उत्तर प्रदेश की कई बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। ममता बनर्जी के नाम के आगे पहली बार मुख्यमंत्री शब्द लगा है।
राजनीति के जानकार लोग इस बात पर अचरज करते हैं कि जिस ममता बनर्जी को लोग लालच विहीन व साफ-सुथरी छवि का मानते हैं। मगर सत्ता अथवा कुर्सी के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। अगर पीछे की और नजर दौड़ाए तो यह दिखाई देगा कि केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली राजग सरकार में भी ममता रेल मंत्री थी और कांग्रेस की अगुवाई सप्रंग सरकार में भी रेल मंत्री रही हंै।
ध्यान रहे कि ममता बनर्जी को पहली बार सांसद बनने का मौका 1984 में मिला था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा लहर के सहारे ही ममता कोलकाता के कालीघाट से दिल्ली के संसद भवन तक पहुंची थी मगर अब उनकी राजनीति का यह भी एक पहलू है कि इंदिरा भवन को लेकर कांग्रेसी नेताओं की भावनाओं से खेल रही हैं।

पैसे दो, आशीर्वाद लो

शंकर जालान




कोलकाता। शीर्षक पढ़कर चौकिए मत। इन दिनों यह नजारा आउट्रमघाट में देखने को मिल रहा है। देश के कोने-कोने से आए साधु, संन्यासी, संत व बाबा अपनी-अपनी कुटिया में बैठे भक्तों को पैसे की एवज में आशीर्वाद दे रहे हैं। मालूम हो कि अन्य राज्यों व नेपाल और बांग्लादेश से गंगासागर जाने के लिए महानगर पहुंचे साधु-संन्यासियों का अंतिम पड़ाव आउट्रमघाट होता है। वैसे तो मकर संक्रांति व गंगासागर के पुण्य-स्नान में अभी छह दिन शेष हैं, लेकिन यहां पहुंचे करीब छह दर्जन बाबाओं ने अपना करतब दिखाना शुरू कर दिया है।
भस्म रमाए, गांजा पीते, शंख बजाते ये बाबा नोट देखकर भक्तों को आशीर्वाद दे रहे हैं। इन बाबाओं का कहना है कि गंगासागर के दौरान आठ-दस दिन के पड़ाव में उन्हें भक्तों से जो भेंट मिलती है उसी से उनका कई महीनों का राशन-पानी चलता है। फोटो बाबा के नाम से परिचित बाबा से जब पूछा गया कि बाबा साधुओं को तो मोह-माया से दूर रहना चाहिए, फिर भला आप आशीर्वाद देने के बदले पैसे की मांग क्यों करते हैं? प्रश्न का जवाब देने की बजाए बाबा ने कहा - जब भाग यहां से, मुझे बड़ा प्रवचन देने आया है।
इसी तरह अन्य बाबा भी नोट को पहचान कर अपना मुंह खोल रहे हैं। पांच या दस रुपए भेंट करने वाले सिर पर बाबा केवल हाथ रखते हैं। वहींस बीस या पचास रुपए चढ़ाने वाले भक्तों के माथे पर विभूति का तिलक भी लगा रहे हैं। पचास से ज्यादा या एक सौ रुपए देने वाले लोगों को बाबा सब मनोकामना पूरी जैसा आशीर्वाद दे रहे हैं।

