Thursday, May 28, 2009

ममता की पहल

कानून की किसी किताब में यह कहीं नहीं लिखा है कि कोई मंत्री अपने मंत्रालय का कार्यभार किस स्थान पर ग्रह
ण करे। लिहाजा ममता बनर्जी ने यह काम राजधानी दिल्ली के बजाय अपने गृह राज्य प. बंगाल की राजधानी कोलकाता में संपन्न किया तो इसमें कानून या परंपरा का कोई पेच तलाशने का कोई मतलब नहीं है। वैसे भी इसकी सफाई वे इस रूप में दे चुकी हैं कि चक्रवात आइला के रूप में उनका राज्य अभी एक प्राकृतिक आपदा का शिकार है, ऐसे में जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से विमुख होकर वे रेल मंत्रालय में अपनी पहली हाजिरी लगाने दिल्ली कैसे आ सकती हैं। कार्यभार संभालते ही 500 रुपये महीने से कम आय वाले रेलयात्रियों को 100 किलोमीटर तक की यात्रा के लिए 20 रुपये में मासिक पास जारी करने की उनकी घोषणा बताती है कि लालू प्रसाद यादव की लोकलुभावन परंपरा को वे और आगे ले जाने वाली हैं। अलबत्ता उनका एक बयान देश के लिए चिंता का विषय जरूर है कि तृणमूल कांग्रेस से जुड़े सारे केंद्रीय मंत्रियों को सप्ताह में पांच दिन का समय प. बंगाल में बिताना होगा। माना जा रहा है कि उनकी इस घोषणा की हद ढाई साल बाद होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव तक ही है, लेकिन कौन जाने, दस्तूर बन जाने के बाद उनके मंत्री इसे आगे भी खींच ले जाएं।
वैसे बतौर मंत्री उनका लगातार दिल्ली में बैठे रहना भी कोई अच्छी बात नहीं होगी। कई मंत्रियों की दिनचर्या ऐसी ही हुआ करती है और देश के लिए वह भी कोई कम चिंता का विषय नहीं है। लेकिन अच्छी स्थिति यही होती है कि मंत्री की नजर पूरे देश में अपने विभाग के कामकाज पर हो और तमाम राज्यों में बीच-बीच में उनकी भौतिक उपस्थिति भी होती रहे ताकि सरकारी काम महज खानापूरी तक सिमट कर न रह जाएं। ममता बनर्जी के मंत्री गण अगर उनकी घोषणा पर अक्षरश: अमल करने लगे तो उनके मंत्रालयों को उनके दर्शन हफ्ते में दो ही दिन हो पाएंगे, वह भी तभी जब उनका स्वास्थ्य लगातार सामान्य बना रहे। इसके अपने खतरे हैं और ज्यादा जिम्मेदारी वाले मंत्रालयों के लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है। ममता बनर्जी के कोलकाता में कार्यभार ग्रहण को अगर इस खतरे से जोड़ कर देखा जाए तो उनके इस फैसले का एक बुरा आयाम सामने आता है। पश्चिम बंगाल में इस बार का विधानसभा चुनाव जीतना तृणमूल कांग्रेस के लिए जीवन-मरण का प्रश्न हो सकता है। लेकिन अच्छा होता कि ममता बनर्जी अपनी इस राजनीतिक चुनौती को ध्यान में रखते हुए या तो केंद्रीय मंत्रालयों का मामला विधानसभा चुनाव तक के लिए टाल ही देतीं, या अपनी पार्टी के लिए सिर्फ ऐसे ही मंत्रालय स्वीकार करतीं जिनमें मंत्रियों की अनुपस्थिति से ज्यादा फर्क न पड़ता हो। ऐसा कुछ भी न तो है और न होने वाला है, लिहाजा इस आशंका के लिए थोड़ी जगह बची हुई है कि ममता बनर्जी की दोहरी प्राथमिकता का असर कहीं उनके राज्य स्तरीय राजनीतिक हितों और यूपीए सरकार के केंद्रीय हितों, दोनों के लिए ही नकारात्मक न देखने को मिले। इस आशंका को एक तरफ रख दें तो ममता बनर्जी जमीन से जुड़ी अनुभवी नेता हैं, और रेल मंत्रालय का जिम्मा उन्होंने पहले भी संभाला है, लिहाजा उनकी क्षमता पर संदेह की तो कोई गुंजाइश ही नहीं है।

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