Friday, June 19, 2009

ट्रैफिक मैनिजमंट में पैदल चलने वालों की अनदेखी

आजादी के बाद पैदल चलने वालों की जैसी दुर्गति हमारे देश में हुई ह ै, उसकी दूसरी मिसाल मिल पाना मुश्किल है। भारतीय नगर नियोजकों की नजर में पैदल चलने वाले और साइकल सवारों की हैसियत कीड़े-मकोड़े जैसी है, जबकि आज भी शहरों का बहुसंख्य वर्ग कहीं आने-जाने के लिए अपने पैरों पर ही निर्भर है।
दिल्ली आईआईटी की प्रफेसर गीतम तिवारी पैदल चलने वालों का आंकड़ा प्राप्त करने का असफल प्रयास कर चुकी हैं। उन्हें 1994 के पहले का ऐसा कोई आंकड़ा नहीं मिला, जबकि वाहनों के आंकड़े 1950 से ही उपलब्ध हैं। इससे पता चलता है कि शहर की योजनाओं और यातायात संरचना में पैदल चलना किसी प्राथमिकता में नहीं आता।
वर्ष 2008 में 30 शहरों के अध्ययन से पता चला कि 16 से 57 प्रतिशत तक यात्राओं में किसी भी वाहन का इस्तेमाल नहीं होता। छोटे शहरों और पर्वतीय स्थानों के लोग अधिक पैदल चलते हैं। बड़े शहरों में पैदल चलने की स्थितियों को लेकर भी एक अध्ययन हुआ है। सर्वेक्षण में बताया गया कि दिल्ली में 21 प्रतिशत यात्राएं पैदल ही की जाती हैं। रिट्स लिमिटेड नामक एक सरकारी सलाहकार कंपनी द्वारा 2008 के एक सर्वेक्षण के अनुसार यह 34 प्रतिशत है। मुंबई में और अधिक लोग पैदल चलते हैं। वर्ष 2005 में विश्व बैंक द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार वहां 43 प्रतिशत लोग पैदल चलते हैं जो कि निजी वाहनों द्वारा यात्रा करने वालों से चार गुना अधिक है। मुंबई महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकारी के सर्वेक्षण के अनुसार यह आंकड़ा 52 प्रतिशत है। अहमदाबाद में 2005 में हुए सर्वेक्षण के अनुसार यहां 54 प्रतिशत यात्राएं पैदल या साइकल से होती हैं। भारतीय शहरों में वाहनों से चलने की बजाय लोग पैदल ज्यादा चलते हैं।
अगर इन आंकड़ों में सार्वजनिक यातायात का प्रयोग करने वालों को शामिल करें तो वस्तुस्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। कोलकाता में पैदल चलने वालों का प्रतिशत वैसे तो 19 ही है, परंतु यहां सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करने वाले 54 प्रतिशत हैं। हमारे शहरों में सड़कें पहले से तो बेहतर हुई हैं, परंतु वे साइकल चालकों के लिए अधिक खतरनाक होती जा रही हैं। अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय और आईआईटी, दिल्ली के संयुक्त अध्ययन से पता चला है कि पिछले दशक में सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या में प्रतिवर्ष आठ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है। शहरी क्षेत्रों में इस दौरान दुर्घटना से हुई 80 हजार मौतों में से 60 प्रतिशत पैदल चलने वालों की हुई थी।
