Thursday, July 28, 2011

गोरखालैंड- त्रिपक्षीय करार या भविष्य की टकरार

शंकर जालान



बीते कुछ सालों से गोरखालैंड के नाम पर पश्चिम बंगाल के विभाजन की मांग
को बीते सप्ताह उस वक्त विराम लगा, जब केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम,
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा
(जीजेएम) के लोगों के बीच त्रिपक्षीय करार हुआ और एक समझौते पर हस्ताक्षर
किए गए। राजनीतिक से प्रभावित लोग भले ही इस समझौते को गोरखालैंड का सटीक
हल माने, लेकिन जानकारों के मुताबिक इस त्रिपक्षीय करार में कहीं न कहीं
भविष्य में होने वाली टकरार नजर आ रही है। तृणमूल कांग्रेस समर्थकों के
शब्दों में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहल के कारण राज्य के विभाजन की
नौबत नहीं आई। वहीं वाममोर्चा, भाजपा समेत एवं अन्य विपक्षी दलों के
नेताओं ने समझौते पर असंतोष जताया। दूसरे शब्दों में कहे को समझौते के
कारण पहाड़ में कही खुशी तो कही गम का माहौल है।
समझौते पर हस्ताक्षर के लिए आयोजित समारोह में बनर्जी ने कहा- राज्य का
विभाजन नहीं हुआ है। पश्चिम बंगाल एक है और एक ही रहेगा। दार्जीलिंग
पश्चिम बंगाल का अविभाज्य अंग है। यह राज्य और इसके पर्वतीय हिस्सों का
हृदय-स्थल है। अब पर्वतीय और मैदानी भागों के लोग समृद्धि एवं विकास की
ओर बढ़ेंगे।
जिले के कुर्सियांग उपमंडल के पिनतैल गांव में आयोजित समझौता समारोह में
केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम भी शामिल हुए। यह ऐतिहासिक समझौता गोरखा
जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम), पश्चिम बंगाल और केंद्र सरकार के बीच हुआ है।
इस दौरान चिदंबरम ने कहा कि नई स्वायत्त संस्था का गठन इस समझौते का मूल
तत्व है। स्वायत्त संस्था को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) नाम
दिया गया है जो निर्वाचित सदस्यों की अधिकार सम्पन्न परिषद होगी। इस
परिषद के पास 1980 के दशक में गठित दार्जीलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद
(डीजीएचसी) की तुलना में अधिक अधिकार होंगे।
खबर है कि नई पर्वतीय विकास परिषद का नाम गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन
रखे जाने के कारण मुख्यमंत्री बनर्जी को आलोचना का सामना करना पड़ रहा
है। कयास लगाया जा रहा है कि परिषद में शामिल लोग अंतत: अलग गोरखालैंड
राज्य गठन के लिए बाध्य कर सकते हैं। इस बाबत ने बनर्जी ने सफाई दी हमने
केवल अंग्रेजी के 'रीजनल' शब्द को 'टेरिटोरियल' में बदला है। इसके अलावा
विशेष कोई बदलाव नहीं हुआ है।
त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के विरोध में बंगाल और बांग्ला
भाषा बचाओ समिति ने 48 घंटे के बंद किया। इस वजह से के सिलीगुड़ी उपमंडल
और उसके पड़ोसी जलपाईगुड़ी इलाके में जनजीवन आंशिक रूप से प्रभावित रहा।
कस्बे में बड़ी दुकानें बंद रहीं, निजी बसें नहीं चलीं। सड़कों पर वाहनों
और ऑटो-रिक्शा की संख्या कम रही। सरकारी कार्यालयों में सामान्य रूप से
काम-काज हुआ। पुलिस ने बताया कि धरना देने वाले तीन लोगों को गिरफ्तार कर
लिया गया।
राजनीतिक के जानकारों के मुताबिक, त्रिपक्षीय समझौते के बावजूद अलग
गोरखालैंड राज्य की मांग पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है, लेकिन गौरतलब यह
