Sunday, May 27, 2012

एक साल की तृणमूल सरकार







शंकर जालान




कोलकाता। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार को बीते 20 मई को एक साल हो गया। एक साल यानी 365 दिनों के भीतर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कार्य पद्धति ज्यादातर लोगों को नागवार लगने लगी। मौटे तौर पर देखा जाए तो एक साल में ममता ने बातें ज्यादा की और उस तुलना में काम कम किया। ममता का बतौर मुख्यमंत्री पहला साल घोषनाओं का साल रहा। मुख्य विपक्षी दल माकपा तो क्या तृणमूल की सहयोगी कांग्रेस पार्टी भी ममता के अड़ियल रवैए से तंग आती दिखी। राज्य की जनता से जिस उम्मीद से ममता को राज सिंहासन (मुख्यमंत्री की गद्दी) पर बैठाया था, करीब-करीब वह काफूर होती दिखी। बीते साल 20 मई को राज भवन में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ममता वहां से पैदल अपने सरकारी कार्यालय (राइटर्स बिल्ंिडग) पहुंची थी। रास्ते भर उन्होंने लोगों का अभिवादन स्वीकार किया था और लोगों का लगा था कि सचमुच ममता कुछ करेगी, लेकिन एक साल में ही दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। ऐसा नहीं है कि इन 365 दिनों में ममता ने कुछ नहीं किया, लेकिन जनता को जो उम्मीद थी उस लिहाज से ममता द्वारा किया गया काम ऊंट के मुंह में जीरा की कहावत को चरितार्थ करता है। इन सब बातों के बीच ममता बनर्जी की कुछ उपलब्धियों को नदरअंदाज नहीं किया जा सकता। जैसे टाइम पत्रिका द्वारा ममता को दुनिया की सौ जानी-मानी हस्तियों में शुमार करना, अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की ममता से मुलाकात और प्रेस कौंसिल आॅफ इंडिया के चेयरमैन मार्कडेय काटजू का कोलकाता में ममता बनर्जी की तारीफों का पुल बांधने की घटना प्रमुख है। इन घटनाओं ने नि: संदेह ममता के राजनीति कद में इजाफा किया है, लेकिन ममता ने इन 12 महीनों के दौरान अपनी मनमर्जी से बगैर सोचे-विचारे जो फैसले लिए उनमें से कई फैसलों के लिए उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़ा। वैसे तो ममता के कई निर्णय राज्य की साधारण जनता के साथ-साथ बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों, पत्रकारों को गैर जरूरी लगे, लेकिन सरकारी अनुदानप्राप्त पुस्तकालयों में रखे जाने वाले समाचार-पत्रों पर सरकार का हस्तक्षेप और इमामों के लिए मासिक भत्ते की घोषणा ने न केवल ममता की मानसिकता को उजागर किया, बल्कि बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों को उनके (ममता) खिलाफ बोलने का मौका भी दे दिया।
कहना गलत न होगा कि वाममोर्चा को मन से उतारने में राज्य की जनता को 34 साल लग गए थे और जिस मन से राज्य की जनता ने तृणमूल कांग्रेस को जीत दिला कर ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया था। एक साल में ही ममता की आंखों में जनता के लिए वह ‘ममता’ नहीं दिख रही है, जिसकी उसे उम्मीद और आशा थी। दूसरे शब्दों में कहे तो ममता की ‘ममता’ राज्य की जनता से दूर होती जा रही है। राज्य के नाराज लोगों का कहना है कि ममता को जीतने के पीछे उनकी जो मंशा थी वह लगभग धरी की धरी रह गई। ममता के एक साल के कार्यकाल पर लोगों ने कहा- एक कहावत सुन रखी थी दूर का ढोल सुहावना लगता है। ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के एक साल के भीतर ही यह कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है।