Saturday, January 7, 2012

आकर्षण का केंद्र बना नगा साधु

शंकर जालान



कोलकाता। मकर संक्रांति के मौके पर गंगासागर स्नान से पूर्व देश के विभिन्न हिस्सों से आउट्रमघाट पहुंचे दर्जनों नगा बाबा अपने-अपने करतब के जरिए आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। कोई शंख बचा कर लोगों का ध्यान खींच रहा है, तो कोई झुले में बैठ कर। कोई गुप्तांग से भारी भरकम वजन खींच रहा है, तो कोई एक पैर पर खड़ा है। गुप्तांग से वजन खींचने वाले नगा बाबा जिन्हें लोग बलसाली बाबा भी कहते हैं ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के बाद जनसत्ता को बताया कि गुप्तांग के साथ भारी वस्तु को खींचने की क्षमता एक तरह का हठ योग है। उन्होंने कहा- इस क्षमता को हासिल करने के लिए मैंने दो दशक से अधिक का समय अभ्यास में बिताया है।
अपनी शक्ति के बारे में बाबा ने बताया कि ऐसा करने के लिए या यह करतब दिखाने के लिए मुझे किसी विशेष प्रकार के आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती। मैं भी अन्य लोगों की तरह ही चपाती, चावल, दाल, सब्जी का सेवन ही करता हूं।
उन्होंने कहा कि अधिकतर वे गुजरात के जूनागढ़ जिले में रहते है। योग सिद्धी पर पूछे गए सवाल के जवाब में बाबा ने कहा कि किसी भी साधना के लिए चरम एकाग्रता और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है।अपने के बारे में बताते हुए बाबा ने कहा कि वे अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उनकी सीख सदा मेरे साथ है। बाबा ने बताया कि उनके गुरू ने उन्हें एक बहुत ही मूल्यवान सबक दिया है वह है ताकत का दुरुपयोग न करना और हमेशा जरूरतमंदों की मदद करना।
बाबा ने बताया कि वे शुक्रवार सुबह यहां पहुंचे है और 12 जनवरी तक उनका डेरा यहीं रहेगा। इसके बाद वे गंगासागर के लिए रवाना हो जाएंगे। 14 जनवरी की शाम गंगासागर से लौटते ही गुजरात के लिए ट्रेन पकड़ लेंगे।

Thursday, January 5, 2012

धार्मिक स्थलों पर अग्निशमन व्यवस्था को लेकर चुप्पी क्यों ?