है कि यह मांग फिलहाल दब गई है। जीजेएम के अध्यक्ष विमल गुरुंग करार के
बाद भी अलग गोरखालैंड की मांग सिर्फ राजनीतिक विवशता के कारण कर रहे हैं।
गुरूंग भली-भांति जानते हैं कि यदि वे इस मांग से पीछे हटे तो उनका भी
हाल वही होगा जो कभी सुभाष घीसिंग का हुआ था।
मोटे तौर गुरुंग द्वारा पृथक गोरखालैंड की मांग किए जाने से फिलहाल इलाके
में किसी अशांति की आशंका नहीं है। जीटीए का चुनाव यदि छह महीने बाद होता
है तब भी चुनाव के बाद उसके पांच वर्ष के कार्यकाल तक पर्वतीय क्षेत्र
में शांति कायम रखने की कोशिश जीजेएम के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम
नहीं होगी।
वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समझौते पर दस्तखत होने के साथ
ही चालीस महीने से पर्वतीय इलाके में जारी संघर्ष पर लगभग विराम लग गया
है। यही नहीं, समझौते पर दस्तखत होने के साथ ही पूरे पर्वतीय क्षेत्र के
लोग खुशी से झूम उठे उससे साफ है कि सरकार व प्रशासन पर यहां के लोगों का
भरोसा फिर से कायम हुआ है। ममतापंथी लोग इसे उनकी (ममता) की बड़ी
उपलब्धि मान रहे हैं। वे कहते हैं कांग्रेस जो काम सात साल में तेलंगाना
में नहीं कर पाई, उसे तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने महज दो महीने में कर
दिखाया। जीजेएम अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर अस्तित्व में आया और जल्द
ही पूरे दार्जिलिंग में उसकी तूती बोलने लगी। विमल गुरुंग उसके सबसे
शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे। उसी गुरुंग को ममता बनर्जी आज यदि जंगी
आंदोलन से विरत रहने के लिए राजी करा सकी हैं तो क्या यह कम बड़ी बात है?
त्रिपक्षीय करार कर ममता ने एक संदेश यह भी दिया है कि छोटी-छोटी
सांस्कृतिक अस्मिताओं को मान्यता देने में सरकारों को उदारता दिखानी
चाहिए। अलगाववादी आंदोलनों से निपटने के लिए सरकारें जब-जब बल प्रयोग
करती हैं तब-तब परिस्थिति और जटिल होती है।
वहीं, वाममोर्चा व भाजपा समेत अन्य दलों के नेता इस समझौते को
दार्जिलिंग समस्या का अंतिम समाधान नहीं मान रहे हैं इन नेताओं का कहना
है कि समझौता और समाधान एक चीज नहीं हैं। यह भी सही है कि सुलह-समझौता
दरअसल समाधान की तरफ बढ़ने वाला एक कदम होता है। इस कदम से यदि अंतिम
समाधान की राह प्रशस्त होती है तब भी यह बेहद तात्पर्यपूर्ण है।
दार्जिलिंग के लोगों की बड़ी शिकायत यह रही है कि सरकार इस क्षेत्र से
खूब राजस्व उगाहती है, पर यहां के विकास पर खर्च बहुत कम करती है।
सरकारी पक्ष के लोग यह दलील दे रहे हैं कि तितरफा समझौते में जीटीए को
सिर्फ भारी बजट ही नहीं दिया गया है, उसे विकास काम में अपने हिसाब से
खर्च करने की आजादी भी दी गई है। यदि इस धनराशि का दुरुपयोग नहीं हुआ तो
निश्चित ही पहाड़ का परिदृश्य बदलेगा। ममता दार्जिलिंग समेत विकास में
पिछड़े पूरे उत्तर बंगाल में क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के लिए
सचेष्ट हैं। जीटीए करार के उपरांत उन्होंने पूरे उत्तर बंगाल के लिए जो
पैकेज घोषित किया है, उसका यदि सही-सही क्रियान्वयन हुआ तो उत्तर बंगाल
से भेदभाव बरतने और विकास में सौतेला व्यवहार किए जाने से बढ़ती गई
क्षेत्रीय असंतुलन की खाई पाटने में निश्चित ही मदद मिलेगी।

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