Friday, October 28, 2011

ममता, माओवाद और मोहल्लत

शंकर जालान



जंगलमहल का नाम जुवान पर आते ही पश्चिम बंगाल के तीन जिलों की याद आती है, जो बीते कई सालों से माओवादी प्रभावित हैं। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर, पुरुलिया और बांकुड़ा में सक्रिय माओवादियों ने न केवल वहां की जनता बल्कि प्रशासन तक की नाम पर दम कर रखा है। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व राज्य की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कुछ महीनों (विधानसभा चुनाव से पूर्व) सरेआम कहती थी कि माओवादियों का कोई अस्तित्व नहीं है। 33 सालों से राज्य में सत्ता पर काबिज वाममोर्चा सरकार की गलत नीतियों के कारण माओवादियों को बढ़ावा मिल रहा है। अब ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने और उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें (ममता) लग रहा है कि माओवाद एक समस्या ही नहीं, बल्कि एक जटिल पहेली भी है।
मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ममता बनर्जी ने तीस दिन के भीतर ही जितनी बुलंद आवाज में कहा था कि उन्होंने माओवादी समस्या से निजात पा ली है अब वे उतनी ही धीमी आवाज में कह रही हैं कि माओवादियों की सक्रियता बढ़ी है। जानकारों के मुताबिक कई बार माओवादी प्रभावित जिलों का दौरा के बावजूद ममता ने तो पहेली का हल निकालने में कामयाब हुई हैं और न ही माओवादियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाने में।
इस साल मई में हुए राज्य विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा को करारी मात देने और भारी जीत के बाद ममता बनर्जी 90 दिन यानी महीने के भीतर माओवाद के साथ-साथ पहाड़ (दार्जिलिंग) की समस्या के समाधान का दावा किया था। पहाड़ की समस्या तो कुछ हद तक गोरखालैंड टेरीटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) नामक एक स्वायत्त परिषद के गठन पर हुए तितरफा करार के बाद हल हो गई, लेकिन माओवादी की समस्या मुंह बाएं खड़ी है।
राजनीतिक हल्कों में यह चर्चा है कि तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में माओवादी प्रभावित जिलों की समस्या बजाए सुलझने और उलझी है। विभिन्न राजनीति दलों के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि हाल में जंगलमहल के दौरे पर गई ममता ने माओवादियों को सात दिनों की मोहल्लत दी है। इस मोहल्लत का कोई औचित्य नहीं है। प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष राहुल सिन्हा ने कहा कि माओवादियों को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए उन्हें मोहल्लत नहीं मौका देना होगा। साथ-साथ उनके भीतर भय भी पैदा करना होगा। सिन्हा ने कहा कि चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी ने जंगलमहल में संयुक्त अभियान (अर्द्ध सैनिक बल व राज्य पुलिस) पर विराम लगाकर बहुत बड़ी भूल की है। वहीं, वाममोर्चा के चेयरमैन व माकपा के राज्य सचिव विमान बसु का कहना है कि माओवादी समस्या के मुद्दे पर ममता लोगों को धोखे में रख रही है। बसु ने कहा कि अजीब विडंबना है कि राज्य सरकार के पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसा नहीं है और ममता बनर्जी हथियार डालने वाले माओवादियों को पेंशन देने की बात कह रही है।
राज्य सरकार और बुद्धिजीवियों के बीच माओवाद को लेकर सहमति नहीं बन पा रही है। एक ओर बुद्धिजीवियों का कहना है कि सरकार को माओवादियों के साथ शांति प्रक्रिया की पहल शुरू करनी चाहिए। दूसरी ओर सरकार यह नहीं सूझ पा रही है कि अंतत: माओवादियों की मंशा क्या है।
हालांकि माओवादियों ने एक महीने के सशर्त युद्धविराम का एलान किया है, लेकिन ममता के लिए यह समझ पाना मुश्किल हो रहा कि क्या माओवादी ईमानदारी से समस्या का समाधान चाहते हैं या फिर इस अवधि का इस्तेमाल ताकत बढ़ाने के लिए। बनर्जी को माओवाद के मुद्दे पर केंद्र सरकार से भी दो-दो हाथ करना पड़ रहा है। केंद्र चाहता है कि जंगलमहल में साझा अभियान जारी रहे, जबकि ममता बनर्जी इसके पक्ष में नहीं दिखती। इस बाबत केंद्र के कड़े रवैए ने उनकी परेशानी बढ़ा दी है। राजनीतिक पयर्वेक्षकों का कहना है कि सत्ता हाथ में आने के बाद अधिकतर मामले में कामयाबी हासिल करने वाली ममता बनर्जी के लिए माओवाद की समस्या गले की हड्डी बनी हुई है। तत्काल ममता इस समस्या से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है।

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