त्रुटिपूर्ण डिजाइन और शहरी भू-उपयोग नीतियां भारत में पैदल चलने के वातावरण को बर्बाद कर रही हैं। सड़कों को चौड़ा करने के दौरान फुटपाथों को समाप्त करने और फ्लाईओवर बनाने से पैदल चलने वालों के रास्ते में बाधा पड़ती है। समय बचाने की कोशिश में काबू से बाहर हुए वाहन हरेक छह मिनट में एक व्यक्ति को मार डालते हैं। इंडियन सड़क कांग्रेस के अनुसार फुटपाथ की चौड़ाई कम से कम 1.5 मीटर से चार मीटर के बीच होनी चाहिए, परंतु कोई भी शहरी इकाई इन मानकों को मानने के लिए बाध्य नहीं है। मुंबई में तो जेबरा क्रॉसिंग से भी सड़क पार करने पर तेज दौड़ लगानी पड़ती है। मुंबई के कई उपनगरों में सड़कों के किनारे फुटपाथ ही नहीं हैं। यहां विकास प्राधिकरण अरबों रुपये की लागत से मेट्रो, मोनो रेल, समुद्री लिंक, एक्सप्रेस व फ्लाईओवर बनाने में जुटा है, परंतु फुटपाथ निर्माण की ओर उसका ध्यान ही नहीं है।
एक यातायात विशेषज्ञ अशोक दातार का मानना है कि देश के कुल 55 प्रतिशत लोग प्रतिदिन पैदल चलते हैं, परंतु उनकी सुविधा के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है। अब तो लगने लगा है कि विकास प्राधिकरण चाहते हैं कि जनता सिर्फ कारों का ही प्रयोग करें। अगर ऐसा नहीं है, तो क्यों पैदल चलने वालों के लिए ऐसे 'स्काई वॉकर' या फुटओवर ब्रिज बनाए जा रहे हैं जिनका बहुत कम लोग इस्तेमाल करते हैं? अगर सड़कों पर सबका अधिकार है तो फिर पैदल चलने वालों को ही क्यों सताया जा रहा है? कारें समस्या का निराकरण इसलिए नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे ही समस्या का कारण हैं। सरकारों पर इस बात के लिए दबाव डालना चाहिए कि वे ऐसे ट्रैक बनाएं, जो सिर्फ साइकल व पैदल चलने वालों के लिए ही हों।
अमेरिका के उलट भारत अति सघन बसाहट वाला देश है। ऐसे में यहां पैदल चलना एक बेहतर विकल्प भी है। पर वर्ष 2008 के सर्वेक्षण से यह निराशाजनक तस्वीर उभरी कि दिल्ली में बसों में सफर करने वालों की संख्या में जबर्दस्त गिरावट आई है। यह 2001 में 60 प्रतिशत से घटकर 2008 में 41 प्रतिशत रह गई है, जबकि इसी अवधि में कार से सफर करने वाले तीन प्रतिशत से बढ़कर 13 प्रतिशत हो गए। नगर नियोजकों का मानना है कि मुंबई में मेट्रो रेल परियोजना व अन्य यातायात सुविधाओं पर 20 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की बजाय सड़कों को पैदल चलने के अनुकूल बनाना अधिक सस्ता व पर्यावरण के हित में होगा।
इस सुधार हेतु बहुत बड़ी योजनाओं या बड़े स्तर के प्रयासों की जरूरत नहीं है। जेब्रा क्रॉसिंग बनाने व ट्रैफिक सिग्नल की अवधि बढ़ाने से इस समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है। जबकि अभी तो पैदल चलने वालों को हतोत्साहित किया जा रहा है। असल में नीति नियंताओं की नजर सार्वजनिक यातायात में होने वाले निवेश पर रहती है, जबकि दिल्ली जैसे शहरों में सार्वजनिक यातायात की मांग में कमी आई है। पैदल चलने वालों के आंदोलन का उद्देश्य वाहनों पर निर्भरता कम करना है, इसलिए नगर नियोजकों को ऐसे वातावरण निर्माण में मदद करनी चाहिए। इसका एक उदाहरण हॉलैंड ने 'वुर्नेफ' के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है सड़कों का ऐसा समूह जहां पैदल चलने वालों एवं साइकल चालकों को प्राथमिकता दी जाएगी।
इस लिहाज से भारतीय शहरों में अभी भी संभावना बाकी है। नगर निकायों को चाहिए कि वे पैदल और साइकल चालकों की समस्याओं से निपटने के लिए एक पूर्णकालिक इकाई बनाएं, ताकि उनका सफर भी सुहाना हो सके। (साभार)

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