Thursday, February 3, 2011

राजस्थान का वृंदावन




जहां आरती के वक्त आती थी कामधेनु
शंकर जालान
भारत में आदि काल से वृक्षों की पूजा की जाती है। लोगों में आस्था रहती है कि वृक्षों की पूजा करने मात्र से ही मनुष्य सुख को प्राप्त करता है। प्राचीन काल में वृक्षों की पूजा के लिए राजस्थान में आंदोलन भी चलाया गया था, जिसको दबाने पर लोगों ने अपने प्राणों की आहुति तक दे दी थी।ऐसा ही करीब एक हजार वर्ष पुराना एक चमत्कारी पेड़ राजस्थान के चिड़ावा जिले से लगभग २३ किलोमीटर दूर वृंदावन (भंडूदा) में है, जहां लोग आस्था से जुड़े रहने के कारण सदैव आते हैं। यह धाम काटली नदी के तट पर बसा होने के कारण और भी सुरम्य बन गया है।श्रीबिहारीजी महाराज के अनन्य भक्त स्वामी हरिदास के शिष्य संत शिरोमणि बाबा पुरुषोत्तमदास ने लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पहले अपनी तपस्या के बल पर इस गांव को बसाया था। प्रति वर्ष कृष्ण जन्मोत्सव पर देश के कोने-कोने और विदेशों से भी काफी भक्तजन दर्शनार्थ व पर्यटन के उद्देश्य से यहां आते हैं व बाबा के चरणों में श्रद्धा सुमन चढ़ा कर मनौतियां मांगते हैं।गांव के जोहड़ में बाबा पुरुषोत्तमदास की तपोभूमि में पंच पेड़ दर्शनीय व पूज्यनीय स्थल के रूप में दिन-प्रतिदिन ख्यातिप्राप्त करता जा रहा है। लगभग एक बीघा में यह वृक्ष फैला है, जिसकी पांच शाखाएं एक ही जड़ से विकसित हुई जो आपस में जुड़ी हुई हैं। एक शाखा अलग होकर फिर मिली है। लगभग एक हजार वर्ष पुराना होने के बावजूद यह वृक्ष आज भी हरा-भरा रहता है।बाबा के भक्तों का मानना है कि इस पेड़ के मध्य बैठकर बाबा ने ध्यानमग्न होकर बिहारीजी की अराधना कर उनका आशीर्वचन प्राप्त किया था।बाबा पुरुषोत्तमदास का जन्म ४२३ वर्ष पूर्व सिद्धमुख (राजगढ़, चूरू, राजस्थान) में हुआ था। उनका ध्यान बचपन से ही ईश्वरीय भक्ति में था। तब भी उनके माता-पिता ने उनका विवाह ढांचेलिया परिवार में कर दिया। एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म देने के बाद बाब गृहस्थ जीवन छोड़कर वृंदावन (मथुरा, उत्तर प्रदेश) में जाकर श्रीकृष्ण भक्ति में तल्लीन हो गए। उनकी प्रखरता और विद्धता को देखकर अन्य सप्त तपस्वी उनसे विद्वेष भाव रखने लगे।बाबा को यह रास नहीं आया और वहां से गुरु हरिदासजी से आशीर्वाद लेकर भारत-भ्रमण पर निकले। आमरावती पर्वत मालाओं पर विचरण कर एकता का संदेश देते हुए राधा-कृष्ण की मूर्ति लेकर एकांत स्थान की तलाश में निकल पड़ते। संयोगवश काटली नदी के किनारे जल और वृक्ष को देखकर उन्हें आनंद की अनुभूति हुई और इसे ही वृंदावन मानकर बाबा वहीं ध्यान में बैठ गए। उन्होंने इसी को अपनी कर्मस्थली मानकर इसका नाम वृंदावन रखा। उन्होंने इसी पंच पेड़ को पंच परमेश्वर मानकर तपोभूमि के रूप में विख्यात करवाया।कहते है गुरुदेव की बात को शिरोधार्य कर बाबा वहां से चल पड़े और राजस्थान में नया वृंदावन बसाया। यहां के प्रत्येक कुंज में बाबा ने बालकृष्ण के रूप को देखा और युगल जोड़ी के दर्शन किए। यहीं बाबा की तपोस्थली व पुण्यस्थली है।बाबा बड़े दयालु थे। अपने जीवन काल में दुखियों का दुख दूर करते हुए भगवत भक्ति की प्रेरणा देते थे। उनके पास कोई भी दुखियारा क्यों न गया हो वह खुश होकर लौटता था और बाबा उसे अपने आशीर्वाद व तप के प्रभाव से दुख मुक्त कर देते थे।ग्रमीणों की जवान पर यह किवंदती है कि बाबा सुबह-शाम आरती के वक्त जब शंख बजाते थे तो एक गाय पेड़ के नीचे आकर खड़ी हो जाती थी। बाबा उसके नीचे कमडंल रखने तो वह कमंडल गाय (कामधेनु) के दूध से भर जाता था। लोगों का मानना है कि इस पेड़ के नीचे मांगी गई मनौती पूर्ण होती हैं। इसलिए श्रद्धालु भक्तों का यहां नित्य प्रति आना-जाना लगा रहता है।श्रीबिहारीजी सेवा सदन (कोलकाता) के सदस्यों ने बताया कि वृंदावन (भडुंदा) को आकर्षण पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना है। पंच पेड़ के चारों तरफ संगमरमर युक्त चबूतरे का निर्माण करवाना है, बाबा की तपोभूमि पर स्थायी प्रकाश व्यवस्था व अन्य भी कई सुख-सुविधा की जरूरत है। इस बाबत जिला व राज्य प्रशासन से बातचीत चल रही है।मालूम हो कि यहां राजस्थान के अलावा असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, झारखंड व नेपाल से भी दर्शनार्थी आते हैं।बाबा की प्रेरणा और आशीर्वाद से कोलकाता में बसे बाबा के भक्तों ने मध्य कोलकाता के २, माधो किष्टो सेठ लेन में बाबा का भव्य मंदिर बनाया। २००३ यानी आठ साल पहले बने मंदिर में बाबा की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा बसंत पंचमी यानी सरस्वती पूजा के दिन की गई। तभी से संस्था बसंत पंचमी के दिन अपना वार्षिक उत्सव मंदिर के स्थापना दिवस के मनाती है। इस बार यह आयोजन आठ फरवरी को है।

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