ममता बनर्जी ने एक साल पहले 20 मई 2011 को पश्चिम बंगाल में 34 साल से सत्तासीन वाममोर्चा को हराने के बाद बतौर मुख्यमंत्री राइटर्स बिल्डिंग (राज्य सचिवालय) में कदम रखा था। उनकी इस जीत में बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों व कवियों द्वारा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के खिलाफ चलाए गए अभियान ‘परिवर्तन चाई’ (बदलाव चाहिए) का अहम योगदान रहा था। इन लोगों को सौ फीसद उम्मीद थी कि अग्निकन्या के नाम से चर्चित ममता बनर्जी राज्य की बदतर हालात को बदलेंगी और जड़ता की स्थिति को समाप्त कर राज्य की स्थिति में सुधार लाएंगी। वाममोर्चा के 34 सालों की तुलना में एक साल में ही इन लोगों की उम्मीदें धूमिल होती नजर आ रही हैं। मजे की बात तो यह है कि जिन बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट देने अपील की थी, उनमें से कुछ बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार को ‘फासीवादी’ तक कह दिया है।
बताते चले कि बनर्जी के खिलाफ आवाज उठाने वालों में लेखिका महाश्वेता देवी, शिक्षाविद् सुनंदा सान्याल, तरुण सान्याल, नाटककार कौशिक सेन, दक्षिणपंथी सुजात भद्रा हैं, जो कभी परिवर्तन चाई अभियान चलाने वालों की पहली कतार में खड़े थे। इस क्रम तृणमूल कांग्रेस के बागी सांसद और गायक कबीर सुमन के नाम को भी नहीं भूलाया जा सकता है।
परिवर्तन चाई अभियान की अगुवाई करने वाली लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी ममता के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली पहली शख्सियत थीं। बुद्धिजीवी कहते हैं कि कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। कानून-व्यवस्था और बिगड़ी है। बनर्जी आम आदमी की मुख्यमंत्री बनने के लिए क्षुद्र राजनीति से ऊपर नहीं उठ सकी हैं। यह निरंकुशता है, जो तानाशाही से एक कदम पीछे की स्थिति है।
एक कहावत है- बंगाल जो आज सोचता है, वह भारत कल सोचता है। सच है हर जगह यह कहावत सही नहीं हो सकती है, लेकिन यह कहना सही होगा कि बंगाल के बुद्धिजीवी जो आज सोचते हैं, बंगाल की बाकी जनता उसे अगले दिन सोचती है। बनर्जी के साथ जो लोग खड़े हैं वे भी   इस बात को अच्छी तरह समझते हैं और चिंतित हैं।
पार्क स्ट्रीट बलात्कार जिसे मुख्यमंत्री ने झूठा कहा था, कटवा बलात्कार कांड जिसे माकपा की साजिश करार दिया गया था, बनर्जी का मजाकिया चित्र भेजने के लिए यादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र की गिरफ्तारी और एक मामले में पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक पार्थ सारथि राय की गिरफ्तारी जैसी घटनाओं ने बुद्धिजीवियों और ममता बनर्जी के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है।
ममता को उनकी गलतियों का आइना दिखाने की जिम्मेदारी लेते हुए जब कुछ समाचार पत्रों ने उनके खिलाफ आलोचनात्मक नजरिया अपनाना शुरू किया, तो सरकार ने राज्य से सहायता प्राप्त पुस्तकालयों पर ऐसे समाचार पत्र खरीदने पर पाबंदी लगाने वाले विज्ञप्ति जारी कर दी।
सत्ता में आने के बाद सरकारी अस्पतालों के आपातकालीन वार्डों का औचक दौरा हो या ममता का राइटर्स बिल्डिंग से निकलने का समय हो। शुरू-शुरू में वे हमेशा रयल्टी शो की तरह कुछ निजी टीवी चैनलों पर छाई रहती थीं। यह वह दौर था जब बनर्जी सफलता के शिखर पर थीं और उनके लिए सब कुछ नया था। एक साल (2011 से 2012) के भीतर ही जनता को अचानक नई हकीकत का सामना करना पड़ रहा है।
ममता बनर्जी के संवाददाता सम्मलेन की कवरेज करने वाले पत्रकार जानते हैं कि वहां सवाल के लिए कोई जगह नहीं होती है और असहज करने वाले सवालों पर मुख्यमंत्री की कड़ी प्रतिक्रिया होती- आप माकपा के एजेंट हैं।
एक-डेढ़ साल पहले सामान्य से दो शब्द (1) बदलाव (2) चाहिए। जंगल की आग की तरह हर किसी तक पहुंच गए थे। जिसकी शुरुआत नंदीग्राम और सिंगुर से हुई थी। सिंगुर एक बार फिर सुर्खियों में है। सात साल पहले जमीन खोने वालों को विश्वास था कि उन्हें जमीन वापस मिलेगी। बनर्जी ने उन्हें यह भरोसा भी दिया था, लेकिन इस मामले का अभी तक हल नहीं निकल सका है।
ममता बनर्जी के अपनी ऐतिहासिक जीत के एक साल बाद अब भी किसी मुख्यमंत्री की बजाए सड़क पर जूझती, विपक्षी नेता की तरह ज्यादा व्यवहार कर रही हैं। ममता अब बावलेपन की मलिका या मनमौजी ममता हो गई हैं।

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