शंकर जालान



कोलकाता। कहना गलत नहीं होगा कि महानगर कोलकाता के ज्यादातर धार्मिक स्थलों (मंदिरों, गिरिजाघरों, मस्जिदों व गुरुद्वारों) में अग्निशमन की कोई व्यवस्था नहीं है। शहर के बड़े व प्रसिद्ध मंदिरों में अगर कभी आग लगी तो कितने लोगों की जान जाएगी कहना मुश्किल हैं। बावजूद इसके मंदिर प्रशासन के साथ-साथ मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए जाने वाले लोग चुप्पी साधे हैं। और तो और राज्य सरकार, दमकल विभाग, कोलकाता पुलिस, कोलकाता नगर निगम व कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कारपोरेशन के अधिकारियों का भी इस ओर कोई ध्यान नहीं है।
यह तो मानी हुई बात है कि मंदिरों में जितनी मात्रा में धूप, कपूर, अगरवत्ती, तेल, धी, धूना व मोमबत्ती का इस्तेमाल होता है उतना किसी बड़े मार्केट या बाजार, अस्पताल या शॉपिंग मॉल, आवासीय या वाणिज्यिक भवन में नहीं होता। फिर भी मार्केट, बाजार, अस्पताल, शॉपिंग मॉल और बड़ी इमारतों की तुलना में अग्निशमन की कोई व्यवस्था नहीं है। जबकि धूप, कपूर, अगरवत्ती, तेल, धी, धूना व मोमवत्ती का सीधा संबंध आग से है और इस वजह से अगर आग लगती है तो सिवाय नुकसान ने और कुछ नहीं होगा।
हालांकि यह कहना पूरी तरह से ठीक नहीं होगा कि राज्य सरकार अग्निशमन को लेकर पूरी तरह सचेष्ठ है। दमकल विभाग पूरी तरह दुरुस्त है। केवल खामियां मंदिरों में ही है। लेकिन इतना जरूर है कि बड़ी इमारत, अस्पताल व मार्केट में आग लगने के बाद सरकार कुछ हरकत में आत है और कमिटी गठन कर मामले की तहकीकात के साथ-साथ अन्य संबंधित इमारतों, अस्पतालों व मार्केटों का जायजा लेना शुरू करती है। भले ही इन कमिटी की रिपोर्ट पर ईमानदारी से काम न होता हो, लेकिन इतना जरूर है कि कुछ दिनों के लिए ही सही लोग सचेत व जागरूक जरूर होते हैं।
दुख की बात यह है कि बड़ाबाजार के सत्यनारायण पार्क एसी मार्केट, न्यू हावड़ा ब्रिज एप्रोच रोड स्थित नंदराम-काशीराम ब्लॉक मार्केट, हावड़ा के मछली बाजार, पार्क स्ट्रीट के स्टीफन कोर्ट, तिलजला स्थित रबर फैक्ट्री व ढाकुरिया के एएमआरआई (आमरी) अस्पताल में आग लगने के बावजूद शहर के बड़े मंदिरों, गिरिजाघऱों, मस्जिदों व गुरुद्वारों की अग्निशमन व्यवस्था में किसी का ध्यान नहीं गया।
इस बारे में विभिन्न धर्मो के कई लोगों से बातचीत की गई। ज्यादातर लोगों ने माना क मंदिरों, गिरिजाघऱों, मस्जिदों व गुरुद्वारों में आग से रोकथाम क कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। लोगों ने कहा- बाजार, अस्पताल, बड़ी इमारत, शॉपिंग मॉलों की तरह ही धार्मिक स्थलों पर ही पर्याप्त व पुख्ता संख्या में अग्निशमन उपकरणों की जरूरत है। इन लोगों के मुताबिक अगर धार्मिक स्थलों पर आगजनी हुई तो हम हाथ मलते रह जाएंगे।
प्रसिद्ध व प्राचीन शिव मंदिर में जाने वाले एक भक्त ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि वे पिछले पचास सालों से रोजाना भूतनाथ मंदिर आते हैं। उनके मुताबिक आठ-दस पहले तक मंदिर में इतनी भीड़ नहीं होती थी, लेकिन इनदिनों रोजाना हजारों लोग मंदिर आने लगे। उन्होंने बताया कि भूतनाथ मंदिर आने वाले लोग कपूर जलाकर आरती करते हैं। उनके मुताबिक मंदिर परिसर में रोजाना २० से ३० किलो कपूर जलाया जाता है और अग्निशमन उपकरण के नाम पर मंदिर में कुछ नहीं है। इसी तरह कालीघाट, ठनठनिया काली, पुटेकाली, जोड़ासाकू काली मंदिर, विभिन्न शनि मंदिरों समेत शहर के ज्यादातर मंदिरों में अग्निशमन की कोई व्यवस्था नहीं है।
नाखुदा मस्जिद से निकल रहे अकमल खान नामक एक व्यक्ति ने बताया कि मैं मुसलमान हूं और सालों से इबादत के लिए नाखुदा मस्जिद आता हूं। उन्होने बताया कि मौके मिलने खुदा की इच्छा होने पर कभी-कभार शहर के अन्य मस्जिद न मजारो में भी जाना होता है, लेकिन दुख क बात यह है कि कहीं आग से रोकथाम का कोई इंतजाम नहीं है।
गिरिजाघऱ में आस्था रखने वाले जी. थामस और गुरुद्वारा में माथा टेकने वाले बलबीर सिंह भी मानते हैं कि धार्मिक स्थलों पर अग्निशमन नियमों की खुलकर अनदेखी की जाती है। थामस व सिंह ने बताया कि मामला धर्म से जुड़ा है इसलिए कोई खुलकर कुछ नहीं बोलता, लेकिन यह ठीक नहीं है। इनलोगों ने बताया कि मंदिरों, गिरिजाघऱों, मस्जिदों व गुरुद्वारों को भी अग्निशमन कानून के दायरे में लाना चाहिए। ताकि कोई बड़ा हादसा होने से पहले ही धार्मिक स्थलों को आग से रोकथाम पर काबू बनाने के काबिल बनाए जाए।

