Friday, June 26, 2009

वंदेमातरम स्वतंत्रता सेनानियों का कंठहार

देश के आजादी आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों का कंठहार बनी बांग्ला रचनाकार बंकिमचंद चटर्जी की कालजई रचना 'वंदेमातरम' बेहद सामान्य परिस्थितियों में पहली बार प्रकाशित हुई थी और उस समय शायद इसके लेखक को भी यह अनुमान न होगा कि आने वाले दिनों में यह गीत एक मंत्र की तरह सारे देश में गूंजेगा। वंदेमातरम के प्रकाशन का एक दिलचस्प इतिहास है।

बंकिम एक पत्रिका 'बंगदर्शन' निकालते थे और इसकी अधिकतर रचनाएं वह स्वयं ही लिखते थे। एक बार पत्रिका छपने के समय कंपोजीटर बंकिम के पास आया और कहा कि उसे थोड़े से बचे स्थान के लिए कुछ सामग्री चाहिए। बंकिम ने अपनी दराज खोली और सामने पड़ा अपना गीत वंदेमातरम का एक अंश छपने को दे दिया। यह घटना 1875 की है। यह जानकारी अमलेश भट्टाचार्य की पुस्तक 'वंदेमातरम' में दी गई है। इस तरह पहली बार वंदेमातरम गीत छपा। जाहिर सी बात है लोगों की नजर में उस समय यह गीत नहीं चढ़ा। बाद में बंकिम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को जब शामिल किया तो लोगों ने इसे गौर से पढ़ा। आनंदमठ में छपने के बाद बंकिम को अपनी इस रचना की प्रभावोत्पादकता का कुछ-कुछ अनुमान तो होने लगा था, लेकिन उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं थी कि आने वाले दिनों में यह रचना जादुई असर करेगी और महान रचना के रूप में इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज होगी। वर्ष 1886 में कोलकाता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार वंदेमातरम गाया गया था।

बंकिम की मृत्यु के दो साल बाद 1896 में कोलकाता में ही आयोजित कांग्रेस के एक अन्य अधिवेशन में स्वयं गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया था। स्वतंत्रता प्रेमियों में उत्साह का संचार करने वाली इस रचना का वास्तविक उत्कर्ष 1905 के बंगाल विभाजन के दौरान हुआ। वंदेमातरम जब पूरे देश में आजादी का नारा फूंकने वाला मंत्र बना तो उस समय बंकिम जीवित नहीं थे।

आजादी के बाद भारत में इसे राष्ट्रगीत का गौरव हासिल हुआ। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के बांग्ला विभाग में रीडर पी के मैती के अनुसार वंदेमातरम बंकिम की सर्वाधिक लोकप्रिय कृति है जो विभिन्न कारणों से आजादी का नारा बन गई। मैती ने कहा कि बांग्ला में सिर्फ बंकिम और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएं हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती है। लोकप्रियता के मामले में बंकिम और शरद रविन्द्र नाथ टैगोर से भी आगे हैं। उन्होंने कहा कि बंकिम बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनाकार थे। उनके कथा साहित्य के अधिकतर पात्र शहरी मध्यम वर्ग के लोग हैं। इनके पात्र आधुनिक जीवन की त्रासदियों और प्राचीन काल की परंपराओं से जुड़ी दिक्कतों से साथ साथ जूझते हैं। यह समस्या भारत भर के किसी भी प्रांत के शहरी मध्यम वर्ग के समक्ष आती है। लिहाजा मध्यम वर्ग का पाठक बंकिम के उपन्यासों में अपनी छवि देखता है।

बंकिमचंद्र चटर्जी की पहचान बांग्ला कवि, उपन्यासकार, लेखक और पत्रकार के रूप में है। चटर्जी का जन्म 26 जून 1838 को एक रूढि़वादी परिवार में हुआ था। आठ अप्रैल 1894 को उनका निधन हो गया था। बंकिमचंद्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना राजमोहन्स वाइफ थी। इसकी रचना अंग्रेजी में की गई थी। बांग्ला में प्रकाशित उनकी प्रथम रचना दुर्गेश नंदिनी [1865] थी, जो एक रूमानी रचना है। उनकी अगली रचना का नाम कपालकुंडला [1866] है। इसे उनकी सबसे अधिक रूमानी रचनाओं में से एक माना जाता है। उन्होंने 1872 में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने विषवृक्ष [1873] उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया। कृष्णकांतेर विल में चटर्जी ने अंग्रेजी शासकों पर तीखा व्यंग्य किया है।

आनंदमठ राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के संन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। चटर्जी का अंतिम उपन्यास सीताराम [1886] है। इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया गया है। उनके अन्य उपन्यासों में दुर्गेशनंदिनी, मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर दफ्तर, देवी चौधरानी और मोचीराम गौरेर जीवनचरित शामिल है। उनकी कविताएं ललिता ओ मानस नामक संग्रह में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसामायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे।

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