Saturday, June 20, 2009

कोलकाता का मशहूर काली मंदिर

कोलकाता। यहां दक्षिणेश्वर काली मंदिर है। इस मंदिर से नाता है विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस का।
इस मंदिर में देश के कोने-कोने से लोग आते हैं। लंबी-लंबी कतारों में घंटो खड़े होकर मां के दर्शन का इंतजार करते हैं।
इसी मंदिर में रामकृष्ण परमहंस को दक्षिणेश्वर काली ने दर्शन दिया था। आज पूरी दुनिया में रामकृष्ण मिशन के लोग शांति और सुख का संदेश देते हैं। लेकिन रामकृष्ण परमहंस की खुद की मौत कैंसर से हुई थी।
जिस गुरु की कृपा से विवेकानंद पूरी दुनिया में मशहूर हुए उस गुरु के आखिरी दिन इतने संकट से क्यों गुजरे।
जिन्होंने लाखों लोगों को अध्यात्मिक रास्ता दिखाया उनकी मौत कैंसर की वजह से क्यों हुई। कहानी बड़ी विचित्र है। लेकिन एक ऐसे सच के दायरे में है जिसे जानकर रुह तक कांप जाती है।
क्या है इस काली मंदिर का रहस्य
1847 की बात है। देश में अंग्रेजों का शासन था। पश्चिम बंगाल में रानी रासमनी नाम की एक बहुत ही अमीर विधवा थी।
उनकी जिंदगी में सबकुछ था लेकिन पति का सुख नहीं था। रानी रासमनी जब उम्र के चौथे पहर में आ गई तो उनके मन में सभी तीर्थों के दर्शन करने का खयाल आया। रानी रासमनी देवी माता की बहुत बड़ी उपासक थी।
उन्होंने सोचा कि वो अपनी तीर्थ यात्रा की शुरुआत वराणसी से करेंगी और वहीं रहकर देवी का कुछ दिनों तक ध्यान करेंगी। उन दिनों वाराणसी और कोलकाता के बीच कोई रेल लाइन नहीं थी।
कोलकाता से वाराणसी जाने के लिए अमीर लोग नाव का सहारा लेते थे। दोनों ही शहर से गंगा गुजरती हैं इसलिए लोग गंगा के रास्ते ही वाराणसी तक जाना चाहते थे।
रानी रासमनी ने भी यही फैसला किया। उनका काफिला वाराणसी जाने के लिए तैयार हुआ। लेकिन जाने के ठीक एक रात पहले रानी के साथ एक अजीब वाकया हुआ।
मन में देवी का ध्यान कर के वो सोई थी। रात में एक सपना आया। सपने में देवी काली प्रकट हुई और उनसे कहा कि वाराणसी जाने की कोई जरूरत नहीं है। आप गंगा के किनारे मेरी प्रतिमा को स्थापित करिए। एक खूबसूरत मंदिर बनाइए। मैं उस मंदिर की प्रतिमा में खुद प्रकट होकर श्रद्धालुओं की पूजा को स्वीकार करुंगी।
रानी की आंख खुली। सुबह होते ही वाराणसी जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया और गंगा के किनारे मां काली के मंदिर के लिए जगह की तलाश शुरू कर दी गई।
कहते हैं कि जब रानी इस घाट पर गंगा के किनारे जगह की तलाश करते करते आईं तो उनके अंदर से एक आवाज आई कि हां इसी जगह पर मंदिर का निर्माण होना चाहिए।
फिर ये जगह खरीद ली गई और मंदिर का काम तेजी से शुरु हो गया। ये बात 1847 की है और मंदिर का काम पूरा हुआ 1855 यानी कुल आठ सालों में।साभार)

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