Monday, January 2, 2012

क्या सचमुच अग्निशमन उपकरण के लिए सचेत हैं लोग

शंकर जालान


कोलकाता। बीते दिनों दक्षिण कोलकाता के ढाकुरिया स्थित एंडवास मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एएमआरआई) अस्पताल में घटी अग्निकांड की घटना ने एक बार फिर बड़ी इमारतों, अस्पतालों, सामुदायिक भवनों व सरकार कार्यालयों की अग्निशमन व्यवस्था की पोल खो दी है। निजी भवनों व कार्यालयों की तो बात ही क्या, कई सरकारी अस्पतालों व भवनों की अग्निशमन व्यवस्था को भी पुख्ता नहीं कहा जा सकता। हालांकि सरकार इस बार जरा सचेत दिख रही है और इस बाबत कमिटी बनाकर अग्निशमन व्यवस्था की पड़ताल शुरू हो गई है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि कमिटी के सहारे या फिर विभिन्न इमारतों का जायजा लेने भर से अग्निशमन व्यवस्था दुरूस्त नहीं हो सकती। कहना गलत नहीं होगा कि जब तक लोगों में जागरूकता नहीं आएगी, किसी कमिटी, किसी कानून और किसी निरीक्षण के बल पर अग्निशमन व्यवस्था ठीक नहीं हो सकती।
सनद रहे कि न्यू हावड़ा ब्रिज एप्रोच रोड स्थित नंदराम-काशीराम ब्लॉक मार्केट, पार्क स्ट्रीट स्थित स्टीफन कोर्ट और मल्लिकबाजार फूल मंडी व हावड़ा के मछली बाजार में लगी आग के बाद भी तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा कमिटियां बनाई गई थी, लेकिन सभी के नतीजे ढाक के तीन पात वाली कहावत को चरितार्थ करते दिखे।
हां, इतना जरूर कहा जा सकता है कि एएमआरआई अस्पताल में आग लगने की घटना ने कई सवाल खड़े किए। कहीं आग की सुरक्षा व्यवस्था तो कहीं दमकल विभाग की हालत को लेकर तरह-तरह की बातें का खुलासा हुआ है। हजारों की संख्या में शहर की सरकारी और गैरसरकारी इमारते हैं, जो काफी पुरानी हो चुकी हैं। इन इमारतों में अग्निशमन उपकरणों की तो कोई व्यवस्था है ही नहीं, झुलते बिजली के तार आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।
गैरसरकार इमारतों की बात तो छोड़िए, आश्चर्य की बात यह है कि कई सरकार इमारतों का नक्शा भी पुलिस थाने में उपलब्ध नहीं है। राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग की बात की जाए या फिर खाद्य भवन, न्यू सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग लगभग सभी की एक सी स्थिति है। ध्यान रहे कि राइटर्स बिल्डिंग में कई दफा आग लग चुकी है। आग की लपटों ने कई बात अदालतों को भी अपनी चपेट में लिया है।
एक सर्वे के मुताबिक महानगर की 75 फीसद से ज्यादा बहुमंजिली इमारतें, अपार्टमेंट, मार्केट और नर्सिंग होम आदि में अग्निशमन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। कुछ जगहों पर अग्निशमन उपकरण तो हैं, लेकिन वे खराब पड़े हैं। ज्यादातर बेसमेंट (भूतल) में मानकों की अनदेखी की जा रही है। सोचने वाली बात यह है कि संबंधित विभाग के अधिकारी किसी आधार पर अनापत्ति पत्र (एनओसी) दे देते हैं।
इस बारे में चिंतित लोगों का कहना है कि कई अस्पतालों समेत विभिन्न स्थानों के शासकीय व निजी इमारतों में आपदा प्रबंध की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। राज्य सरकार को इसके लिए कानून बनाना चाहिए। लोगों का कहना है कि पहले सिनेमा घरों, अस्पतालों में आग बुझाने का छोटा-सा सयंत्र व दो बाल्टी रेत भरी नजर आती थी, पर अब वह नहीं दिखती।
स्वयंसेवी संस्था प्रेम मिलन (कोलकाता) के सचिव ने बताया कि अस्पतालों में अग्निशमन के पर्याप्त इंतजाम नहीं हैं। इतना ही नहीं कोई बड़ा हादसा होने पर उस पर तत्काल काबू पाने के लिए कोई रणनीति भी तैयार नहीं है। रोजाना सरकारी समेत निजी अस्पतालों में बड़ी संख्या में मरीज आते हैं। ऐसे में उनकी सुरक्षा को लेकर न तो कोई तैयारी है और न ही कोई व्यवस्था...। उन्होंने कहा कि कुछ निजी अस्पतालों में जरूर कई स्थानों पर आग पर काबू पाने के लिए छोटे यंत्र लगे हैं, लेकिन उससे किस हद तक काबू पाया जा सकता है, यह प्रश्न बना हुआ है।